खेती और किसान से जुड़े विरोधाभास का समाधान? | सम सामयिक | | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / December 22, 2020 | | | | |
भारतीय कृषि पर जानी-मानी ब्रिटिश विशेषज्ञ बारबरा हैरिस-व्हाइट ने हाल में बताया था, 'भारत में कृषि बाजार कैसे विकसित होते हैं और उनमें क्या कमजोरियां हैं।' बारबरा ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी की मानद प्रोफेसर हैं। वह भारत की घनिष्ठ मित्र हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय कृषि बाजार सूक्ष्म बाजार हैं, जिन्हें बहुत सी पूंजी और तकनीक की जरूरत है और किसानों की आमदनी बढ़ाने की जरूरत है।
ज्यादा पूंजी, तकनीक और आमदनी की जरूरत समझी जा सकती है, लेकिन सूक्ष्म बाजारों की धारणा के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। वे न केवल समझ से परे हैं बल्कि उनके बीच संपर्क को भी नहीं समझा जा सकता है। इससे यह समस्या पैदा होती है कि उनके इस तरह से नहीं जोड़ा जा सकता है कि उन्हें एक बड़ा बाजार माना जा सके। नए कृषि कानूनों में यही किया गया है।
अगर आप इसे स्वीकार करते हैं तो दूसरा सवाल यह है कि अगर भारत के कृषि बाजार सूक्ष्म बाजार हैं तो उनमें मांग वक्र सपाट नहीं हो सकता है। अगर हम उन्हें बड़ा बाजार मानते हैं तो उनमें मांग वक्र सपाट होगा। एक सपाट वक्र का मतलब है कि इतने अधिक उत्पादक हैं कि उनमें से कोई भी अकेला कीमतों को प्रभावित नहीं कर सकता है। प्रत्येक उत्पादक बाजार कीमतों को स्वीकार करता है।
लेकिन सपाट वक्र केवल बड़े बाजारों के लिए ही सही हो सकता है। किसी सूक्ष्म बाजार में न्यूनतम ढाल होना चाहिए क्योंकि उसमें बहुत कम विक्रेता होते हैं, जिनका कीमतों पर मामूली प्रभाव होता है। वे उतने शक्ति विहीन नहीं हैं, जितना उन्हें बनाया जा रहा है।
जोखिममय ढाल
भले ही ढाल कितना ही छोटी हो, लेकिन जोखिम एवं उसके स्तरों को लेकर किसानों की धारणा में बड़ा बदलाव ला सकता है। जब आप हर साल औसतन प्रत्येक एकड़ से महज 20,000 रुपये की कमाई करते हैं तो आपकी जोखिम वहनीयता का स्तर छोटा होगा। इसका अपवाद पंजाब है, जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की बदौलत बहुत से किसान पांच गुना तक कमाई करते हैं।
यह एमएसपी का मुख्य बिंदु है। यह मांग वक्र को कृत्रिम रूप से सपाट बनाकर इन बाजारों को जोखिम मुक्त बनाने की कोशिश करता है। साथ ही यह कॉबवेब सिद्धांत को गलत साबित कर भविष्य के बारे में उत्पादकों की धारणा को बदलने की कोशिश करता है। कॉबवेब सिद्धांत कहता है कि अगले साल का कृषि उत्पादन उस साल की कृषि कीमतों पर आधारित होता है।
इस तरह मेरी राय में एमएसपी, जिस स्तर पर आय के स्रोत को सुचारु करने की कोशिश करता है, वहां तक एक वेतन के समान है। प्रतिस्पर्धी बाजार बनाकर इसे कमजोर करना एक 'परिवर्तनशील वेतन' के समान है, जिसमें वेतन कर्मचारी के खुद के सीमांत राजस्व उत्पाद के अलावा अन्य चीजों पर निर्भर है। संयोग से परिवर्तनशील वेतन कंपनी की वास्तविक लागत घटाने का एक तरीका है, जो कृषि के मामले में सरकार है। प्रधानमंत्री ने भी ऐसी बात कही है।
सुस्त कृषि
लेकिन यह कल्पना कीजिए कि प्रतिस्पर्धी बाजार बनते हैं तो ढाल और उसके नतीजतन जोखिम धारणा का क्या होगा? अगर सभी बाजारों में कीमतें एकसमान होंगी तो किसी को नुकसान नहीं होगा। लेकिन अगर पड़ोसी बाजारों में अलग-अलग कीमतें होंगी और यदि यह अंतर खेत से उन तक परिवहन लागत से अधिक या कम होगा तो मांग वक्र का ढाल कैसा होगा? क्या इसी स्तर तक व्यक्तिगत किसान (अगर कीमत परिवहन लागत से अधिक है) या आढ़तिये (अगर कीमत परिवहन लागत से कम है) कीमत को प्रभावित कर सकते हैं? यह विश्लेषण आज की समस्या की जड़ है।
यह जवाब किन्हीं दो बाजारों की दूरी पर निर्भर करता है। मध्य बिंदु पर स्थित किसान सबसे ज्यादा नुकसान में रहेंगे, जिन्हें सबसे ज्यादा दूरी तय करनी होगी। ऐसे में किसी को हर्जाना दिया जाना है तो यह परिवहन लागत अधिक होने की वजह से किसान को दिया जाना चाहिए। अगर उपज को खेत से उठाया जाता है तो इसकी संभावना नहीं है। दक्षिणी राज्यों में उपज खेत से उठाई जाती है और पंजाब में भी ऐसा ही होगा।
असल में पंजाब में सुस्त बैंकिंग की तरह सुस्त कृषि है। वहां किसान कीमतों को सपाट रखना चाहते हैं क्योंकि वे इनपुट पर अधिक सब्सिडी और सुनिश्चित सरकारी बाजार के कारण अति उत्पादन करते हैं।
किसान बनाम कृषि
मैं इसे यह कहते हुए समाप्त करना चाहता हूं कि कृषि का संबंध अर्थशास्त्र से है, लेकिन किसानों का संबंध राजनीति से है। आप किस बारे में बात करते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि आप सरकार (कृषि) में हैं या विपक्ष (किसान) में हैं।
दुविधा यह है कि अगर कृषि को कुशल बनाया जाता है तो किसान बुरी स्थिति में होंगे और यदि किसानों की स्थिति बेहतर बनाई जाती है तो कृषि बदतर स्थिति में होगी। इस चीज को वर्ष 1800 से अंतरराष्ट्रीय अनुभव दर्शाते हैं। यह अनुभव यह भी दर्शाता है कि चुनावी लोकतंत्रों में जो सरकार कृषि में सुधार की कोशिश करती हैं, उन पर किसान तगड़ी चोट करते हैं। लेकिन यह अनुभव यह भी दिखाता है कि जो सरकार कृषि सुधारों की कोशिश नहीं करती हैं, वे आखिर में टूट जाती हैं। संप्रग में भी ऐसा ही हुआ था। मेरा मानना है कि राजग इससे बचने की कोशिश कर रहा है।
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