एयर इंडिया से शुरुआत | |
संपादकीय / 12 17, 2020 | | | | |
चंद नाकाम प्रयासों के बाद आखिरकार सरकार की एयर इंडिया की प्रस्तावित बिक्री की कोशिशों में कुछ प्रगति देखने को मिलने लगी है। जानकारी के मुताबिक इस विमानन कंपनी में लंबे समय से रुचि रखने वाले टाटा समूह समेत कई समूहों ने इसमें अभिरुचि दिखाई है। आजादी के बाद राष्ट्रीयकरण किए जाने से पहले इसका नाम टाटा एयरलांइस ही था। यदि एयर इंडिया को टाटा समूह को बेचा जाता है तो मामला बेहद जटिल हो जाएगा क्योंकि टाटा संस का संबंध दो अन्य विमानन कंपनियों से है। टाटा संस अपने मलेशियाई साझेदार के साथ मिलकर सस्ती विमानन सेवा एयर एशिया का संचालन कर रही है जबकि सिंगापुर एयरलाइंस के साथ मिलकर वह विस्तारा के रूप में एक पूर्ण विमानन सेवा भी चला रही है। विमानन क्षेत्र में कुछ सुदृढ़ीकरण उपयोगी हो सकता है लेकिन तथ्य यह है कि देश में विमानन कंपनियों के विलय के नतीजे बेहतर नहीं रहे हैं और टाटा संस के साझेदार आगे की रणनीति को लेकर अलग नजरिया रख सकते हैं। यदि एयर इंडिया और विस्तारा का विलय होता है तो भारत में पूर्ण सेवाओं वाली केवल एक विमानन कंपनी रह जाएगी और विलय के बाद बनी कंपनी का लंबी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर एकाधिकार होगा।
सरकार के नजरिये से पहली जरूरत है एयर इंडिया को बेचना। जाहिर है ऐसी विमानन कंपनी को अच्छी कीमत मिलने की आशा बहुत कम है जो कर्ज में डूबी हो और जिसकी यात्रियों में भी अच्छी छवि न हो। महामारी ने यात्राओं और छुट्टियों से जुड़े कारोबार को प्रभावित किया है। ऐसे में विमानन कंपनियों का कारोबार भी प्रभावित हुआ है और आने वाले समय में हालात कब सुधरेंगे इसका किसी को अंदाजा नहीं है। सरकार को यह अच्छी तरह समझना होगा कि इस बिक्री का उद्देश्य राजस्व जुटाना नहीं है। बल्कि यह एक ऐसी परिसंपत्ति से निजात है जिसमें बड़े पैमाने पर सरकारी संसाधन लगते हैं। ऐसा करके सरकार एक संकटग्रस्त क्षेत्र में नई जान फूंक सकती है और मौजूदा पूंजी का अधिक किफायती इस्तेमाल कर सकती है।
व्यापक विनिवेश कार्यक्रम को देखते हुए भी इन बातों पर विचार किया जाना चाहिए। सरकार अक्सर विनिवेश को विशुद्ध रूप से राजस्व की दृष्टि से देखती है जिसका इस्तेमाल करके राजकोषीय कमियों को दूर किया जा सके। मौजूदा संदर्भ में जब वस्तु एवं सेवा कर राजस्व जुटाने के मामले में निरंतर कमजोर प्रदर्शन कर रहा है और महामारी के कारण राजस्व की मांग बढ़ती जा रही है, तो ऐसे में अतिरिक्त गैर कर राजस्व का आना सुखद माना जाएगा। परंतु विनिवेश को लेकर व्यापक दलील यह है कि निजी क्षेत्र, सरकार की तुलना में परिसंपत्तियों का अधिक किफायती इस्तेमाल करेगा। ऐसे समय में जब वृद्धि और सुधार भी बहुत अहम हैं, पूर्ण निजीकरण की ऐसी दलील को नकारा नहीं जा सकता। एयर इंडिया से इस सिलसिले की शुरुआत होनी चाहिए। इसके बाद सरकार को नजर डालनी चाहिए कि और कौन सी परिसंपत्ति हैं जिनका समुचित इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। उदाहरण के लिए कोयला क्षेत्र को इस वर्ष के आरंभ में निजी खनन के लिए खोलने के बाद उसका बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा। यहां तक कि मुनाफे वाला सरकारी क्षेत्र भी अब सरकार के लिए दुधारू गाय नहीं माना जा सकता। सरकार शायद यह सुनिश्चित करेगी कि इस बार एयर इंडिया की बिक्री हो जाए। उसे निजीकरण को लेकर एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इस वर्ष मई में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी उपक्रम नीति की बात की थी जो यह तय करेगी कि नीतिगत क्षेत्रों में अधिकतम चार सरकारी उपक्रम हों, शेष का निजीकरण कर दिया जाए। सात महीने बाद भी यह नीति अभी प्रगति पर ही है।
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