सरकारी खरीद प्रक्रिया में सुधार की जरूरत | बुनियादी ढांचा | | विनायक चटर्जी / December 16, 2020 | | | | |
सन 1994 वह वर्ष था जब सरकारों द्वारा संसाधनों की खरीद या बिक्री के तरीके में तब्दीली लाई गई। उस वर्ष अमेरिका के संघीय संचार आयोग ने निजी दूरसंचार सेवाप्रदाताओं को रेडियो स्पेक्ट्रम बेचने का एक नया तरीका पेश किया था। यह तरीका पॉल मिलग्रॉम और रॉबर्ट विल्सन समेत कई अर्थशास्त्रियों ने भी सुझाया था। इन दोनों अर्थशास्त्रियों को इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला है। उन्हें यह पुरस्कार वैसे ही काम के लिए मिला जिसकी वजह से 1994 की ऐतिहासिक नीलामी जैसा काम हो सका। सन 1994 के बाद से सरकारों ने ऐसी नीलामी से 200 अरब डॉलर से अधिक की राशि जुटाई है। डॉ. मिलग्रॉम और डॉ. विल्सन के शोध ने दुनिया भर की सरकारों द्वारा निजी क्षेत्र से वस्तुओं और सेवाओं की खरीद-बिक्री के तरीके को भी बदल दिया।
यद्यपि इस अहम शोध से हमारा साबका काफी हद तक पड़ चुका है परंतु भारत में सरकार द्वारा बुनियादी और गैर बुनियादी दोनों क्षेत्रों में की जाने वाली अधिकांश खरीदारी में एल1/एच1 बोली प्रक्रिया का पालन किया जाता है जहां सबसे कम या सबसे बड़ी बोली लगाने वाले को वह बोली हासिल होती है और उसे अनुबंध का मौका मिलता है। बिजली आपूर्ति भी इसका एक उदाहरण है। इसके बावजूद यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो बुनियादी ढांचा और उससे संबंधित क्षेत्रों के बारे में मामूली जानकारी भी रखता होगा वह यह मानेगा कि प्रतिस्पर्धी बोली के अपने लाभ हैं लेकिन फिर भी यह समस्याओं से मुक्त नहीं है। बोली और निविदा प्रक्रिया में समस्या की कई संस्थागत वजह हैं। इन समस्याओं की कुछ वजह पर प्रकाश डालते हुए डॉ. मिलग्रॉम और डॉ. विल्सन ने बताया कि नीलामी कैसे की जानी चाहिए और नीलामी प्रक्रिया में किन नियमों का पालन करना चाहिए।
उदाहरण के लिए यह देखना चाहिए कि बोली प्रक्रिया खुली है या बंद? बोली हासिल करने वाला क्या कीमत चुकाता है? आपकी बोली की कीमत क्या है या दूसरी सर्वश्रेष्ठ बोली क्या है? इस शोध में इस पहलू पर भी विचार किया गया है कि नीलामी किसे हासिल करनी चाहिए।
समस्या के मूल में वह जानकारी है जो हर बोलीकर्ता को अनुबंध या परियोजना के अंतिम मूल्य के बारे में होती है। यह भी कि वे व्यक्तिगत रूप से अनुबंध का क्या मूल्य लगाते हैं? उदाहरण के लिए कोई सरकार सड़क निर्माण परियोजना के लिए बोली आमंत्रित करती है। परियोजना अवधि में वास्तविक नकद प्रवाह (टोल राजस्व से हासिल या अंतिम बिक्री से प्राप्त) लगभग समान होता है, भले ही बोली किसी को मिले। परंतु बोली के समय परियोजना की लागत समेत उसके शुद्ध मूल्य को लेकर हर बोलीकर्ता का अनुमान अलग होता है। यदि सभी कंपनियों को एक दूसरे के साझा मूल्यांकन अनुमान के बारे में जानकारी मिल जाए तो वे अपनी बोली में बदलाव कर सकते हैं। शोध ने दर्शाया कि ऐसी स्थितियों में और खासतौर पर एल1/एच1 नीलामी में इस बात की बहुत संभावना रहती है कि बोली उस कंपनी को हासिल होगी परियोजना का अधिक मूल्यांकन करते हुए आक्रामक ढंग से बोली लगाती है। हालांकि बाद में उसे पछताना पड़ता है। बुनियादी परियोजनाओं में हमें बार-बार ऐसा ही देखने को मिला है। ऐसी आक्रामक बोली विक्रेता यानी सरकार के लिए समस्या क्यों होनी चाहिए? यदि कोई निजी पक्ष किसी परियोजना के मूल्यांकन को लेकर अधिक आशावादी है, उदाहरण के लिए मान लेते हैं कोई बिजली खरीद अनुबंध होता है तो जनता को ऐसे शुल्क से लाभ होगा जिनमें बिजली की कीमत कम से कम हो।
परंतु जैसा कि हमने प्राय: देखा भी है, अत्यधिक आक्रामक बोली के कारण परियोजनाओं की गुणवत्ता खराब होती है, वित्तीय व्यवस्था में दिक्कत आती है, परियोजना का क्रियान्वयन देरी से होता है या ज्यादा बुरे हालात में अनुबंध की शर्तों पर दोबारा बातचीत होती है। अंतत: नुकसान सरकार और जनता का ही होता है। ऐसी नीलामी कैसे तैयार की जाए जहां बोलीकर्ता अतिरंजित कदम न उठाए? ऐसे नियम कैसे बनाए जाएं जिनसे यह सुनिश्चित हो कि सभी बोलीकर्ताओं तक परियोजना के बारे में उचित जानकारी पहुंच सके। नीलामी के डिजाइन डॉ. मिलग्रॉम और डॉ. विल्सन के पहले विलियम विकरे का शोध काफी चर्चित है। उन्हें भी नोबेल पुरस्कार मिला था। परंतु डॉ. मिलग्रॉम और डॉ. विल्सन ने इस शोध का विस्तार किया और इसमें अधिक जटिल और हकीकत के करीब परिदृश्यों को शामिल किया जिनका उल्लेख हमने ऊपर किया है। अत्यधिक बोली लगाने की प्रवृत्ति भी इसमें शामिल है जिसे 'विजेता का अभिशाप' नाम से भी जाना जाता है। उदाहरण के लिए डॉ. विल्सन ने सन 1970 के दशक में एक के बाद एक कई पर्चे लिखकर कहा कि एल1/एच1 स्वरूप या उस जैसी अन्य नीलामी में विजेता के अभिशाप की समस्या कहीं अधिक गहरी दिक्कतों को जन्म दे सकती है।
उनके काम पर अमल करते हुए अन्य लोगों ने सरकारी खरीद के लिए श्रेष्ठ कार्य व्यवहार को लेकर हमारी समझ को विकसित किया। यह बात दीगर है कि अलग-अलग परिस्थितियों में यह अलग-अलग हो सकता है। इसके चलते दुनिया के कई देशों में सरकारी खरीद की प्रक्रिया में सुधार भी आया है। उदाहरण के लिए दुनिया भर के कई देशों में सरकारी व्यवस्था में तथाकथित औसत बोली नीलामी की प्रक्रिया अपनाकर विजेता के अभिशाप का पूरी तरह अंत कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में सर्वश्रेष्ठ बोलीकर्ता विजेता नहीं होता है बल्कि उस बोलीकर्ता को बोली हासिल होती है जो सभी बोलियों के औसत के सबसे करीब होता है। इसके पीछे विचार यह है कि औसत बोली के करीब बोली लगाने वाले को परियोजना के मूल्य का बेहतर अनुमान है। इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेताओं से मिलने वाला बड़ा सबक यह है कि देश में सरकारी खरीद की प्रक्रिया में सुधार काफी लंबे समय से लंबित है। अब वक्तआ गया है कि देश में सरकारी खरीद की प्रक्रिया को सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूप में उत्कृष्ट बनाया जाए।
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