बैंकिंग: कॉर्पोरेट स्वामित्व से जुड़ा गलत विमर्श | देवाशिष बसु / December 16, 2020 | | | | |
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंतरिक कार्यबल ने नवंबर में यह अनुशंसा दी है कि बड़े कॉर्पोरेट एवं औद्योगिक घरानों को बैंकिंग नियमन अधिनियम, 1949 में जरूरी संशोधन करने के बाद बैंकों के प्रवर्तन की अनुमति दी जा सकती है ताकि बैंकों और दूसरे कारोबारों के बीच संबद्ध कर्ज वितरण एवं जोखिम से निपटा जा सके और बड़े कारोबारी समूहों की निगरानी व्यवस्था मजबूत की जा सके। इस सुझाव ने अचानक ही समूचे बैंकिंग जगत में हलचल मचा दी है। बैंकर, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री और सबसे बढ़कर पूर्व आरबीआई गवर्नर एवं 'जन बुद्धिजीवी' रघुराम राजन भी इस प्रस्ताव के विरोध में खड़े हो गए।
रोचक है कि भारत पहले ही कारोबारी समूहों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दे चुका है। वर्ष 2013 में जारी बैंक लाइसेंसिंग दिशानिर्देशों में यह मंजूरी दी गई थी। हालांकि बाद में छोटे वित्त बैंकों के लिए लाइसेंसिंग मानकों के ऐलान के वक्त कारोबारी समूहों पर रोक लगा दी गई।
बीसवीं सदी की शुरुआत में अमेरिकी डाकू सरगनाओं से लेकर भारत में राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकों के लगातार नाकाम होने से मैंने अटपटे कारणों से कारोबारी समूहों को बैंकिंग क्षेत्र से दूर रखा जाते हुए देखा है। रघुराम राजन कहते हैं, 'इस कदम से कुछ खास कारोबारी समूहों में आर्थिक एवं राजनीतिक ताकत का संकेंद्रण और बढ़ेगा।' यह आशंका दूर करने के लिए बड़े कारोबार समूहों को बैंक लाइसेंस देने से रोका जा सकता है। यहां मैं यह साफ करना चाहता हूं कि मैं न तो इस विचार के खिलाफ और न ही पक्ष में हूं। लेकिन हमें डरने एवं सामान्यीकरण से अलग हटकर देखने की जरूरत है। लिहाजा मैं उन बड़े मुद्दों का जिक्र करना चाहूंगा जिन्हें पहले हल करने की जरूरत है।
जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक मौजूद हैं तो फिर किसी अन्य बैंक की जरूरत किसे है? विडंबना ही है कि भारत में संदिग्ध कारोबारी घरानों को भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) में जमा आम जनता के पैसे की लूट की खुली छूट मिली रही है। किंगफिशर एयरलाइंस के विजय माल्या, विनसम डायमंड्स के जतिन मेहता और नीरव मोदी से लेकर भूषण ग्रुप के सिंघल परिवार तक यह सूची बहुत लंबी है। इन कारोबारियों को अपना बैंक खोलने की जरूरत ही नहीं थी। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई), पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी), आन्ध्रा बैंक और सिंडिकेट बैंक तक तमाम पीएसबी से वे आसानी से कर्ज ले सकते थे। इस अंदाज में कितनी रकम की लूट हुई है? आरबीआई के एक पूर्व डिप्टी गवर्नर का अनुमान है कि पीएसबी के करीब 20 लाख करोड़ रुपये का कर्ज फंसा हुआ है। मुझे लगता है कि इनमें से अधिकांश कर्ज भ्रष्टाचार एवं ऊपरी आदेश पर कर्ज बांटने की वजह से फंसे हैं। कोई भी यह पहेली सुलझाने की कोशिश नहीं करता है। न तो प्रवर्तक, बैंकर, आरबीआई के अधिकारी, वित्त मंत्रालय के अफसरशाह और न ही नेता ही इसकी पहल करते हैं।
अब इस आंकड़े पर दूसरी नजर से गौर करते हैं। इंडसइंड बैंक ने निवेश, अग्रिम भुगतान एवं अन्य परिसंपत्तियों में 2.5 लाख करोड़ रुपये लगाए हैं। अगर इसका 8 फीसदी हिस्सा फंस जाता है तो फिर बैंक को 20,000 करोड़ रुपये का वित्तीय प्रावधान करना पड़ेगा। इसके लिए ऐसे करीब 100 बैंकों को पीएसबी के फंसे कर्ज आंकड़े याद दिलाने होंगे। अगर मान लें कि पीएसबी के फंसे कर्ज का आंकड़ा करीब 8 लाख करोड़ रुपये है तो हमें इसकी बराबरी के लिए इंडसइंड जैसे 40 बड़े बैंकों की जरूरत पड़ेगी। अगर आरबीआई ने बीते दशकों में केवल चार नए बैंकों को ही लाइसेंस दिया है और वे इंडसइंड जैसा बड़ा बैंक बन जाते हैं तो फिर उनके फंसे कर्ज का आंकड़ा 80,000 करोड़ रुपये होगा। अकेले अक्टूबर 2017 में ही मोदी सरकार ने करदाताओं के जमा 2.11 लाख करोड़ रुपये सार्वजनिक बैंकों में डाले थे। आप खुद देख सकते हैं कि हमें असल में किस मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए। भारतीय बैंकिंग परिदृश्य की चिंता एवं बुराई गहराई तक फैला भ्रष्टाचार, शून्य जवाबदेही, नियामक की बड़ी नाकामी और हमारे पैसे से इन बैंकों में बार-बार नई पूंजी डालना है। चूककर्ताओं में चार संसद सदस्य भी रहे हैं जिनमें से दो पद्मश्री से सम्मानित भी थे।
कारोबारी घरानों के पास बैंकों का मालिकाना हक होने से जुड़ी बुराइयों को समझाने के लिए हमें 50-100 साल पहले के नाकाम बैंकों की कारस्तानी का जिक्र करना होगा। लेकिन उस समय न तो कोई समुचित बैंकिंग नियामक था और न ही वह तमाम शक्तियों से लैस था।
मैं यह नहीं कह रहा कि कारोबारी घरानों को बैंकिंग लाइसेंस देने चाहिए। लेकिन एक सजग पाठक यह पूछ सकता है कि क्या हिंदुजा ग्रुप कारोबारी घराना नहीं हैं (और टाइम्स ग्रुप भी क्या इस श्रेणी में नहीं आता है)? हिंदुजा समूह का तो रिकॉर्ड भी विवादास्पद रहा है और उनके तमाम विदेशी कारोबार एवं असूचीबद्ध काम हैं। आरबीआई के आंतरिक कार्यबल के सुझावों पर गौर करते समय यह थोड़ा पाखंड लगेगा कि हम हिंदुजा को बैंकिंग लाइसेंस मिलने के बारे में चर्चा से परहेज करें। लेकिन उस चर्चा का यह मतलब भी होगा कि आरबीआई के लाइसेंसिंग मानकों को कुछ लोगों के अनुरूप ढालने के लिए किस तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। इन मुद्दों पर कोई भी चर्चित अर्थशास्त्री चर्चा करना पसंद नहीं करते हैं।
आरबीआई के व्यापक अधिकार
आरबीआई ने बीते दो दशकों में सिर्फ चार नए बैंकों को ही लाइसेंस दिए हैं। लिहाजा यह मान लेना वाजिब है कि नीति बदलने से सभी आवेदकों को बैंकिंग लाइसेंस मिल जाएंगे? अगर तमाम जांच-पड़ताल के बाद टाटा या मुरुगप्पा समूह को लाइसेंस मिलता है तो क्या वह बैंक बेकाबू हो जाएगा? अगर आरबीआई अपना काम सही ढंग से करता है जो कि निहायत ही जरूरी है तो फिर कोई भी कारोबारी समूह अधिक नुकसान नहीं कर सकता है। इसके अलावा कड़ी निगरानी होने से केवल अच्छे रसूख वाले कारोबारी समूह ही लाइसेंस के लिए आवेदन करेंगे, संदेहास्पद समूह तो गड़बड़ी फैला पाने में नाकामी को देखते हुए अर्जी भी नहीं लगाएंगे। ऐसे में मुद्दा स्वामित्व से कहीं ज्यादा लाइसेंस एवं निगरानी की गुणवत्ता का है। (ध्यान रखने वाली बात है कि लूट का शिकार हुए सार्वजनिक बैंकों का स्वामित्व सरकार के पास ही है)।
बैंकिंग नियमन अधिनियम की धारा 35 के तहत आरबीआई बैंकों के बही-खाते की पड़ताल करता है और बैंक के किसी भी निदेशक या कर्मचारी की जांच कर सकता है। बैंक इसमें पूरी तरह सहयोग करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। आरबीआई की अनुशंसाओं के आधार पर केंद्र सरकार किसी बैंक को जमा स्वीकार करने से रोक सकता है या उन्हें अपना कामकाज समेटने का भी आदेश दे सकता है। धारा 36एए(1) के तहत आरबीआई किसी बैंक के चेयरमैन, निदेशक, मुख्य कार्याधिकारी या अन्य कर्मचारी को हटा भी सकता है। आरबीआई न केवल सीईओ की नियुक्ति को मंजूरी देता है बल्कि वह सभी अहम फैसले के केंद्र बैंक बोर्ड में अपना प्रतिनिधि भी नामित करता है। अगर जरूरत पड़ी तो आरबीआई विशेष ऑडिट भी कर सकता है। बैंकों पर निगरानी की इसकी शक्तियां समय-समय पर बैंकों द्वारा दाखिल किए जाने वाले रिटर्न एवं विवरणों से बढ़ती भी हैं। अब अगर आरबीआई अपनी शक्तियों का ठीक से इस्तेमाल नहीं करता है तो कारोबारी घरानों द्वारा संचालित बैंक निश्चित रूप से खतरा साबित हो सकते हैं। लेकिन यह बात बैंकरों द्वारा प्रवर्तित बैंकों (येस बैंक एवं ग्लोबल ट्रस्ट बैंक) के बारे में भी कही जा सकती है। वास्तव में, सिर्फ आरबीआई के कमजोर एवं अक्षम होने की वजह से अगर कारोबारी घरानों को बैंकिंग कारोबार से दूर रखा जाता है तो इसका मतलब है कि हमें कहीं बड़ी समस्या से निपटना है। हमें सबसे पहले नियामकीय जवाबदेही के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की जवाबदेही के बारे में भी चर्चा करनी चाहिए।
(लेखक मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं)
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