बदलाव के दौर से गुजर रहा विनिर्माण उद्योग | प्रसेनजित दत्ता / December 16, 2020 | | | | |
सरकार एक बार फिर भारत के विनिर्माण उद्योग में उत्साह का संचार करने का प्रयास कर रही है। इससे पहले भी देश के कई प्रधानमंत्री इस मोर्चे पर प्रयास कर चुके हैं और उन्हें सफलता भी मिली, लेकिन यह सीमित रही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में एक के बाद एक नीतिगत सुधारों की घोषणाएं की गई हैं। कोविड-19 महामारी से उत्पन्न परिस्थितियों के बीच मोदी सरकार के लिए अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए ये उपाय करना और लाजिमी हो गया था। सरकार ने जिन उपायों की अब तक घोषणाएं की हैं उनमें घरेलू विनिर्माताओं के हितों की रक्षा के लिए शुल्कों में वृद्धि, कुछ खास किस्म के आयात के लिए लाइसेंस एवं कोटा के प्रावधान, श्रम कानूनों में बदलाव और हाल में विभिन्न क्षेत्रों के लिए उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) आदि शामिल हैं। घरेलू विनिर्माताओं को बाहरी प्रतिस्पद्र्धा से बचाने के लिए सरकार ने पिछले वर्ष क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) से अलग रहने की घोषणा की थी।
सरकार के इन कदमों को मिली-जुली प्रतिक्रियाएं मिली हैं। इसकी वजह यह है कि ऐसे उपाय पहले भी किए जा चुके हैं, जिनके उत्साहजनक नतीजे नहीं मिले हैं। संरक्षणवाद और कोटा से संबंधित प्रावधानों से मांग-आपूर्ति असंतुलन, ऊंची कीमतों और निम्र गुणवत्ता वाले उत्पादों को बढ़ावा मिला है। अधिक शुल्क लगाने से घरेलू उद्योगों को फायदे के बजाय नुकसान ही हुआ है और इससे देश से होने वाले निर्यात को चोट पहुंची है। उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन का इस्तेमाल कारोबारी अपने लाभ के लिए कर सकते हैं। श्रम कानूनों में बदलाव से कामगारों के हित प्रभावित हुए हैं और इनसे विनिर्माताओं को भी बहुत लाभ नहीं मिल रहा है। लघु एवं मझोले उद्यमों (एसएमई) के लिए आसान ऋण सुविधा और भविष्य निधि की अनिवार्यताओं के साथ उनकी मदद करने की कोशिश की गई है, लेकिन सरकार ने इसके साथ कई शर्तें भी जोड़ दी हैं। फिलहाल इन योजनाओं से जुड़ी सभी महीन बातें सामने नहीं आई हैं और कुछ समय बाद ही इनके असर का अंदाजा लगाया जा सकेगा। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार आने वाले दिनों में कई और घोषणाएं कर सकती है। हालांकि ऐसा करने से पहले सरकार को उन तीन पहलुओं को समझने की जरूरत होगी, जो वैश्विक स्तर पर विनिर्माण को प्रभावित कर रहे हैं। कई लोगों ने ऐसी संभावनाएं जताई हैं कि कोविड-19 महामारी से आपूर्ति तंत्र को हुए नुकसान और चीन के साथ दुनिया के अन्य देशों के बिगड़ते संबंधों के बाद कई बड़े उत्पादक वहां (चीन) से बाहर आ जाएंगे और भारत का रुख करेंगे। इस बात को लेकर कोई शक नहीं कि महामारी से आपूर्ति तंत्र को नुकसान पहुंचा है और चीन से कंपनियों का मोह भंग हुआ है, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। कई बड़ी कंपनियों ने चीन पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता कम करने की कोशिश शुरू कर दी है, लेकिन उन्होंने चीन से बाहर अपने संयंत्र ले जाने की योजना नहीं बनाई है। ये कंपनियां विभिन्न विकल्पों पर विचार कर रही हैं।
मलेशिया, इंडोनेशिया और वियतनाम एशिया में विनिर्माण केंद्रों के तौर पर अपनी दावेदारी मजबूत कर रहे हैं। यूरोप में पोलैंड, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और हंगरी विनिर्माण में नवाचार आजमाने के प्रमुख केंद्र बनकर उभरे हैं और कई पश्चिमी यूरोपीय देश उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसकी वजह यह है कि ये देश पश्चिमी यूरोपीय देशों के लिए नजदीक होंगे। अफ्रीका में इथियोपिया और केन्या कुछ हद तक चीन की मदद से कम लागत वाले विनिर्माण केंद्र के तौर पर अपनी पहचान स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। भारत के पक्ष में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह मोबाइल फोन एवं इलेक्ट्रॉनिक सामान के लिए असीम संभावनाओं वाला बाजार है। कई नकारात्मक पहलू भी हैं। मसलन अनुबंध लागू करने में दिक्कतें, अधिकारियों का जरूरत से अधिक हस्तक्षेप एवं हर जगह व्याप्त भ्रष्टाचार, भारतीय कामगारों की कम कार्य उत्पादकता, कमजोर ढांचागत सुविधा और नीतिगत अस्थिरता विनिर्माण केंद्र बनने की भारत की संभावनाओं पर दाग लगा रहे हैं। इन तमाम नकारात्मक पहलुओं को साधने की जरूरत होगी।
ऐसा देखा गया है कि 50 वर्ष या इससे अधिक समय में विनिर्माण गतिविधियां कम श्रम लागत की पेशकश करने वाले एक देश से दूसरे देश में स्थानांतरित हुआ है। विकसित देश हमेशा से कम उत्पादन लागत वाले केंद्र की तलाश में रहे हैं। हालांकि अब केवल इसी पहलू पर विचार नहीं किया जाता है। इसका कारण यह है कि नए विनिर्माण संयंत्र लागत कम करने, विश्वसनीयता बढ़ाने और वेतन मद में कटौती के लिए स्वचालन, रोबोट के इस्तेमाल और डिजिटलीकरण की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। अब विनिर्माण में तकनीक के इस्तेमाल की महत्ता बढ़ गई है। चीन शुरू में सस्ते श्रम उपलब्ध कराने की खूबी के कारण एक प्रमुख विनिर्माण केंद्र बना था, लेकिन इसने औद्योगिक कार्यों में मशीनों एवं रोबोट के अधिक से अधिक इस्तेमाल और संयंत्र स्वचालन में बड़े पैमाने पर निवेश कर अपनी प्रतिस्पद्र्धी क्षमता बरकरार रखी। चीन ने प्रचुर श्रम संसाधन और कम लागत वाले देश के तौर पर अपनी पहचान खोई है, लेकिन पिछले पिछले कई वर्षों से यह औद्योगिक रोबोटिक्स का सबसे बड़ा खरीदार रहा है, इसका एक मतलब यह भी है कि अगर भारत दुनिया का विनिर्माण केंद्र बनना चाहता है तो उसे इस धारणा पर विचार करना होगा कि परंपरागत एसएमई विनिर्माण उद्योग की बुनियाद होंगे। वास्तव में एसएमई को आवश्यक पूंजी और तकनीक नहीं मिली और इनका कारोबार नहीं बढ़ा तो वे काफी नुकसान में रहेंगे।
पहले ऐसी मान्यता थी कि विनिर्माण ऐसे रोजगारों का सृजन करती है, जिससे लोग कृषि से कारखानों की तरफ कूच करने लगते हैं। हालांकि अब भविष्य में यह रुझान कमजोर होता जाएगा। रोजगार के अवसर जरूर सृजित होंगे, लेकिन यह कारखानों में ही होगा यह जरूरी नहीं। अब कारखानों में विभिन्न कार्यों में तकनीक का इस्तेमाल खासा बढ़ गया है और वहां अब ऐसे रोजगार सृजित होंगे जिनमें अधिक आईटी एवं डिजिटल कौशल की जरू रत होगी। भविष्य में संयंत्र स्वचालन, डिजिटलीकरण, रोबोटिक प्रोग्रामिंग, डिजिटल रखरखाव, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और अन्य दूसरे खंडों में रोजगार आएंगे। नए विनिर्माण की मदद करने के लिए सभी तरह की सहायक सेवाएं एवं कंपनियां खड़ी होंगी। सरकार को एकीकृत नीतियां बनाते समय इस बात का ध्यान रखना होगा।
भारत में कुछ ही सरकारों ने दीर्घ अवधि को जेहन में रखते हुए नीतियां बनाई है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि देश में जितनी भी प्रगति हुई है उनमें ज्यादातर उन सुधारों की वजह से हुई है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में हमारे लिए जरूरी हो गए थे। देश लगातार लंबे समय तक आगे बढऩे में निरंतरता भी बरकरार नहीं रख पाया है। यह स्थिति बदलनी जरूरी है। ऐसा नहीं हुआ तो विनिर्माण के कमजोर एवं सुस्त केंद्र होने के लिए भारत की आलोचना होती रहेगी।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैइकव्यू के संस्थापक एवं संपादक हैं।)
|