लोकतंत्र को मापना कतई सही नहीं | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / December 13, 2020 | | | | |
यह बहस बेमानी है कि जब नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने कहा, 'हमारे देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है' तो दरअसल उनका तात्पर्य क्या था। आप उन लोगों की बात मान सकते हैं जो इस पर नाराज हैं और मानते हैं कि यह सीमित लोकतंत्र की मोदी सरकार की अवधारणा का बयान है जिसे एक अफसरशाह ने सामने रखा है।
आप चाहें तो इस विषय पर कांत के उस आलेख से भी प्रभावित हो सकते हैं जो विगत गुरुवार को 'द इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित हुआ। उनका कहना है कि उन्हें गलत समझा गया और वह केवल यह कहना चाहते थे कि भारतीय सुधारोंकी तुलना चीन से नहीं की जा सकती क्योंकि हमारे यहां 'कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है।' आप चाहें तो दोनों पक्ष सुन सकते हैं लेकिन 'दोनों पक्ष' इन दिनों एक विवादित अभिव्यक्ति है।
इस बात से अन्य अहम सवाल भी उभरते हैं। लोकतंत्र आर्थिक वृद्धि के लिए अच्छा है या बुरा? कितना लोकतंत्र अच्छा होता है और कब यह बहुत ज्यादा हो जाता है? क्या सीमित लोकतंत्र जैसी कोई चीज होती है?
करीब दो दशक पहले नई दिल्ली में एशिया सोसाइटी के एक सम्मेलन में मैं इस बहस में उलझ गया था। मैं उस पैनल में था जिसमें हॉन्गकॉन्ग के अचल संपत्ति कारोबारी और परमार्थी तथा हांग लुंग समूह के मालिक रोनी चान भी साथ थे। उस समय वह चीन में काफी समय बिता रहे थे, खासकर शांघाई के पुनर्विकास कार्यों में। श्रोताओं ने उनसे पूछा कि वह भारत में निवेश कब करेंगे।
रोनी ने स्पष्ट कहा कि वह भारत में निवेश नहीं करेंगे क्योंकि देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है। उनका कहना था कि यदि यहां कुछ कम लोकतंत्र होता तो वह निवेश करते। इससे श्रोताओं में हलचल मच गई लेकिन तथ्य और आंकड़े रोनी के साथ थे। चीन तेजी से विकास कर रहा था और भारत 1991 के पहले दौर के सुधारों के बाद जूझ रहा था। पहली पंक्ति में बैठे जापानी राजदूत ने मामला सुलझाया उन्होंने कहा, 'दूसरे विश्वयुद्ध में पूरी तरह बरबाद होने के बाद क्या जापान दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक चमत्कार नहीं है? और हमारा देश पूर्ण लोकतंत्र वाला देश है।' इस बात पर बहस शांत हो गई। चीन से पहले दक्षिण कोरिया, ताइवान समेत कई आर्थिक चमत्कार देखने को मिल चुके हैं। जापान जैसे कुछ देशों ने लोकतंत्र से शुरुआत की और भविष्य में उसे और मजबूत किया।
दक्षिण कोरिया और ताइवान दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से झगड़ों से उबरे और उन्होंने तानाशाही से शुरुआत की। परंतु अर्थव्यवस्था के विकास के साथ और लोगों की जागरूकता बढऩे के साथ उन्होंने इतने नाटकीय ढंग से लोकतंत्रीकरण किया कि नई सदी में पैदा हुए युवा जो इस क्षेत्र के विशेषज्ञ न हों या यूपीएससी की तैयारी न कर रहे हों वे पार्क चुंग-ही के अधीन दक्षिण कोरिया और जनरल च्यांग काई शेक और उनके बेटे के अधीन ताइवान की कल्पना तक नहीं कर सकते।
ये तीनों देश अब पूर्वी एशिया में चीन के ठीक सामने लोकतंत्र की मशाल की तरह जगमगा रहे हैं। जापान और ताइवान से चीन का टकराव है तो दक्षिण कोरिया का टकराव पाकिस्तान के बाद चीन के संरक्षण वाले दूसरे परमाणु संपन्न देश उत्तर कोरिया से टकराव है। तीनों देश हमें बताते हैं कि आर्थिक वृद्धि और लोकतंत्र में कोई विरोधाभास नहीं है। यह भी कि अर्थव्यवस्थाएं और समाज जैसे-जैसे विकसित होते हैं वे ज्यादा लोकतंत्र चाहते हैं, न कि कम।
चीन की बात करें तो कह सकते हैं कि देशों की तकदीर के बारे में अतीत उनके भविष्य की दिशा तय करता है। चीन में आज भले लोकतंत्र नहीं है लेकिन यह चीन उस चीन से काफी अलग है जहां तंग श्याओ फिंग ने नियंत्रण में ढील देनी शुरू की थी।
शी चिनफिंग ने प्रक्रिया को उलट दिया। उन्होंने कई आजादियां छीन लीं। इससे अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ लेकिन उनकी चुनौतियां बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए 'आत्म निर्भर चीन' पर उनका ताजा दस्तावेज देखें। यह दस्तावेज चीन को महाशक्ति के रूप में तैयार करने और एक नए शीतयुद्ध की कल्पना के अंतर्गत बनाया गया है। उन्होंने चीन में लोकतंत्र की बढ़ती चाह का दमन किया है। यह अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के बजाय पीछे ले जाएगा।
हम चीन से प्रभावित हैं क्योंकि चार दशक पहले हमने लगभग एक जैसे हालात से शुरुआत की थी लेकिन आज उसकी प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यक्ति आय से पांच गुनी है और दोनों का अंतर बढ़ रहा है। परंतु पूर्वी एशिया के देशों के समक्ष वह छोटा नजर आता है। ताइवान की प्रति व्यक्ति आय चीन से ढाई गुना है और दक्षिण कोरिया की तीन गुना। आप तय कर सकते हैं कि इन देशों ने 'जरूरत से अधिक लोकतंत्र' की कीमत चुकाई है या इससे लाभान्वित हुए। ताइवान और दक्षिण कोरिया महामारी से भी सबसे बेहतर तरीके से निपटे। उनके आंकड़ों पर सबको यकीन है। इस बहस को शुरू करने वाले रोनी चान ने भी इतनी संपत्ति और शोहरत छोटे से हॉन्गकॉन्ग में ही कमाई। तकनीकी रूप से चीन का हिस्सा होने के बावजूद वह 'ढेर सारे लोकतंत्र' में फला-फूला। आशावादियों को यकीन था कि विलय के बाद हॉन्गकॉन्ग चीन को काफी बदल देगा। शी चिनफिंग ने उसे बदला भी। वह लोकतंत्र संस्थानों रचनात्मक और उद्यमिता से जुड़ी ऊर्जा का गला घोंट रहे हैं। उसके उर्वर मस्तिष्क और बेहतर कारोबार पश्चिम का रुख कर रहे हैं।
भारत में एक तबका ऐसा है जो मानता है कि जरूरत से अधिक लोकतंत्र एक बोझ है। उनके मुताबिक भारत को एक उदार तानाशाह की जरूरत है। जाहिर है वे कभी तानाशाही में नहीं रहे। आपातकाल भी महज 19 महीने का था और वह 43 वर्ष पहले समाप्त हो चुका। वे सिंगापुर का उदाहरण देंगे। वहां आप सुरक्षित हैं, कानून अपना काम करता है, आप किसी राजनीति में नहीं उलझते, वहां निरंतरता है भले ही जिंदगी के मजों पर कुछ प्रतिबंध जरूर हैं और हमेशा जुर्माने और जेल की आशंका में जीना होता है। चीन को छोड़कर तमाम देशों में लोकतांत्रिक और आर्थिक वृद्धि का इतिहास साथ-साथ रहा है। चीन भी अब गति खो रहा है। रूस ने अपने यहां कम्युनिज्म के समापन के बाद का लाभांश गंवाते हुए एक नए किस्म की तानाशाही चुनी। यूरोप के उसके चौथाई आकार के देशों की अर्थव्यवस्था उससे बड़ी है। ईरान और इराक की आबादी कम है लेकिन वहां हाइड्रोकार्बन भंडार समूचे यूरोप से अधिक हो सकते हैं। ये दोनों देश पर्शिया और मेसोपोटामिया की प्राचीन संस्कृति वाले देश हैं। दोनों ने कई पीढिय़ां विवाद में गुजारीं हैं। उन पर प्रतिबंध लगे, वहां जनता की स्थिति तीसरी दुनिया के लोगों से भी खराब रही। इसके लिए वे जरूरत से अधिक लोकतंत्र को उत्तरदायी ठहराएंगे या कम लोकतंत्र को? क्या लोकतांत्रिक देश में शाह, सद्दाम या आयतुल्लाह को दशकों तक लगाम अपने हाथ रखने को मिलती? तुर्की के वैध और स्वतंत्र ढंग से निर्वाचित नेता एर्दोआन को लगा कि अधिक लोकतंत्र अच्छा नहीं है और उन्होंने लोकतंत्र कम किया। इसका असर देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा।
अंतिम नतीजे के लिए मैं घुमंतू संवाददाता का जाना-पहचाना तरीका अपना रहा हूं: एक टैक्सी चालक की समझ। जनवरी 1990 में पूर्वी ब्लॉक की कवरेज के लिए मैं प्राग में था। वहां मेरी मुलाकात एक बेरोजगार कंप्यूटर इंजीनियर से हुई। वह कम्युनिस्टों को गाली दे रहा था। मैंने उसे बताया कि कैसे मेरे देश में वे अभी भी कुछ राज्यों में चुनाव जीत रहे हैं। उसने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि हम कभी किसी तानाशाही या कम्युनिस्ट शासन में नहीं रहे।
मैंने कहा कि हम आपातकाल में रहे हैं। इंजीनियर ने जवाब दिया कि आपातकाल ने हमारी राजनीतिक आजादी छीनी तो हमें पता चला कि हमने क्या खो दिया है और हम उसकी बहाली के लिए लड़े। उसने कहा कि आपने कभी आर्थिक आजादी नहीं देखी इसलिए आप नहीं जानते कि आपने क्या खो दिया और कम्युनिस्ट शासन में और क्या खो देंगे। उसने कहा कि कम्युनिस्टों के आगमन के पहले उसके देश में पूरी आर्थिक आजादी थी।
हमारे होटल पहुंचने पर यह चर्चा समाप्त हुई। वहां एक इमारत पर लटके बैनर पर लिखा था- अपने घर में स्वागत है श्रीमान बाटा! थॉमस बाटा एक चेक उद्यमी थे जिन्होंने फुटवियर का विशाल कारोबार खड़ा किया था। कम्युनिस्ट शासन आने के बाद हर चीज का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। यह शासन समाप्त होने के बाद बाटा वापस देश लौटे। राजनीतिक आजादी के बिना आर्थिक आजादी नहीं बच सकती। लोकतंत्र की मजबूती से ही उद्यमिता की ऊर्जा और आर्थिक वृद्धि मजबूत होगी।
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