सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) को अब लाभांश भुगतान के अलावा अनिवार्य तौर पर गैर जरूरी परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण की योजना प्रस्तुत करनी होगी। सरसरी तौर पर यह उचित प्रतीत होता है क्योंकि गैर जरूरी परिसंपत्ति की बिक्री से नकदी जुटाने में मदद मिलेगी जिसे सरकार के साथ साझा किया जा सकता है। लाभांश आय केंद्र सरकार के लिए गैर कर राजस्व का एक अहम घटक है और कर राजस्व के उलट इसे राज्यों के साथ साझा करने की जरूरत नहीं होती। सरकारी उपक्रमों का उच्च लाभांश उपयोगी हो सकता है। खासतौर पर मौजूदा वर्ष जैसे समय में जब कुल राजस्व में बहुत अधिक गिरावट देखने को मिल सकती है। समस्या यह है कि सरकार बीते कई वर्षों से सरकारी उपक्रमों का दोहन कर रही है और वे शायद अब इस स्थिति में नहीं हों कि लाभांश भुगतान में इजाफा कर सकें। बीते पांच वर्ष के दौरान 55 सूचीबद्ध सरकारी उपक्रमों ने अपने कुल लाभ का 70 फीसदी हिस्सा लाभांश के रूप में चुकता किया। इन उपक्रमों का भुगतान अनुपात निफ्टी 50 की कंपनियों की तुलना में दोगुने से अधिक था। दिलचस्प है कि लाभांश भुगतान के अलावा सूचीबद्ध सरकारी उपक्रमों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे बाजार पूंजीकरण बढ़ाने की रूपरेखा पेश करें। उच्च बाजार पूंजीकरण स्वाभाविक रूप से सरकार को विनिवेश के समय मदद पहुंचाएगा। हालांकि यह तमाम घटनाक्रम दर्शाता है कि सरकार के इन उपक्रमों के साथ व्यवहार और इनसे उसकी अपेक्षा में बुनियादी तालमेल का अभाव है। यह समस्या नई नहीं है। सरकार अक्सर सरकारी बैंकों समेत तमाम सरकारी उपक्रमों का इस्तेमाल अपनी बजट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करती है। यह इस्तेमाल राजस्व और व्यय दोनों क्षेत्रों में किया जाता है। सरकार इन उपक्रमों से न केवल अधिक लाभांश की आशा करती है बल्कि पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने के लिए भी कड़ी मेहनत की जाती है। अब सरकार इनसे बाजार पूंजीकरण बढ़ाने की अपेक्षा भी कर रही है।
इन तमाम लक्ष्यों को एक साथ नहीं हासिल किया जा सकता है। यदि सरकारी उपक्रम नियमित रूप से उच्च लाभांश देते हैं तो उनके पास निवेश के लिए ज्यादा कुछ नहीं होगा। इसका असर वृद्धि पर भी पड़ेगा। कमजोर राजस्व और मुनाफे में इजाफा सरकारी उपक्रमों की लाभांश चुकाने की क्षमता पर असर डालेगा। धीमी वृद्धि और कमजोर बैलेंस शीट सीधे तौर पर मूल्यांकन और बाजार पूंजीकरण को प्रभावित करेगी। शेयर बाजार में सरकारी उपक्रमों के कम मूल्यांकन की एक वजह सरकार के निरंतर हस्तक्षेप की आशंका भी है। अल्पांश हिस्सेदारों के हित हमेशा तत्कालीन सरकार से जुड़े नहीं रहते। सरकार के हस्तक्षेप और परिचालन के सामान्य नियमों के चलते सरकारी उपक्रम हमेशा निजी क्षेत्र के साथ प्रभावी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते। प्रतिस्पर्धा से दो चार होने पर सरकारी उपक्रम प्राय: संघर्ष करते नजर आते हैं। सरकार उपक्रमों का 70 प्रतिशत से अधिक मुनाफा पेट्रोलियम और कोयला क्षेत्र से आता है जहां निजी क्षेत्र की उपस्थिति नगण्य है। कुल मिलाकर देखें तो चालू वर्ष में असाधारण परिस्थितियां हैं और सरकार अपने बजट दायित्वों के लिए अधिक से अधिक संसाधन जुटाना चाहेगी। ऐसे में यदि वह सरकारी उपक्रमों से जुड़ी नीतियों की समीक्षा में दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखे तो बेहतर होगा। सरकार को इन सरकारी उपक्रमों और इनके बोर्ड को कामकाज के लिए जरूरी स्वायत्तता देनी चाहिए और उन्हें प्रतिस्पर्धा करके मूल्यवर्धन का अवसर देना चाहिए। बाजार मूल्य बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि मुनाफा और आय बढ़ाई जाए। सरकारी उपक्रमों को परिसंपत्ति बेचकर सरकारी राजस्व की कमी की पूर्ति के लिए मजबूर करना और उनसे उच्च लाभांश मांगना उनकी वृद्धि संभावना को प्रभावित करेगा। इससे उनकी स्थिति बिगड़ेगी और इसके बजट आवंटन पर दूरगामी परिणाम होंगे।
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