किसान प्रदर्शन से अमरिंदर सिंह को मिली ताकत | सियासी हलचल | | आदिति फडणीस / December 11, 2020 | | | | |
यह बता पाना मुश्किल है कि दिल्ली में प्रदर्शन के बाद असल फायदा क्या किसानों का हुआ है? पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के दोनों हाथों में लड्डू हैं। पटियाला की पूर्व रियासत के महाराज कैप्टन अमरिंदर आज पंजाब के महाराज बन चुके हैं।
इस नए विश्वास का संकेत उस समय मिला जब अमरिंदर अपने प्रतिद्वंद्वी नवजोत सिंह सिद्धू से पिछले महीने मिले। सिद्धू ने गत वर्ष जुलाई में स्थानीय निकाय विभाग से मुक्त किए जाने के बाद मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। उस समय अमरिंदर ने सिद्धू को खराब प्रदर्शन करने वाला मंत्री बताया था। उन्होंने सिद्धू को बिजली विभाग देने की पेशकश भी की थी लेकिन सिद्धू ने इसे लेने से मना कर दिया था। उस समय सिद्धू को यही लगा था कि प्रियंका गांधी और राहुल गांधी उनके साथ न्याय करेंगे। उसके बाद से कैप्टन और सिद्धू की कोई बात नहीं हुई थी।
यह मुलाकात अमरिंदर के करीबी एवं खेल मंत्री राणा गुरमीत सिंह सोढी के प्रयासों का नतीजा थी। लंच पर मिले दोनों नेताओं की बैठक करीब डेढ़ घंटे तक चली। इस बैठक से कांग्रेस नेता एवं पंजाब के पार्टी प्रभारी हरीश रावत की गैरमौजूदगी संदेह पैदा करने वाली थी। इससे हर किसी ने यही अंदाजा लगाया कि यह मुलाकात मुख्यमंत्री की शर्तों के मुताबिक हुई थी। अमरिंदर का मानना है कि उन्होंने क्रिकेटर से नेता बने सिद्धू को सातवें आसमान से नीचे उतारकर हकीकत की ठोस जमीन पर लाने का काम किया है। इस घटनाक्रम के बाद पंजाब कांग्रेस में अमरिंदर के सामने कोई असरदार चुनौती नहीं बची है। उनके सबसे बड़े आलोचक माने जाने वाले प्रताप सिंह बाजवा ने गत अगस्त में उनके इस्तीफे की भी मांग की थी। लेकिन न तो उस मांग के बारे में उसके बाद से कुछ सुनने को मिला है और न ही बाजवा के बारे में ही सुनाई दिया है। वामपंथी रुझान वाले वित्त मंत्री एवं सुखबीर सिंह बादल के चचेरे भाई मनप्रीत सिंह बादल के बारे में भी अधिक जानकारी नहीं है। लेकिन बादल अपनी चालों को लेकर किसी जल्दबाजी में नहीं हैं। सच कहें तो पंजाब के तमाम विधायक यह शिकायत करते रहते हैं कि अमरिंदर से संपर्क कर पाना खासा मुश्किल है। लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। किसानों के आंदोलन की आभा में चमक रहे अमरिंदर ने कृषि कानूनों का एक वैकल्पिक संस्करण पेश किया जिसका समर्थन मजबूरी में विपक्षी दल शिरोमणि अकाली दल को भी करना पड़ा। इस तरह अमरिंदर राजनीतिक रूप से काफी सुखद स्थिति में हैं। यहां तक कि कनाडा के जस्टिन ट्रूडो भी उनके समर्थन में खड़े हो गए हैं।
अमरिंदर को कांग्रेस के बाहर भी कोई चुनौती नहीं मिल रही है। अकाली दल को केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार द्वारा विवादास्पद कृषि कानून पारित किए जाने से बड़ा नुकसान हुआ है। भले ही केंद्र सरकार से इस्तीफा देना रणनीतिक कदम रहता आया है लेकिन हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफे के बावजूद पंजाब में लोग इस बात से आश्वस्त नहीं हो पाए हैं कि इन कानूनों को बनाने में अकाली दल का हाथ नहीं रहा है। खुद हरसिमरत ने भी मंत्रिमंडल से इस्तीफे के ऐलान के बाद कहा था, 'इन कानूनों के बारे में हमारी-आपकी सोच नहीं, किसानों की राय मायने रखती है। और उनका मानना है कि ये कानून उनके लिए अच्छे नहीं हैं।' अकाली दल के साथ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रिश्ते इस ऐलान के साथ खत्म हो गए हैं कि वह अगले विधानसभा चुनाव में राज्य की सभी 117 सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ेगी। इस घोषणा के साथ ही 1992 से चला आ रहा दोनों दलों का गठबंधन टूट गया है। वर्षों तक अकाली दल वरिष्ठ सहयोगी की भूमिका में रहते हुए 94 सीटों पर चुनाव लड़ता था जबकि भाजपा के खाते में 23 सीटें आती थीं। अब हरेक निर्वाचन क्षेत्र में आम आदमी पार्टी (आप) के भी मौजूद होने से वर्ष 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव बहुपक्षीय मुकाबले में तब्दील होने वाले हैं जिसके परिणामों का कोई भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। कुछ लोगों के मुताबिक अपनी पार्टी के भीतर और पस्त अकाली दल से असरदार चुनौती नहीं मिलने पर कैप्टन अमरिंदर सिंह जल्द चुनाव कराने के बारे में भी सोच सकते हैं। लेकिन एक सलाहकार कहते हैं कि भाजपा को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगाकर चुनावों को एक साल आगे खिसकाने से भला कौन रोक सकता है? खुद मुख्यमंत्री इस सोच में यकीन रखते हैं कि बहुत जरूरी होने पर ही कोई काम किया जाना चाहिए। कभी-कभार आलस से भरा छद्मावरण भी फायदेमंद होता है।
भाजपा ने पंजाब को लेकर अपनी गतिविधियां शुरू भी कर दी हैं। करीब तीन हफ्ते पहले भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने पंजाब में पार्टी के दस जिला कार्यालयों का ऑनलाइन उद्घाटन किया था। अमरिंदर और उनके तौर-तरीकों से नाखुश लोगों को अपने पाले में लाना भाजपा का अगला कदम होगा। लेकिन क्या जीत हासिल करने के लिए इतना ही काफी होगा? जहां यह सच है कि हिंदुओं एवं अनुसूचित जातियों की पंजाब के मतदाताओं में 43 फीसदी आबादी है और अगर सिख वोट बंट जाते हैं तो फिर भाजपा ही लाभ की स्थिति में रहेगी। फिर भी यह देख पाना मुश्किल है कि भाजपा सरकार बनाने लायक आंकड़ा किस तरह जुटा पाएगी?
जहां भाजपा खुले तौर पर खुद को अमरिंदर के साथ सीधे मुकाबले में लाना चाहेगी, वहीं भाजपा अंदरखाने सोचती है कि उसे अमरिंदर के साथ शिकायती तेवर नहीं अपनाना चाहिए। वह गांधी परिवार से इतर अपना अलग रुख रखने वाले, राष्ट्रवादी पृष्ठभूमि वाले (1965 की जंग में वह सेना की पश्चिमी कमान के प्रमुख जनरल हरबख्श सिंह के एडीसी थे) और एक सैन्य इतिहासकार के तौर पर पहचान रखने वाले अमरिंदर का सम्मान भी करती है। इसके बावजूद भाजपा अमरिंदर के लिए मैदान खाली नहीं छोड़ेगी। लेकिन भाजपा के भीतर कई लोगों का मानना है कि वह गलत पार्टी में मौजूद एक सही नेता हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को उनके उत्तराधिकारी की तलाश में जुट जाना चाहिए और इस प्रक्रिया में वह उन्हें भी भागीदार बनाए।
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