नए हालात में भारतीय अर्थव्यवस्था का हाल | राजेश कुमार / December 11, 2020 | | | | |
ज्यादातर भविष्यवक्ता चालू वित्त वर्ष के लिए अपने वृद्धि अनुमान संशोधित कर रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल में अपने ताजा मासिक बुलेटिन में कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था चालू तिमाही में यानी उसके पहले के अनुमान से एक तिमाही पहले ही संकुचन से बाहर निकल सकती है। जुलाई-सितंबर तिमाही (दूसरी तिमाही) का आधिकारिक आंकड़ा जारी हो गया है जिससे अर्थव्यवस्था की सही स्थिति का पता लगा है।
इस तिमाही में कॉरपोरेट क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन ने चौंकाया है और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों में भी सुधार आया है। हालांकि दूसरी तिमाही में संकुचन की धीमी रफ्तार से भी भारतीय अर्थव्यवस्था की मुश्किलें खत्म नहीं होंगी। अनुमानों के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार वित्त वर्ष 2021-22 (वित्त वर्ष 2022) के अंत में वित्त वर्ष 2020 से कम रहने के आसार हैं। इस संदर्भ में यह याद किया जाना चाहिए कि महामारी के आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करने से पहले ही वृद्धि सुस्त पड़ रही थी, जिससे मंदी की प्रकृति को लेकर एक तगड़ी बहस शुरू हुई थी। वित्तीय क्षेत्र की कमजोरी और राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति जैसे अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कुछ कारक और चुनौतीपूर्ण बन जाएंगे।
महामारी से पहले की अवधि में आर्थिक वृद्धि में सुस्ती के लिए जिन बड़े कारणों का हवाला दिया जा रहा था, उनमें से एक बड़ा कारण संरक्षणवाद था। भारत के इस रास्ते पर बने रहने का इरादा हाल में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) समझौते पर हस्ताक्षर को लेकर उसकी प्रतिक्रिया से साफ हो गया। आरसेप समझौते से विश्व का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बनेगा। इसमें शामिल 15 देशों का 2019 में वैश्विक उत्पादन में करीब 30 फीसदी हिस्सा रहा। एचएसबीसी के अनुमानों के मुताबिक यह वर्ष 2030 तक बढ़कर 50 फीसदी से अधिक हो जाएगा।
हालांकि इसके सदस्यों ने दरवाजा खुला छोड़ा है, लेकिन ऐसा नहीं लगता है कि भारत बाद में भी आरसेप में शामिल होगा। देश का आधिकारिक मत यह है कि आरसेप में शामिल होने का भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ता। भारत पिछले साल ही बातचीत से हट गया था। एक धारणा यह भी है कि पिछले मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) से भारत के हितों को नुकसान पहुंचा है। हालांकि इस बारे में चर्चा होनी चाहिए कि क्या भारत विश्व के सबसे बड़े और संभवतया सबसे गतिशील व्यापार क्षेत्र से बाहर रहकर बड़ा जोखिम ले रहा है। यह बात स्वीकार करना महत्त्वपूर्ण है कि एफटीए साझेदारों ने अपने उत्पादों की भारतीय बाजार में डंपिंग नहीं की है और चालू खाते के स्तर पर घाटा पिछले वर्षों में लगभग स्थिर रहा है।
भारत का चालू खाते का घाटा वैश्विक वित्तीय संकट के बाद तेजी से बढ़ा था, जिससे 2013 में मुद्रा संकट जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। लेकिन वह पूरी तरह कमजोर आर्थिक प्रबंधन का नतीजा था। सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष नौशाद फोब्र्स ने भी इस समाचार-पत्र में 19 सितंबर, 2019 को लिखा था कि भारत के एफटीए का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है। इस आलेख का शीर्षक था, 'भारत के एफटीए: चुनौती या अवसर?' इसके अलावा भारत का चीन के साथ बड़ा व्यापार घाटा है, जबकि उसके साथ एफटीए भी नहीं है। असल चिंता यह है कि अगर भारत आरसेप से जुड़ता है तो उसके बाजार चीन से आयातित वस्तुओं से पट जाएंगे। हालांकि शुल्क में अगले कुछ वर्षों में कमी के आसार हैं, जिससे तैयारी का समय मिल जाएगा। इससे भारत निर्यात बढ़ा पाएगा।
यह तय है कि भारत दुनिया के इस सबसे गतिशील क्षेत्र से दूर रखकर वैश्विक मूल्य शृंखला (जीवीसी) का एक अहम हिस्सा नहींं बन पाएगा, जो निर्यात के लिए अत्यंत जरूरी है। इससे निवेश प्रभावित होगा क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन देशों में निवेश करना चाहेंगी, जो सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी हैं। वैश्विक मूल्य शृंखला के लिए माल की अबाध आवाजाही आवश्यक है, जो अत्यधिक शुल्क की बाधाओं से संभव नहीं होगी। यह सही है कि फिर भी स्थानीय बाजार और संभवतया निर्यात की खातिर उत्पादन के लिए कुछ निवेश आएगा, लेकिन वह भारत की संभावनाओं के बराबर नहीं होने के आसार हैं। यह दिखाने के लिए पर्याप्त पुस्तकें मौजूद हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्धी बनाता है और ज्यादा निर्यात के बिना ऊंची दर से लगातार वृद्धि दर्ज करना मुश्किल है।
इसलिए भारत को तेज आर्थिक वृद्धि हासिल करने के लिए व्यापार एवं निर्यात पर ध्यान देना होगा। यह ऐसी चीज नहीं है कि वह भारत ने पहले नहीं की है। दो अर्थशास्त्रियों अरविंद सुब्रमण्यन और सौमित्र चटर्जी ने हाल में एक पत्र (भारत की निर्यात आधारित वृद्धि : मिसाल एवं अपवाद ) में लिखा कि भारत का निर्यात वृद्धि के स्तर पर प्रदर्शन वर्ष 1995 से 2018 के बीच विश्व के शीर्ष 50 निर्यातकों में तीसरा सबसे अच्छा रहा। हालांकि पत्र में यह भी कहा गया कि भारत कम कौशल के निर्यात के मामले में सबसे अलग है। भारत की कामगार आबादी को मद्देनजर रखते हुए देश का कम-कौशल आधारित निर्यात उससे सालाना 60 अरब डॉलर कम है, जितना यह होना चाहिए। इसमें दिखाया गया है कि भारत में कम कुशल कपड़ा एवं परिधान क्षेत्र में 140 अरब डॉलर या जीडीपी का पांच फीसदी उत्पादन नहीं हो पा रहा है। अगर भारत ऐसे क्षेत्रों पर ध्यान दे तो उससे उत्पादन और निर्यात को बढ़ाने में मदद मिलेगी। हालांकि भारत का उच्च-कुशल निर्यात में अच्छा प्रदर्शन है और वह आगे प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होना चाहिए।
हालांकि अब जिस तरह का नीतिगत ढांचा बन रहा है, उसमें व्यापार से आर्थिक गतिविधियों में बढ़ोतरी की संभावना नहीं है। ज्यादातर टिप्पणीकारों ने सरकार को आरसेप से नहीं हटने और आयात प्रतिबंध नहीं बढ़ाने की सलाह दी है। भारत ने पहले भी आयात के विकल्प तैयार करने की कोशिश की थी। उससे उद्यम अधिक प्रतिस्पर्धी नहीं बने और इस बार भी नतीजा बहुत अलग नहीं होने के आसार हैं। इस तरह सरकार के लिए व्यापार के मोर्चे पर हाल के फैसलों की उचित समीक्षा करना बेहतर होगा। कुछ भविष्यवक्ता अब भारत की मध्यम अवधि की वृद्धि पांच फीसदी से नीचे रहने का अनुमान जता रहे हैं। व्यापार के मोर्चे पर सुधारात्मक नीतिगत फैसले नहीं लिए जाने और मौजूदा वृहद आर्थिक चुनौतियों को मद्देनजर रखते हुए ऐसे पूर्वानुमान ज्यादा वास्तविक नजर आने लगेंगे।
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