वित्तीय स्थिरता की सुरक्षा | |
संपादकीय / 12 10, 2020 | | | | |
कम ब्याज दरों और उच्च नकदी के कारण कॉर्पोरेट बॉन्ड रिकॉर्ड तादाद में जारी हुए हैं और भारतीय कंपनियों ने चालू वर्ष में अब तक बॉन्ड बाजार से 8 लाख करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि जुटाई है। उच्च नकदी ने सरकारी प्रतिभूतियों का प्रसार सीमित किया है और बाजार की ब्याज दरें भी कम हुई हैं। जैसा कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने गत सप्ताह मौद्रिक नीति को लेकर अपने वक्तव्य में कहा भी, सरकारी बॉन्ड के बरअक्स एएए रेटिंग वाले तीन वर्ष के बॉन्ड प्रतिफल का प्रसार 8 अक्टूबर को 60 आधार अंक से घटकर 17 आधार अंक हो गया। कम रेटिंग वाले बॉन्ड के प्रतिफल में भी काफी गिरावट आई है। बहरहाल कम ब्याज दर और व्यवस्था में लंबे समय तक अत्यधिक नकदी की मौजूदगी से जोखिम उत्पन्न हो सकता है। आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की यह दलील सही है कि ब्याज दरों में इजाफे के साथ जारीकर्ताओं को समस्या होगी। रोलओवर भी मुश्किल होगा। सस्ते ऋण से मुद्रास्फीति में इजाफा हो सकता है। यदि केंद्रीय बैंक ऐसी चेतावनी को गंभीरता से ले तो अच्छा होगा। उसे वित्तीय तंत्र में जोखिम बढऩे से रोकना चाहिए।
बहरहाल, वित्तीय तंत्र में मौजूद आसन्न जोखिम को सीमित करने के बजाय देश का नीतिगत प्रतिष्ठान शायद अल्पावधि की वृद्धि को गति देने के लिए और अधिक जोखिम लेने की तैयारी कर रहा है। जानकारी है कि सरकार शिथिल मुद्रास्फीति लक्ष्य तय करने की योजना बना रही है ताकि केंद्रीय बैंक वृद्धि पर ध्यान केंद्रित कर सके। यह बात मुद्रास्फीति के लक्ष्य की समीक्षा से संबंधित है जिसे अगले वर्ष होना है। फिलहाल आरबीआई ने 4 फीसदी का मुद्रास्फीति लक्ष्य तय किया है और इसके लिए दो फीसदी इधर या उधर का दायरा तय किया गया है। यह दायरा काफी व्यापक है और लक्ष्य अथवा विस्तारित सीमा को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए। ऐसा करने से और अधिक नकदी तैयार हो सकती है जिससे वित्तीय स्थिरता को जोखिम उत्पन्न होगा। इससे वास्तविक ब्याज दरें गहरे तक ऋणात्मक हो जाएंगी और वित्तीय बचत को प्रभावित करेंगी। इसका असर निवेश और वृद्धि पर पड़ेगा।
ऐसे समय में जबकि मुद्रास्फीति महीनों से तय लक्ष्य से ऊपर है, सीमा का विस्तार यही दर्शाएगा कि रिजर्व बैंक कीमतों को स्थिर बनाए रखने में अक्षम है। आरबीआई हाल के महीनों में मुद्रास्फीति को कम करके आंकता रहा है और जिंस कीमतों में तेजी यही संकेत देती है कि इसमें जल्दी कमी नहीं आने वाली। व्यापक स्तर पर देखें तो मौजूदा लक्ष्य भारत के लिए कारगर साबित हुआ है और इसने अनुमानों को दिशा देने में मदद की है। मौजूदा तेजी को छोड़ दिया जाए तो मुद्रास्फीति सीमित दायरे में रही है। यदि उसमें अधिक उतार-चढ़ाव की अनुमति दी गई तो मुद्रास्फीतिक अनुमान और वास्तविक परिणाम प्रभावित हो सकते हैं। यह समझना अहम है कि नीतिगत विश्वसनीयता के निर्माण में समय लगता है और मुद्रास्फीति को लेकर लचीला ढांचा अपनाने के तत्काल बाद उच्च मुद्रास्फीति के समायोजन की इच्छा केंद्रीय बैंक की स्थिति को प्रभावित करेगा। इससे दीर्घावधि में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की वास्तविक लागत में भी इजाफा होगा।
यह भी सही है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति में नीतिगत समर्थन की आवश्यकता है। बहरहाल, नीति निर्माताओं को एक समग्र विचार अपनाना चाहिए और लंबी अवधि के लक्ष्यों से समझौता नहीं करना चाहिए। कम और स्थिर मुद्रास्फीति और समुचित अनुमान की मदद से ही उच्च स्थायी वृद्धि हासिल की जा सकती है। मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाला ढांचा अपनाना कठिनाई से अर्जित सुधार है और उसे शिथिल नहीं करना चाहिए। यह सामान्य समझ की बात है कि उच्च मुद्रास्फीति नीतिगत विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाएगी, वित्तीय स्थिरता को जोखिम उत्पन्न करेगी और लंबी अवधि में वृद्धि पर असर डालेगी।
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