एक कदम पीछे | संपादकीय / November 23, 2020 | | | | |
केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन ने केरल पुलिस अधिनियम में संशोधन के लिए लाए गए कठोर अध्यादेश पर पुनर्विचार के मामले में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) आलाकमान से सहमति जताकर शायद मामला फिलहाल टाल दिया है। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भी असामान्य तेजी दिखाते हुए शनिवार को इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके जरिए अधिनियम में नई धारा 118ए जोड़ी गई है और आपत्तिजनक, अपमानजनक या धमकी भरे संदेश भेजने वाले किसी भी व्यक्ति को 5 साल के कारावास या 10,000 रुपये के जुर्माने या दोनों ही सजा देने का प्रावधान किया गया है। विजयन का दावा है कि इस अध्यादेश से महिलाओं को ऑनलाइन प्रताडऩा से बचाने में मदद मिलेगी। लेकिन यह साफ नहीं है कि उन्होंने इस पर विधानसभा में चर्चा कराने के बजाय अध्यादेश लाने का रास्ता ही क्यों चुना? संभव है कि उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता यह जान रहे हों कि कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी जैसे तमाम राजनीतिक दल इस अध्यादेश का विरोध करेंगे और इसे अदालत में नाकामी का भी सामना करना पड़ सकता है।
वर्ष 2015 में उच्चतम न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की कुख्यात धारा 66ए को निरस्त कर दिया था जिसमें ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करने को अपराध करार देते हुए जेल भेजने का प्रावधान था। न्यायालय ने इस धारा को संवैधानिक तौर पर 'अधिकार से परे' बताते हुए कहा था कि यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उसी फैसले में केरल पुलिस अधिनियम की धारा 118डी को भी निरस्त कर दिया था जिसमें इसी तरह के अपराध के लिए तीन साल तक के कारावास का प्रावधान रखा गया था।
ऐसा लगता है कि केरल सरकार इस अधिनियम में 118ए के रूप में नई धारा जोड़कर उसी प्रावधान को फिर जिंदा करना चाहती है। इससे राज्य की पुलिस को स्वत:संज्ञान लेकर ऑनलाइन सामग्री की प्रकृति की व्याख्या करने की भी शक्ति मिलती है। विजयन ने कहा है कि 'निष्पक्ष' पत्रकारिता कर रहे लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं है। यह कथन इस लिहाज से कपटपूर्ण लगता है कि निष्पक्ष, अपमानजनक एवं 'नीचा दिखाने वाले' शब्दों की अपने हिसाब से व्याख्या की जा सकती है और ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं जो ऐसे फैसलों पर राजनीतिक सत्ताधारी की नजर दर्शाते हैं। ऐसी अटकलें हैं कि केरल सरकार ने राज्य में केंद्रीय एजेंसियों की जांच के बारे में सोशल मीडिया पर की गई टिप्पणियों को देखते हुए जल्दबाजी में यह कदम उठाया है।
भले ही यह विवाद फिलहाल शांत हो गया है लेकिन यह कठोर कदम देश भर में और तमाम राजनीतिक दलों में व्याप्त विचार एवं कार्य की स्वतंत्रता पर नकेल कसने की प्रवृत्ति को भी दर्शाता है। नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल लोगों की मनमर्जी से गिरफ्तारियां, भीमा कोरेगांव मामले में नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को अटपटे ढंग से कैद करने, मुख्यमंत्री का कार्टून प्रसारित करने पर कोलकाता के एक प्रोफेसर को हिरासत में लेने या मणिपुर से लेकर तमिलनाडु तक में राज्य सरकारों की आलोचना करने वाले पत्रकारों की गिरफ्तारी में यह प्रवृत्ति नजर आती है। सच यह है कि राज्य अगर चाहे तो उसके पास अपने नागरिकों की स्वतंत्रता सीमित करने के तमाम साधन हैं और इस अध्यादेश को वापस लेने से भी केरल की वाम लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार की मंशा नहीं बदली जा सकती है।
लेकिन भारत के सर्वाधिक शिक्षित राज्य में ऐसे प्रतिगामी कानून को लागू करने की कोशिश उस समय की जा रही है जब उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य 'लव जिहाद' पर कानून लाने की तैयारी कर रहे हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति को आपराधिक कृत्य बनाने वाले कानून लाने और आरोपियों को जेल भेजने की प्रवृत्ति अच्छा शासन नहीं है। केरल उत्तर प्रदेश की ही तरह दोषी है लेकिन यह विवाद सभी राजनीतिक दलों को तानाशाही की तरफ उनके शुरुआती झुकाव के बारे में मंथन करने का एक मौका भी है।
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