बिहार विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी एवं रोजगार केंद्रीय मुद्दा बन चुका है। विपक्षी दल अपने चुनाव अभियानों में ऊंची बेरोजगारी दर का इस्तेमाल मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए कर रहे हैं। विपक्ष के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने कहा कि बिहार में बेरोजगारी दर 46.6 फीसदी हो चुकी है। सीएमआईई ने कुछ समय पहले इस राज्य की बेरोजगारी के बारे में यह आंकड़ा पेश किया था जो सख्त लॉकडाउन के चरम काल यानी अप्रैल 2020 का है। बिहार लॉकडाउन के दौरान बेरोजगारी के संदर्भ में सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्यों में से एक था। जहां लॉकडाउन की सख्त पाबंदी के समय बिहार में औसत बेरोजगारी दर 46 फीसदी रही। देशव्यापी स्तर पर यह 24 फीसदी थी। बिहार में बेरोजगारी दर का इतना अधिक होना चौंकाता है क्योंकि यह राज्य एवं इसके निवासी भी गरीब हैं और बेरोजगार रहकर उनका काम नहीं चल सकता। सख्त लॉकडाउन ने बिहार के परिवारों को बुरी तरह प्रभावित किया। बेहद गरीब राज्य में इतनी ऊंची बेरोजगारी होना दोहरी मार की तरह है। उसके बाद से बिहार में बेरोजगारी दर घटकर 12 फीसदी पर आ गई है। लेकिन यह स्तर भी इस दौरान की अखिल भारतीय बेरोजगारी दर 6.7 फीसदी से काफी अधिक है। बिहार में बेरोजगारी लगातार बढ़ती रही है। खास बात है कि यह राष्ट्रीय बेरोजगारी दर से कहीं अधिक रफ्तार से बढ़ती रही है। लगता है कि वर्ष 2018 के बाद से हालात कुछ ज्यादा ही खराब रहे हैं। वर्ष 2016 और 2017 में बिहार में बेरोजगारी दर अखिल भारतीय औसत से कम थी। लेकिन वर्ष 2018 से यह लगातार राष्ट्रीय औसत से ऊपर रही है। दोनों के बीच फासला बढ़ता भी जा रहा है। ऐसे में इस चुनाव में बेरोजगारी के मुद्दे के इतना जोर पकडऩे की वजह आसानी से समझी जा सकती है। नौकरियों का वादा भी इतना ही असरदार है। तेजस्वी ने ऐलान किया कि अगर उनका गठबंधन सरकार बनाता है तो नए मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में वह 10 लाख सरकारी नौकरियां देने के प्रस्ताव पर मुहर लगाएंगे। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार के 4.50 लाख पद पहले से ही रिक्त पड़े हुए हैं जबकि बिहार को देश के अन्य राज्यों की बराबरी पर लाने के लिए 5.5 लाख अन्य कर्मचारियों की भी जरूरत पड़ेगी। इतनी बड़ी संख्या में नौकरियां देने के वादे के साथ ही इन नौकरियों की प्रकृति को भी स्पष्ट करना खासा अहम है। उनकी सभाओं में जुटने वाली भीड़ काफी बढ़ गई है जिसने मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान की चिंता बढ़ा दी है। बेरोजगारी दर एक अमूर्त अवधारणा है। इसका आशय श्रमशक्ति के उस प्रतिशत से है जो रोजगार की तलाश में होने के बावजूद रोजगार से वंचित है। लेकिन एक औसत मतदाता को अगर आप इन बारीकियों के बारे में समझाने लगे तो शायद वह मुंह फेरकर चल देगा। किसी को भी ऐसा नहीं लगता है कि बिहार में बेरोजगारी दर महज 12 फीसदी है। इसका कारण यह है कि अधिकतर लोग इसे समझते ही नहीं हैं। बेहद कम रोजगार दर का अहसास करना शायद अधिक आसान है। बिहार के तीन में से केवल एक वयस्क ही रोजगार में लगा है। यह रोजगार दर है जो अधिक वास्तविक होने के साथ काफी हद तक नजर भी आता है। सितंबर में रोजगार दर 33.8 फीसदी थी लेकिन उसके पहले के तीन महीनों में इसका औसत महज 30 फीसदी था। सितंबर में रोजगार दर का राष्ट्रीय औसत 38 फीसदी था जबकि उससे पहले के तीन महीनों में यह 37 फीसदी था। बेरोजगारी अपने आप में एक विपदा है। हमारे समाज में इसे बेरोजगार शख्स की नाकामी के तौर पर देखा जाता है न कि एक वृहद-आर्थिक समस्या माना जाता है। समाज में बेरोजगारी खासकर युवाओं की बेरोजगारी का मुद्दा उठाने वाले नेताओं को बेरोजगार शख्स को अपमानित करने वाला माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में स्थायी प्रकृति की सरकारी नौकरियां देने का वादा एक ठोस एवं लुभावना प्रस्ताव है। दस लाख सरकारी नौकरियों के इस वादे से लाखों लोगों को अपने पुराने सपने पूरा करने का मौका दिख रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री ने तेजस्वी के इस वादे की हंसी उड़ाते हुए कहा कि ऐसी नौकरियां देने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं। लेकिन मुख्यमंत्री के सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी ने इससे भी आगे बढ़कर 19 लाख रोजगार देने का वादा कर दिया है। हालांकि इनमें सरकारी नौकरियों की संख्या कम ही है। दरअसल सत्तासीन दल नौकरियां देने के मुद्दे पर अमूमन चुप्पी साधते रहे हैं। ऐसे में यह अचरज करना स्वाभाविक है कि जब सरकारी नौकरियों की इतनी भारी मांग है और इसी के साथ सरकारी सेवाओं की उपलब्धता भी काफी कम है तो सरकारें अधिक नौकरियां देने से परहेज क्यों करती रही हैं? अगर अधिक सरकारी नौकरियां दी जाएं तो जरूरी सरकारी सेवाएं बेहतर ढंग से मुहैया कराई जा सकती हैं। सरकारें स्वच्छ पेयजल, समुचित सफाई, प्राथमिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा, विश्वसनीय सुरक्षा और समय पर न्याय के अलावा समुचित भौतिक ढांचा जैसी बुनियादी सेवाएं पर्याप्त संख्या में देने में नाकाम रही हैं। हम सरकारों के दिवालियापन को इस हद तक मानने को क्यों राजी हो गए हैं कि इसे समाज के प्रति अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों से भी बचने की छूट दे दी जाती है? लॉकडाउन के पहले बिहार 2.6 करोड़ से अधिक रोजगार दे रहा था जिसमें गैर-कृषि रोजगार महज 20 लाख था। तेजस्वी अगर 10 लाख नई नौकरियां देते हैं तो उसका बहुत बड़ा असर पड़ेगा। लेकिन मतदाताओं को विधि-निर्माताओं से अपनी अपेक्षाएं बढ़ाने की जरूरत है। एकबार में 10 लाख या फिर 20 लाख नौकरियां देना ही काफी नहीं हैं। बिहार के मतदाताओं को यह मांग रखनी चाहिए कि रोजगार दर को बढ़ाकर पहले राष्ट्रीय औसत पर ले जाया जाए और फिर बेहतर प्रदर्शन वाले राज्यों के बराबर पहुंचाया जाए। (लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी हैं)
