दूरसंचार कंपनियों का समवेत आह्वान था कि विवाद का विषय बने ई एवं वी स्पेक्ट्रम बैंड की भी दूसरे स्पेक्ट्रम की तरह नीलामी की जाए। पिछले हफ्ते इन कंपनियों ने भारतीय सेल्युलर ऑपरेटर संघ (सीओएआई) के जरिये संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद को एक पत्र लिखकर इस मांग से अवगत भी कराया है। उन्होंने कहा है कि कोई अन्य तरीका अपनाना कानूनी तौर पर अरक्षणीय एवं सबको समान मौका मिलने की धारणा को नष्ट करने वाला होगा और इससे सरकार को भी भारी राजस्व क्षति होगी। लेकिन फेसबुक, गूगल और क्वालकॉम जैसी कंपनियों के मंच ब्रॉडबैंड इंडिया फोरम (बीआईएफ) ने भी इसका मुखर विरोध किया है। उनकी मांग है कि इस स्पेक्ट्रम को लाइसेंस के दायरे से बाहर कर देना चाहिए ताकि सार्वजनिक वाई-फाई हॉटस्पॉट लगाने की मंशा रखने वाले करोड़ों उद्यमियों की राह आसान हो सके। उनका कहना है कि दूरसंचार कंपनियों के पास स्पेक्ट्रम चले जाने से इस साल देश भर में 50 लाख से अधिक वाई-फाई हॉटस्पॉट लगाने और वर्ष 2023 तक इसे दोगुना कर देने का सरकार का सपना धराशायी हो जाएगा। फिलहाल देश भर में वाई-फाई हॉटस्पॉट की संख्या 3 लाख से थोड़ा ही अधिक है। डिजिटल इंडिया के सपने को पूरा करने के लिए सार्वजनिक हॉटस्पॉट की संख्या में भारी वृद्धि की जरूरत होगी। ई एवं वी-बैंड के स्पेक्ट्रम में तगड़ा बैंडविड्थ होने से वे भारी पैमाने पर डेटा भेज सकते हैं। लेकिन यह काम थोड़ी दूरी तक ही संभव है। ई-बैंड के मामले में 6 किलोमीटर और वी-बैंड के मामले में तो सिर्फ 200 मीटर दूरी तक ही यह काम कर सकता है। लाइसेंस-मुक्त कर दिया जाने पर वी-बैंड ऐसा स्पेक्ट्रम दे सकता है जिसमें अभी इस्तेमाल हो रहे वाई-फाई राउटर्स की तरह दूसरे बिना लाइसेंस वाले बैंड से कम व्यवधान हो। आखिर यह शोरशराबा क्यों मचा हुआ है? दूरसंचार कंपनियां इन स्पेक्ट्रम बैंड के पाने के लिए इतनी लालायित क्यों हैं? हमें ध्यान रखना होगा कि कुछ साल पहले यह मामला सामने आने पर अकेले नई कंपनी रिलायंस जियो ने ही इनकी नीलामी की मांग रखी थी। पहले से सक्रिय ऑपरेटर चाहते थे कि ई एवं वी-बैंड को उनके पास पहले से मौजूद स्पेक्ट्रम के साथ संबद्ध किया जाए। स्पष्ट है कि पुराने ऑपरेटर इन दोनों स्पेक्ट्रम बैंड की नीलामी के पक्ष में नहीं थे। लेकिन डेटा खपत की विस्फोटक वृद्धि और ब्रॉडबैंड इंटरनेट की आपूर्ति बढ़ाने की फौरी जरूरत ने पूरी तस्वीर बदल दी है। ई एवं वी-बैंड अपने पास होने से ऑपरेटर खाली जगह की भरपाई कर सकेंगे। मोबाइल टॉवरों के बीच अंतिम दौर का संपर्क स्थापित करने (तकनीकी शब्दावली में बैकहॉल) में इन बैंड का इस्तेमाल हो सकता है। फिलहाल करीब 30 फीसदी दूरसंचार टावर ही फाइबर के जरिये जुड़े हुए हैं और अनुमान है कि इस आंकड़े को दोगुना स्तर पर ले जाने के लिए दूरसंचार कंपनियों को करीब 3.5 अरब डॉलर का निवेश करना पड़ेगा। इसमें फाइबर बिछाने की मंजूरी हासिल करने से जुड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया को नहीं जोड़ा गया है। इस संदर्भ में ई एवं वी-बैंड स्पेक्ट्रम इस फासले को पाटने का एक सस्ता एवं सुगम विकल्प हो सकता है। लेकिन एक विश्वसनीय बैकहॉल सुनिश्चित करने के लिए दूरसंचार कंपनियों को ऐसे स्पेक्ट्रम की जरूरत होगी जो खास तौर पर उन्हीं के इस्तेमाल में हो। खासकर 5जी नेटवर्क पर अंजाम दी जाने वाली रिमोट रोबोटिक सर्जरी जैसी गतिविधियों के लिए बेहद कम ट्रांसमिशन विलंब वाला स्पेक्ट्रम जरूरी होगा। उनका कहना है कि ऐसे काम बिना लाइसेंस वाले स्पेक्ट्रम के साथ नहीं पूरे किए जा सकते हैं। लेकिन मुश्किल यह रही है कि दूरसंचार नियामक ने दूरसंचार कंपनियों के दावे पर हामी नहीं भरी है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने बैकहॉल स्पेक्ट्रम के लिए नीलामी के बजाय वर्ष 2014 में तय शुल्क वाली व्यवस्था लागू करने का सुझाव दिया था। वह अपने इस रुख पर अब भी कायम है। ट्राई के पूर्व अध्यक्ष आर एस शर्मा ने खुलेआम दूरसंचार कंपनियों की मांग को खारिज करते हुए कहा था कि वाई-फाई हॉटस्पॉट से उनके डेटा वायरलेस राजस्व में कमी आने की धारणा अल्पकालिक सोच का नतीजा है। इसके बावजूद दूरसंचार मंत्रालय इस मसले पर अभी तक शायद अपना मन नहीं बना पाया है। बीआईएफ के अध्यक्ष टी वी रामचंद्रन कहते हैं, 'अगर इन स्पेक्ट्रम बैंड को लाइसेंस-मुक्त नहीं किया जाता है तो हम वाई-फाई हॉटस्पॉट एवं तीव्र गति वाले ब्रॉडबैंड के विस्तार के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे। आखिर अमेरिका समेत 70 देशों ने इन स्पेक्ट्रम को लाइसेंस से बाहर रखा है और हमें भी इस वैश्विक प्रवृत्ति का पालन करना चाहिए।' बीआईएफ की अगुआई वाली टेक कंपनियां ई एवं वी-बैंड पर दूरसंचार कंपनियों की दलीलों को नकारते हुए कहती हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के 2012 के फैसले के मुताबिक सभी स्पेक्ट्रम की नीलामी किए जाने की जरूरत है। बीआईएफ के एक अधिकारी ने कहा कि उच्चतम न्यायालय का यह आदेश केवल 'एक्सेस स्पेक्ट्रम' यानी उपभोक्ता को मोबाइल संपर्क मुहैया कराने के लिए जरूरी स्पेक्ट्रम पर ही लागू होता है। लेकिन इस व्यवस्था के तहत बैकहॉल या विभिन्न स्पेक्ट्रम बैंड में माइक्रोवेव का भी इस्तेमाल किया जा रहा था। अगर सभी स्पेक्ट्रम की नीलामी ही की जानी है तो फिर इस बैकहॉल स्पेक्ट्रम को भी वापस लेकर उसकी नए सिरे से नीलामी की जानी चाहिए। बीआईएफ के मुताबिक अपने सीमित कवरेज के साथ वी-बैंड स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल मौजूदा 2.4 गीगाहट्र्ज और 5.8 गीगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम के संवर्द्धन के लिए केवल इंडोर ही हो सकता है। लैपटॉप, टीवी या गूगल होम स्मार्ट वॉयस को कनेक्ट करने के लिए वाई-फाई राउटर्स इसी स्पेक्ट्रम पर काम करते हैं। इसके अलावा उपभोक्ताओं को इंटरनेट की बेहतर स्पीड एवं कनेक्टिविटी देने में भी यही बैंड इस्तेमाल होते हैं। बीआईएफ के एक पदाधिकारी कहते हैं, 'वी बैंड स्पेक्ट्रम का दूरसंचार कंपनियों के लिए बैकहॉल में कोई उपयोग नहीं है। उसके लिए उन्हें ई बैंड की जरूरत होगी। लेकिन वे अपने पास हरेक स्पेक्ट्रम चाहती हैं जिससे उपभोक्ता बेहतर सेवाओं से वंचित रहेंगे।' ब्रॉडबैंड सेवा प्रदाताओं का अनुमान है कि इस स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को 4,000 करोड़ रुपये से अधिक नहीं मिलेंगे लेकिन वाई-फाई एवं हाई स्पीड इंटरनेट के प्रसार के आर्थिक प्रभावों की तुलना में यह बहुत थोड़ा है। राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक, इन बैंडो के इस्तेमाल से औसत इंटरनेट स्पीड में 50 फीसदी की वृद्धि होने पर सकल घरेलू उत्पाद में 0.15 फीसदी बढ़ सकता है। हालांकि एक दूरसंचार कंपनी के वरिष्ठ अधिकार की राय इससे अलग है। वह कहते हैं, 'आज के समय में ई एवं वी बैंड की कम कीमत हो सकती है लेकिन तकनीकी विकास के साथ इस स्पेक्ट्रम पर मोटा प्रीमियम मिल सकता है।
