भारत का वाहन बाजार वैश्विक वाहन कंपनियों के लिए किसी पहेली से कम नहीं रहा है। पिछले तीन सालों में कम से कम तीन वैश्विक ब्रांडों को यहां से अपना कारोबार समेटने या निकलने के लिए मजबूर होना पड़ा है जिनमें हार्र्ली-डेविडसन का उदाहरण सबसे ताजा है। यह वही बाजार है जिसने एक दशक पहले तक अपनी आबादी के लिए संभावना गिनाते हुए कम कार होने और दोपहिया वाहनों की पैठ के साथ उभरती अर्थव्यवस्था का वादा किया था। पिछले दो दशकों में कंपनियों को जिन बुनियादी बातों ने आकर्षित किया था वे बरकरार हैं लेकिन अर्थव्यवस्था की स्थिति ने इन बड़ी योजनाओं को ठप कर दिया है। सिर्फ इतना ही नहीं नीतियों में भी स्थायित्व नहीं होने और कर संरचना के अव्यावहारिक होने और छोटी अवधि में ही कई तरह के नियमन के लागू करने से भी काम में व्यवधान आया। पिछले दिनों टोयोटा किर्लोस्कर मोटर के एक शीर्ष अधिकारी ने उच्च कराधान संरचना के मुद्दे को उठाया और दर में कटौती का आग्रह किया। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) व्यवस्था के तहत भारत में वाहनों पर कर दुनिया में सबसे अधिक है और और इस पर 50 फ ीसदी तक शुल्क लगता है। इसमें 28 फ ीसदी जीएसटी और एक उपकर शामिल है जो ईंधन के प्रकार, इंजन आकार और वाहनों की लंबाई के आधार पर 3.21 फ ीसदी तक होता है। एक वाहन कंपनी के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, 'भारत में कारोबार करना बेहद मुश्किल है। इसके लिए उच्च कराधान संरचना और लगातार नीतिगत बदलाव जिम्मेदार हैं। छोटी कारों और बड़ी गाडिय़ों के कराधान में अंतर से कारोबार वृद्धि बाधित रही है।' वित्त वर्ष 2020 में कार की बिक्री घटकर 18 फीसदी तक हो गई थी जो एक दशक में सबसे कम है। दुनिया के सबसे बड़े दोपहिया बाजार में भी मोटरसाइकिल और स्कूटर की बिक्री 18 फीसदी तक कम हुई है और चार साल में बिक्री सबसे कम हुई है। कोविड19 महामारी के संकट से उन सभी लोगों के हालात बदतर हुए जो हाशिये पर थे। एक साल पहले की अवधि के मुकाबले अब तक यात्री वाहनों की बिक्री आधी हो गई है। हार्ली डेविडसन या जनरल मोटर्स के लिए सामान्य बात क्या है जिसकी वजह से इन्होंने भारत छोडऩे का फैसला किया। आखिर महिंद्रा ऐंड महिंद्रा को बहुलांश नियंत्रक हिस्सेदारी देकर भारत में अपने दांव को सुरक्षित रखने वाली फोर्ड टोयोटो किर्लोस्कर के साथ लामबंद क्यों दिखती है जिसने नीति निर्माताओं के साथ खुद को गलत पक्ष की तरफ पाया जब इसके पूर्णकालिक निदेशक और उपाध्यक्ष शेखर विश्वनाथन ने देश के कर ढांचे को अव्यावहारिक कहा। इसकी एक सामान्य वजह यह है कि इन वाहन निर्माताओं में से किसी ने भी निवेश को लेकर ज्यादा मेहनत नहीं की क्योंकि परिसंपत्ति निर्माण ने मांग को पीछे छोड़ दिया। भारत में धीमी मांग और कंपनियों के वैश्विक मुख्यालय में बदली हुई प्राथमिकताओं में इससे कोई मदद नहीं मिली। हार्ले और जीएम का देश से बाहर निकलना और फोर्ड द्वारा कारोबार समेटने की कवायद इन कंपनियों के वैश्विक बदलाव वाली रणनीति का हिस्सा था। अपनी ओर से टोयोटा किर्लोस्कर ने देश में आगे के विस्तार को स्थगित कर दिया है जिसने अपनी क्षमता का केवल एक.तिहाई ही इस्तेमाल किया है। हार्ली का ही मामला देखें। इस प्रतिष्ठित मोटरसाइकिल ब्रांड ने 2011 में भारत में अपनी सवारी शुरू की और हरियाणा के बावल में एक असेंबली संयंत्र तैयार किया। बाद में इसने स्ट्रीट 750 और 500 मॉडल का निर्माण करना शुरू कर दिया जो इसके मॉडल में सबसे सस्ते मॉडल हैं। विचार यह था कि इसका सालाना 10,000 तक कारोबार किया जाए और घरेलू बाजार के साथ-साथ निर्यात बाजार की मांग भी पूरी की जाए। लेकिन मांग पूरी नहीं हुई। इसके विपरीत इसने बड़ी सावधानी से तैयार की गई छवि पर खराब गुणवत्ता से पानी फेर दिया और हालात ऐसे बन गए कि तैयार माल को वापस मंगाना पड़ा। एक वाहन विशेषज्ञ ने बताया कि खरीदारों के बीच हार्ली के सस्ते मॉडल का रंग नहीं जम पाया और इसकी ब्रांड हिस्सेदारी भी कम हो गई। भारत में हार्ली के अंत की यह शुरुआत थी। एक सलाहकार कंपनी जेएटीओ डायनेमिक्स के प्रबंध निदेशक और अध्यक्ष रवि भाटिया ने कहा कि ज्यादातर कंपनियों ने वृद्धि और क्रय शक्ति क्षमता के पूर्वानुमान को ध्यान में रखते हुए अपनी क्षमता बनाई थी। इनमें से ज्यादातर फैसले तब लिए गए जब पूर्वानुमान बहुत अच्छा लग रहा था। पिछले कुछ सालों में खरीदारों की क्रय शक्ति प्रभावित हुई है और यह तैयार क्षमता के अनुरूप नहीं है। इससे कंपनियों को कठोर कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा है। भारत के शीर्ष दो कार निर्माताओं मारुति सुजूकी इंडिया और हुंडई मोटर इंडिया की बाजार में 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी है। अन्य कंपनियों में सफलता के प्रारंभिक संकेत केवल किया मोटर्स ने दिखाना शुरू किया है। सिर्फ एक मॉडल सेल्टोस के जरिये हुंडई की सहयोगी कंपनी ने भारत में अपने पहले साल में ही 5 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी बना ली। अब इसकी करीब 8 फीसदी हिस्सेदारी है और हाल ही में इसने एक और गाड़ी सॉनेट लॉन्च की है और उससे पहले महंगी एमपीवीए कार्वियल लॉन्च की गई। लेकिन इस तरह की मिसाल बेहद कम है। कंपनियों पर ऊंची लागत संरचना की मार पड़ी है जिसमें अप्रत्यक्ष कर और ज्यादा मालिकाना लागत शामिल है। जहां जीएम और फोर्ड को सख्त कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा वहीं निसान, रेनो, होंडा कार्स और फ ोक्सवैगन की स्थानीय इकाई 5 फ ीसदी बाजार हिस्सेदारी पर कब्जा करने में नाकाम रहे हैं। पीडब्ल्यूसी में ऑटोमोटिव के पार्टनर और लीडर कावन मुखत्यार ने कहाए 'कराधान ज्यादा होने के अलावा भी काफी कुछ है। ज्यादा करों के बावजूद वृद्धि की संभावनाएं बेहद सकारात्मक दिखती है। गाड़ी रखना भारत में अब भी एक लक्जरी है विशेष रूप से कार और इसी वजह से इसका कर अधिक रखा गया है। लेकिन यह वृद्धि के लिए अड़चन नहीं हो सकती है। बेशक अगर कर कम है तो इससे मदद मिलेगी।' मुख्तयार का कहना है कि इसका ताल्लुक कीमत-मूल्य समीकरण और कंपनियों द्वारा पेशकश किए जाने वाले मॉडल से भी है।
