राज्यपाल कोश्यारी के एक खत से महाराष्ट्र की राजनीति में हंगामा | सियासी हलचल | | आदिति फडणीस / October 16, 2020 | | | | |
भारतीय राजनीति में शरद पवार पिछले छह दशकों से भी अधिक समय से सक्रिय रहे हैं। इस दौरान वह अपने राजनीतिक सफर में कई राजनीतिक घटनाक्रम और सियासी उठापटक के गवाह रहे हैं। ऐसे में उन्हें राजनीति में घटने वाली शायद ही कोई बात चौंकाती होगी। हालांकि हाल में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी द्वारा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखे पत्र ने उन्हें भी झटका दे दिया।
मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में कोश्यारी ने पूछा कि कोविड-19 प्रभावित महाराष्ट्र में उन्हें मंदिर खोलने में इतनी देरी क्यों हो रही है। पत्र में व्यंग्य का बाण था और इसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भी एक मुद्दा थमा दिया। भाजपा को मंदिर खोलने में हुई देरी की आड़ में मुख्यमंत्री की प्रशासनिक अक्षमता पर सवाल खड़ा करने का मौका मिल गया। महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर राजभवन सबसे आगे निकल गया था।
कोश्यारी सितंबर 2019 में महाराष्ट्र के राजभवन आए थे और तब से उनकी भूमिका एक तटस्थ पर्यवेक्षक से कहीं अधिक रही है। वह उत्तराखंड की राजधानी से कटना नहीं चाहते थे, लेकिन उम्र उनके पक्ष में नहीं थी, जो पहले ही 75 का आंकड़ा छू चुकी थी। उम्र का हवाला देते हुए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें उत्तराखंड की राजनीति से दूर कर दिया, जहां उन्होंने राजनीतिक उठापटक की एक लंबी कहानी छोड़ रखी थी। कोश्यारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का हिस्सा होने के समय से ही भाजपा की राजनीति में सक्रिय रहे हैं। खासकर कुमाऊं से छात्र नेता चुने जाने के बाद वह राजनीति में और सक्रिय हो गए और 1975 के आंदोलन में उन्हें जेल भी जाना पड़ा। वह अल्मोड़ा और फतेहगढ़ जेल से 1977 में बाहर आए, हालांकि पहली सफ लता उन्हें 1997 में हाथ लगी जब वह 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा परिषद के सदस्य बने। वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद कोश्यारी को लगा था कि उत्तराखंड के नेतृत्व पर उनका अधिकार है, लेकिन उन्हें और उनके कार्यकर्ताओं को उस वक्त झटका लगा जब हरियाणा में जन्मे नित्यानंद स्वामी ने उत्तरांचली होने का दावा पेश कर दिया। स्वामी ने इसलिए यह दावा किया था क्योंकि वह उत्तराखंड में पले-बढ़े थे। आखिरकार स्वामी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके तत्काल बाद तथाकथित 'बाहर वाला' के खिलाफ अभियान शुरू हो गया। यह अलग बात थी कि स्वामी सरकार में कोश्यारी ने मंत्री पद (ऊर्जा, सिंचाई और कानून) स्वीकार कर लिया। सरकार का हिस्सा रहते हुए भी स्वामी को बाहर करने के लिए वह 'अभियान' चलाते रहे। आखिर एक वर्ष बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को झुकना पड़ा और स्वामी की जगह कमान कोश्यारी को दे दी गई।
हालांकि कई कारणों से भाजपा के लिए यह कदम फायदेमंद नहीं रहा। एक वर्ष बाद राज्य में पार्टी चुनाव हार गई। कोश्यारी विपक्ष के नेता बन गए और राज्य भाजपा की कमान भी उन्हें सौंप दी गई। वर्ष 2007 में जब एक बार फिर चुनाव आया तो भाजपा को आसानी से सफलता मिल गई, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी भुवन चंद्र खंडूड़ी को मिल गई। इसके बाद राज्य में सियासी जंग फिर तेज हो गई और खंडूड़ी को भी बाहर करने की मुहिम शुरू हो गई।
इस बार राज्य में होने वाली गुटबंदी से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ऊब चुका था और उसने कोश्यारी को कपकोट विधानसभा सीट से इस्तीफा देकर राज्यसभा का रास्ता चुनने के लिए कह दिया। राज्य में भाजपा का संकट इससे दूर होने के बजाय बढ़ गया क्योंकि वहां पार्टी को बहुत मामूली बहुमत था। हालांकि राजनाथ सिंह ने लकीर साफ खींच दी। सिंह के जेहन में अब भी यह बात थी कि एक मजबूत आधार होने के बाद कोश्यारी 2002 में पार्टी को जीत नहीं दिला सके।
संसद में आने के बाद भी कोश्यारी ने उत्तराखंड की राजनीति से अपना वास्ता कम नहीं किया। उधर खंडूड़ी के लिए भी राह आसान नहीं थी। 2009 में राज्य में सभी लोकसभा सीटों पर हार का सामना करने के बाद खंडूड़ी ने इस्तीफा दे दिया और स्वामी के राजनीतिक शिष्य रमेश पोखरियाल 'निशंक' को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि अपने शिष्य को हमेशा अपना अनुसरण करने वाला समझना भी ठीक नहीं है। राज्य की राजनीति ने एक नया मोड़ आया जब खंडूड़ी और कोश्यारी ने हाथ मिला लिया और दोनों मिलकर निशंक को हटाने की मांग करने लगे। 2012 के विधानसभा चुनावों से कुछ महीने पहले खंडूड़ी ने इस्तीफा दे दिया, जबकि स्वामी दिल्ली में ही रहे।
हालांकि लड़ाई खत्म नहीं हुई थी। वर्ष 2014 में कोश्यारी ने लोकसभा चुनाव लड़ा और नैनीताल सीट से जीत हासिल की। जब 2017 में विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा ने 70 सीटों वाली राज्य विधानसभा में 57 सीटें जीतीं। किस्मत ने एक बार फिर कोश्यारी का साथ नहीं दिया और त्रिवेंद्र सिंह रावत को अमित शाह की हिमायत के बाद राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया। रावत कभी कोश्यारी के साथ रहकर राजनीति के दांव-पेच सीखा करते थे। इससे नाराज होकर कोश्यारी ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि वह 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने उनकी धमकी को गंभीरता से लिया और उन्हें महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। कोश्यारी की राजनीतिक पारी से यह बात साफ हो जाती है कि राजनीतिज्ञ के हाथ से राज्य की कमान छीनी जा सकती है, लेकिन राज्य चलाने की उनकी इच्छा से उन्हें कभी दूर नहीं किया जा सकता। महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को अजित पवार की मदद से 80 घंटे के लिए मुख्यमंत्री बनाने में कोश्यारी की भूमिका तकनीकी तौर पर सही हो सकती है, लेकिन नैतिकता के तकाजे पर यह कहीं खरा नहीं उतरता था। हालांकि इससे कोश्यारी के व्यक्तित्व के एक पहलू की झलक भी मिलती है, जिसे उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार को जरूर याद रखनी चाहिए। वह बात यह है कि कोश्यारी एक बार कोई चीज ठान लेते हैं तो फिर वह पीछे नहीं हटते।
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