केंद्र सरकार पहले जताई गई साझा सहमति के अनुसार राज्यों को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) राजस्व में हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति नहीं कर पा रही और इस बात ने राज्य सरकारों के साथ आपसी विश्वास में कमी को लेकर नए प्रश्न पैदा कर दिए हैं। जब भी राष्ट्रीय दल केंद्र में अपने दम पर सरकार बनाते हैं तो विश्वास में कमी की खाई चौड़ी होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली से शासन चलाने को ही राजनीतिक लक्ष्य मानकर चलते हैं। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों में भी ऐसा ही हुआ। गठबंधन सरकारों के दौर में हालात कुछ बेहतर रहते हैं। चूंकि सन 1989 के बाद से देश में लगातार गठबंधन सरकारों का दौर रहा इसलिए केंद्र और राज्यों के बीच बातचीत में भरोसा बहाली के उपाय भी हुए ताकि केंद्रीय स्तर पर गठबंधन विफल न हो। बहरहाल, 2014 के बाद एक बार फिर केंद्र में एक दल को बहुमत मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास अतीत में मुख्यमंत्री के रूप में काम करने का अनुभव भी था लेकिन इसके बावजूद भरोसे में कमी एक बार फिर बढऩे लगी। सन 1980 के दशक की तरह एक बार फिर ऐसे बदलाव सामने आने लगे जो शक्ति को दिल्ली में केंद्रित करना चाहते थे जहां ऐसे लोग शासन कर रहे थे जिन्हें जमीनी राजनीतिक बुनियाद की जानकारी नहीं थी, राज्यों के साथ कोई प्रत्यक्ष संपर्क नहीं था। इस व्यवस्था में राज्य एक प्रकार से केंद्र और राज्यों की अन्य शाखाओं के अधीन थे। मैंने ऐसी पांच बड़ी घटनाओं को चिह्नित किया है जिन्होंने इसमें योगदान किया। 1. चौदहवें वित्त आयोग ने केंद्र द्वारा संग्रहीत कर में राज्यों की हिस्सेदारी को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दिया लेकिन उसने किसी तरह के अनुदान की घोषणा नहीं की। परंतु घोषणा के पहले वर्ष में राज्यों की हिस्सेदारी केवल 34.7 प्रतिशत रही और अंतिम वर्ष यानी वित्त वर्ष 2020 में यह घटकर 30.3 फीसदी रह गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि केंद्र सरकार ने तमाम करों पर ऐसे उपकर और अधिभार लगा दिए जो राज्यों के साथ साझा नहीं किए जाते। पिछली सरकारों ने भी ऐसा किया था लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं। इसके अलावा अनुदान नहीं होने के कारण यह प्रभाव और भी भीषण हो गया। 2. जब योजना आयोग को समाप्त किया गया और नीति आयोग का गठन हुआ तब योजना निर्माण और वित्तीय प्रक्रिया की योजना बनाने में शामिल राजनीतिक तत्त्व का ह्रास हो गया। केंद्र और राज्यों के बीच तमाम रिश्ते पूरी तरह प्रशासनिक हो गए। नीति आयोग ने आकांक्षापूर्ण जिले, केंद्र सरकार की पहलों को बढ़ावा देने और विभिन्न क्षेत्रों में राज्यों को अपनी तरह से रैंकिंग देने जैसे काम आरंभ कर दिए। केंद्र प्रायोजित योजनाओं में संबंधित विभाग सीधे राज्य प्रशासन से संवाद करते हैं और इसमें राजनीतिक वर्ग के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। किसी भी राज्य की सरकार की फिर चाहे वहां किसी भी दल की सरकार हो, का नीति आयोग में किसी तरह का स्वामित्व अधिकार नहीं होता। नीति आयोग पूरी तरह केंद्र सरकार का संस्थान है। इस प्रकार राजनीतिक बातचीत की एक अन्य संस्थागत प्रणाली का अंत हुआ। 3. केंद्र सरकार ने 15वें वित्त आयोग को जो कार्य क्षेत्र दिया उसके चलते राज्यों को दी जाने वाली हिस्सेदारी को लेकर अनावश्यक आकलन की संभावनाएं पैदा हुईं। इसमें 'भारत सरकार की प्रमुख योजनाओं की उपलब्धि और क्रियान्वयन', 'डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना', 'श्रम आधारित वृद्धि को बढ़ावा देना' और सबसे प्रबल ढंग से 'लोकलुभावन उपायों पर होने वाले व्यय पर नियंत्रण करना या न करना' आदि शामिल हैं। ये अंतर सरकारी राजकोषीय विचार के पहलू नहीं बल्कि एक निरपेक्ष संवैधानिक संस्थान पर थोपे गए निर्णय हैं जो बताते हैं कि राज्यों को किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। 4. मार्च में लागू देशव्यापी लॉकडाउन को मूर्त रूप देने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू किया गया। इस अधिनियम ने केंद्र सरकार को असीमित अधिकार दिए। गृह मंत्रालय ने अधिनियम का इस्तेमाल राज्यों को दिशानिर्देश तथा निर्देश जारी करने के लिए किए। विभिन्न मंत्रालयों ने राज्यों की कमियों का पता लगाने के लिए तथा निगरानी और सुधार के लिए टीम बनाकर राज्यों में भेजीं। आम जनता से जुड़े मशविरों के मामले में भी केंद्र ज्यादातर राज्यों को उपदेश देता नजर आया कि उन्हें क्या और कैसे करना है। इस दौरान वित्तीय सहायता देने और राज्य स्तर पर क्षमता मजबूत करने के मामले में केंद्रीय प्रशासनिक मदद जैसी कोई सहायता नजर नहीं आई। इससे आपसी विश्वास की कमी और बढ़ी। 5.जीएसटी की क्षतिपूर्ति से जुड़े विवाद और हाल में बिना मशविरे की पहल किए कृषि सुधार विधेयक (जो अब कानून बन चुके हैं) पेश करने जैसी घटनाएं सहकारी संघवाद के ताबूत में मानो ताजा कील हैं। उपरोक्त में से हर मामले में ऐसे विकल्प मौजूद थे जिनका इस्तेमाल भरोसे की कमी पाटने का काम कर सकता था। केंद्र ने उपकरों का इस्तेमाल किया जो जाहिर तौर पर उसकी कमजोर और लगातार गिरती राजकोषीय स्थिति को संभालने का प्रयास था। परंतु इसकी कीमत राज्यों को चुकानी थी। नीति आयोग के गठन के समय भी राज्यों से कुछ अधिक मशविरा किया जा सकता था और यदि सहकारी संघवाद को गंभीरता से लेना था तो उसकी पहलों में राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल लाभदायक होता। 15वें वित्त आयोग के कार्य क्षेत्र में कमजोर राजनीतिक जानकारी और केंद्र के अफसरशाही दंभ से बचा जा सकता था। यदि राज्यों से मशविरा किया जाता और संवेदनशीलता बरती जाती तो लॉकडाउन का बेहतर प्रबंधन किया जा सकता था। कई अन्य क्षेत्रों में ऐसा किया जा चुका है। जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर के मामले में जैसा कि मैंने कहा भी, कई ऐसे विकल्प मौजूद थे जिनके जरिये राज्यों की उधारी देनदारी में इजाफा नहीं होता लेकिन इनकी जानबूझकर अनदेखी कर दी गई। यह स्पष्ट है कि केंद्र और राज्य के बीच आपसी विश्वास की इस कमी की जड़ें इसलिए गहरी हुई हैं क्योंकि राजनीतिक प्राधिकार सहकारी संघवाद पर बल नहीं दे रहा है क्योंकि उसकी प्राथमिकता केंद्रीय स्तर पर शक्ति संचय करना है। परंतु भारत राज्यों का संघ है और इसकी विविधता तथा बहुलता का प्रबंधन आर्थिक मोर्चे पर ऊपर से निर्णय थोपकर नहीं किया जा सकता है। मैं केवल यही आशा कर सकता हूं कि 15वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं से इस मोर्चे पर हालात और न बिगड़ें। (लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में विचार निजी हैं)
