यह लेख समाचार टीवी चैनलों के बीच छिड़ी बदसूरत लड़ाई पर है। इसमें एक तरफ अर्णव गोस्वामी और उनका रिपब्लिक टीवी है तो दूसरी तरफ बाकी चैनल हैं। यह एक रोचक विरोधाभास है कि इतने सारे चैनल और भारी-भरकम अहम एवं विशाल समर्थकों वाले उनके महारथी ऐंकर किसी भी मसले पर साझा हित कायम कर पाएंगे। हम जानते हैं कि अर्णव गोस्वामी बांटने का काम करते हैं लेकिन वह साझा खतरा होने पर धुर विरोधियों को एकजुट भी कर सकते हैं। बहरहाल मैं आपको यह नहीं बताने जा रहा कि मेरी नजर में कौन सही है या कौन झूठबोल रहा है? ऐसे ध्रुवीकृत वक्त में जब आप अपने पसंदीदा नेता या व्यक्ति की कही हुई हरेक बात पर यकीन करने लगे हैं, कुछ भी कहना समय की बर्बादी है। डॉनल्ड ट्रंप से लेकर नरेंद्र मोदी और अर्णव गोस्वामी से लेकर रवीश कुमार तक की परिघटना का दबदबा है। इसका एक और कारण है: स्कूली बच्चों के अंदाज में कहें तो 'मेरे बाप का क्या जाता है'? ब्रह्मांड के इन काल्पनिक दिग्गजों को ही इससे निपटने दें। लेकिन बदकिस्मती से हम इतने उदासीन नहीं रह सकते हैं। इसे साफ करने के लिए मैं एक कहानी सुनाता हूं। हॉलीवुड में ऐतिहासिक युद्धों पर फिल्में बनाने वाले दौर में एक फिल्म निर्माता ने असली जंग का दृश्य दिखाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में एक्सट्रा कलाकार इक_ा कर लिए थे। उसके फाइनैंसर ने इसे अद्भुत काम बताने के साथ ही कहा कि उन कलाकारों को वह भुगतान नहीं कर पाएगा। इस पर फिल्म निर्माता ने कहा कि फिल्म के अंतिम दृश्य में उन्हें असली हथियार दे दिए जाएंगे ताकि सब एक-दूसरे को खत्म कर दें। इस तरह जंग का दृश्य काफी वास्तविक लगेगा और भुगतान लेने के लिए कोई जीवित भी नहीं बचेगा।क्या आपको इस कहानी और हमारी समाचार मीडिया की मौजूदा स्थिति में कोई साम्य नजर आता है? हम सब यानी सबसे शक्तिशाली, लोकप्रिय, सर्वश्रेष्ठ एवं बदतरीन मीडिया प्रतिष्ठान इस समय असली हथियारों के साथ जंग के मैदान में खड़े हैं। एक-दूसरे को भला-बुरा कहने, दोषी ठहराने और बदनाम करने का खेल चालू है। यह स्थिति उस समय से जारी है जब हमने यह तरकीब सीख ली थी कि अगर प्रतिद्वंद्वी ने किसी बड़ी खबर को पहले चला दिया तो हम उस खबर को ही फर्जी, मनगढ़ंत एवं अतिशयोक्ति से भरपूर बताना शुरू कर दें। या फिर उस खबर की एक तरह से चोरी ही कर लो और उस पर 'एक्सक्लूसिव' का ठप्पा लगा दो। ऐसा लगता है कि किसी दूसरे संस्थान की ब्रेक की हुई खबर का फॉलोअप करना गुजरे जमाने की बात हो गई है।हम केवल टीवी चैनलों की ही बात नहीं कर रहे हैं। यह वायरस कोविड-19 की तरह ही संक्रामक है और मास्क एवं सैनिटाइजर का इस्तेमाल नहीं होने से समस्या और बढ़ जाती है। टीवी सबसे ज्यादा नजर आने वाला समाचार मीडिया है। केवल वक्त की ही बात थी कि स्टूडियो एवं न्यूजरूम का वैर-भाव, दर्शकों की रेटिंग के फर्जी एवं बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले दावे, एक्सक्लूसिव, सुपर एक्सक्लूसिव और 'एक्सप्लोसिव एक्सक्लूसिव' खबरों का शोर इतना घना हो जाए। पिछले दो हफ्तों में पूरे देश ने देखा है कि प्रतिद्वंद्वी चैनलों के रिपोर्टर एवं कैमरामैन आपस में ही उलझ पड़े। स्टूडियो में बैठे ऐंकरों ने विरोधी चैनलों के अमुक रिपोर्टर के खिलाफ खतरनाक मुहिम चलाई हुई है। रिपोर्टर के महिला होने का भी ख्याल नहीं रखा जा रहा है। पूरा प्रस्तुतीकरण इस तरह होता है कि लोगों की भीड़ दूरदराज के एक हिदींभाषी गांव में भी पूरी दिलचस्पी लेने लगे।आप कह सकते हैं कि मैं किस वजह से चिंतित हूं? आप चाहें तो किसी ऊंचे पेड़ पर बैठकर और गन्ना चूसते हुए आराम से इस नजारे का लुत्फ उठा सकते हैं। वैसे सवाल अच्छा है और अब मैं इसका जवाब देता हूं। पहली बात, मीडिया के छोटे आकार को देखते हुए ऐसा नहीं हो सकता है कि इस घटना को कुछ नियुक्त लोगों की लड़ाई के संकुचित दायरे में ही देखा जाए। समाचार मीडिया एक अपने आप में एक संस्थान है, न कि दो घंटे में खत्म हो जाने वाला कोई शो। दूसरी बात, अगर आप सभी मीडिया संस्थानों, विरोधी ब्रॉडकास्टर संगठनों, एवं पत्रकार क्लबों की हालत देखें तो आपको पता चलेगा कि हम एक-दूसरे के गले तक पहुंचे हुए हैं। यह जंग बड़े पैमाने पर अपने लोगों को मारने की है। हम सब उन एक्सट्रा कलाकारों की ही तरह हैं।तीसरी बात, जरा सोचें कि हमें हथियार किसने दिए? इस रक्तरंजित फिल्म के निर्माता मीडिया संस्थानों के मालिक हैं और वे सिर्फ बाजार अर्थव्यवस्था से संचालित नहीं होते हैं। ऐसे होने वाले मालिक असल में अधिक सम्मानजनक हैं। लेकिन मीडिया की ताकत से कई दूसरे तरीकों से भी पैसे बनाए जा सकते हैं। यही वजह है कि दूसरे कारोबारों में सक्रिय धनवान उद्यमी मीडिया कंपनियां खरीदते हैं। इसमें छोटी रकम लगती है और उसका प्रोफाइल काफी बढ़ जाता है। संस्थान के सालाना जलसों में वह मालिक प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की अगवानी करने लगता है और उनके बगल में बैठने का रुतबा पा लेता है। हैसियत में आए इस बदलाव पर मंत्री, अफसर एवं जज- सबकी नजर जाती है।मीडिया मालिक बनते ही आपको फौरन वह हासिल हो जाता है जो आपकी मीडिया कंपनी के अर्थशास्त्र से काफी अधिक होता है। इसका इस्तेमाल शॉपिंग मॉल या आवासीय कॉलोनी के निर्माण के लिए भूमि-उपयोग बदलने या एक बांध के निर्माण का ठेका हासिल करने में किया जा सकता है। ये सब असली घटनाएं हैं। मीडिया मालिकों एवं वरिष्ठ पत्रकारों का एक समूह ऐसा भी है जो खुद को राजनीति एवं सत्ता के खेल में 'खिलाड़ी' मानते हैं। उन्हें जल्द एक पक्ष चुनना होता है और वह पक्ष अमूमन विजेता का ही होता है। जब आप एक चैनल को अपनी रेटिंग में फर्जीवाड़ा करने के आरोप में पुलिस और प्रतिद्वंद्वी मीडिया के दबाव में देखते हैं और महज कुछ घंटे में ही सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष एवं सूचना प्रसारण मंत्री की तरफ से उसके पक्ष में बयान आ जाते हैं तो आप समझ सकते हैं कि दांव पर क्या लगा है? आज हमारी मीडिया के भीतर प्रतिष्ठान से सवाल करने के बजाय उसका हिस्सा बनने की ललक बहुत अधिक है। हमें खुद पर अधिक सख्त होने की जरूरत नहीं है। असल में, प्रतिष्ठान से सवाल पूछने के नतीजे अब पहले की तरह नहीं आते हैं। एक नाखुश मंत्री की एक फोन कॉल, कुछ फब्तियां कसना या फिर कभी-कभार के साक्षात्कार से भी मना कर देना। पत्रकारों को प्रतिष्ठान तक पहुंच से पूरी तरह वंचित कर दिया जाता है और सरकारी 'एजेंसियां' भी उनके दरवाजे पर दस्तक दे सकती हैं। सत्ता को यह भी मालूम है कि अगर कोई 'ब्लैक शीप' तारीफ करने वाली भीड़ से अलग भी हो जाए तो बाकी लोग तालियां बजाते रहेंगे।अगर मालिकों ने ही इस जंग के लिए असली हथियार मुहैया कराए हैं तो फिर सरकार तो सरकार ही है। वह तो इस जंग की गारंटीशुदा लाभार्थी है। समाचार मीडिया मौजूदा आर्थिक हालात में जितना ही कमजोर होगा, उतना ही अधिक इसके मालिक एवं पत्रकार करीबी के अनुपात में अपना मूल्य लगाएंगे, मुश्किल से बाहर निकलने और अपने विरोधियों को खत्म करने के लिए राज्य पर उतना ही अधिक निर्भर होते जाएंगे। इस तरह हम समाचार मीडिया रूपी संस्था के विघटन की तरफ बढ़ते जाएंगे।हम ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में हैं जहां सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक मीडिया का नियमन करना चाहती है। काफी हद तक आम जनता भी थक चुकी है और हम पर हंस रही है। वैसे सरकार पहले डिजिटल मीडिया से निपटना चाहेगी। सुप्रीम कोर्ट में मीडिया के नियमन के लिए जानी-मानी शख्सियतों की समिति बनाने की बातें कही गई हैं। जब मीडिया आपसी जंग में ही उलझी हुई है तो वह आत्म-नियमन कैसे कर सकती है। यह किसी भी प्रतिष्ठान के लिए दखल देने की आदर्श स्थिति है। आखिर बीते चार दशकों की सबसे ताकतवर सरकार ऐसा मौका क्यों छोडऩा चाहेगी? वह व्यवस्था बहाल करने की मंशा के साथ कदम रखेगी। वह कहेगी कि मीडिया के सभी पेशेवर संस्थानों में मतभेद होने और गहरे दुश्मन बन जाने के बाद क्या किया जा सकता है? उसके सामने महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस की मिसाल भी होगी। हमारे पेशे ने आत्मघाती बटन दबा दिया है। अब देश में प्रणव मुखर्जी जैसा कोई भीष्म पितामह भी नहीं है जो खतरे की घंटी बजा सके। इस बर्बर लड़ाई में हमारे पास यही है।
