सरकारी निकायों के बकाये का समय पर भुगतान करना जरूरी | |
बुनियादी ढांचा | विनायक चटर्जी / 10 09, 2020 | | | | |
अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तकें हमें बताती हैं कि जब आप कोई माल आपूर्ति करने, सेवा देने या पैसा उधार देने के लिए सरकार के साथ करार करते हैं तो इसमें दूसरे पक्ष यानी सरकार के अपनी देनदारी से पीछे हटने का कोई जोखिम नहीं होता है क्योंकि सरकार के 'सॉवरिन जोखिम' को शून्य माना जाता है। उसके पास आपको चुकाने का हमेशा पैसा होगा। सॉवरिन डिफॉल्ट नहीं कर सकता!
निस्संदेह इस देश में हकीकत काफी अलग है। अर्थव्यवस्था के बहुत से क्षेत्रों की कंपनियों ने यह अनुभव किया है कि सरकार विभिन्न वजहों से भुगतान में देरी कर सकती है। आज सरकार (केंद्र या राज्य) के साथ लेनदेन करने वाली किसी भी कंपनी के लिए समय पर भुगतान नहीं किए जाने का जोखिम होता है, भले ही वह सूक्ष्म, लघु एवं मझोली कंपनी (एमएसएमई) हो या सेंसेक्स की बड़ी कंपनी। आम तौर पर सरकार के ठेके सैकड़ों करोड़ रुपये के होते हैं, इसलिए ये बकाया भुगतान जल्द ही बहुत बड़ी राशि बन जाते हैं। हाल में एक कारोबारी समाचार-पत्र की खबर में अनुमान जताया गया है कि यह बकाया राशि अकेली केंद्र सरकार पर ही करीब 7 लाख करोड़ रुपये है। इस खबर का सरकार की तरफ से खंडन किया गया और स्पष्टीकरण जारी किए गए। जून में मनीकंट्रोल डॉट कॉम के साथ साक्षात्कार में केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग और एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) पर एमएसएमई के करीब पांच लाख करोड़ रुपये बकाया हैं।
कुछ जाने-पहचाने गड्ढे हैं। इनमें सबसे ज्यादा चर्चित बिजली क्षेत्र के बकाया हैं, जिनका भुगतान राज्य बिजली बोर्डों को बिजली उत्पादक कंपनियों को करना होगा। बिजली वितरण कंपनियों के भुगतान पर नजर रखने वाले पोर्टल प्राप्ति के मुताबिक इस साल जुलाई के अंत में वह राशि करीब 1.17 लाख करोड़ रुपये थी। इस धनराशि में से बड़ा हिस्सा खुद सरकारी कंपनियों का ही बकाया है। सितंबर तक राज्यों पर चीनी मिलों का बकाया करीब 15,683 करोड़ रुपये था। हालांकि राज्य सरकार खुद नकदी की किल्लत से जूझ रही हैं। वे अब यह तर्क दे सकती हैं कि केंद्र ने उन्हें जीएसटी क्षतिपूर्ति की पूरी राशि का भुगतान नहीं किया है।
इस समस्या की जड़ यह है कि बकाया राशि पर कोई आधिकारिक आंकड़ा और मंत्रालय या पीएसयू के हिसाब से वर्गीकरण उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिए खबरों में कहा गया है कि भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) पर सड़क क्षेत्र की निर्माण एवं अन्य कंपनियों की करीब एक लाख करोड़ रुपये की राशि बकाया है। हालांकि इसका स्वतंत्र रूप से सत्यापन करना मुश्किल है। बकाया राशि पर केंद्रीकृत सूचना कोष के समान एमएसएमई मंत्रालय का समाधान पोर्टल है, जहां कंपनियां बकाया भुगतान के दावे सौैंप सकती हैं। लेकिन इस पोर्टल पर राशि कुल बकाया का एक मामूली हिस्सा होने के आसार हैं। यहां तक कि गडकरी ने अपने साक्षात्कार में एमएसएमई की 5 लाख करोड़ रुपये की राशि बकाया होने का दावा किया था। उन्होंने कहा था कि यह आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। बिजली क्षेत्र में प्राप्ति एक अपवाद है और यह ऐसा मॉडल है, जिसका अनुसरण किया जाना चाहिए।
पीएसयू और मंत्रालयों को लेकर सूचना संसदीय सवालों जैसे विभिन्न सूत्रों से उपलब्ध है, लेकिन इनसे मुश्किल से ही व्यापक नजरिया मिलता है। मंत्रालयों और पीएसयू पर बकाये को लेकर नीति आयोग ने एक रिपोर्ट तैयार की है, मगर यह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। ऐसा स्रोत होना जरूरी है, जो संबंधित निकाय के भुगतान के बारे में ब्योरों को नियमित रूप से अद्यतन और सत्यापित करे। इसमें वित्त मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय को निकाय को निश्चित समय अंतराल के बाद आंकड़े जारी करने के लिए नहीं कहना पड़े। आश्चर्यजनक यह है कि इस आसान समाधान के लिए कोई अतिरिक्त सूचना एकत्रित करने की जरूरत नहीं है। सरकार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) सॉफ्टवेयर में विभागों और पीएसयू के लिए बने बिलों पर नजर रख सकती है। जीएसटी 1 जुलाई, 2017 को शुरू किया गया था। किसी सरकारी संस्थान के बनने वाले प्रत्येक बिल का जीएसटी ढांचे में पता होता है। इन बिलों को संबंंधित संस्थागत मदों के तहत समूहबद्ध किया जाना चाहिए और संबंधित संस्थान को इन बिलों के सभी भुगतानों को अद्यतन करने का निर्देेश दिया जाना चाहिए। इससे तत्काल हमारे पास हर संस्थान के हिसाब से बकाया भुगतान की पूरी तस्वीर होगी। इसे लागू करने में क्या दिक्कत है? ऐसे भुगतान और बकायों पर साप्ताहिक या मासिक आधार पर नजर रखी जा सकती है। देरी से भुगतान के लिए जुर्माने लगाए जा सकते हैं। जैसे ही ये जुर्माने बढऩे लगेंगे, उनसे स्वत: ही संबंधित सरकारी विभागों पर मसले को जल्द सुलझाने का दबाव बढ़ेगा।
ऐसे आसान समाधानों का भी बड़ा असर दिख सकता है। सरकार का घोषित वादा है कि वह जल्द से जल्द बकाये का भुगतान करेगी। ऐसे में इस सुधार से उन संगठनों पर लगाम लगेगी, जो इस मामले में फिसड्डी हैं।
यह पिछले साल नवंबर में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति के अहम फैसले का अगला तार्किक कदम भी होगा। इस फैसले में कहा गया था कि एक तरफ सरकारी प्राधिकरणों एवं एनएचएआई जैसी संस्थाओं और दूसरी तरफ निजी वेंडरों, आपूर्तिकर्ताओं और ठेकेदारों के बीच मध्यस्थता विवादों में अटकी राशि का 75 फीसदी भुगतान किया जाए।
भले ही विवादों के कारण भुगतान नहीं करने या केवल देरी से भुगतान करने की समस्या बड़ा नीतिगत मुद्दा न लगे, लेकिन यह ऐसा सुधार है, जिसका बड़ा असर पड़ सकता है। यह विशेष रूप से इस संदर्भ में भी सही है कि यह माना जा रहा है कि अब तक घोषित आधिकारिक प्रोत्साहन में अहम राजकोषीय हिस्सा नहीं है। असल में यह मौजूदा दौर का दर्पण है। केवल सरकार का समय पर भुगतान करना भी राजकोषीय प्रोत्साहन का काम कर सकता है।
(लेखक फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं)
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