आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए जरूरी कदम | नितिन देसाई / September 29, 2020 | | | | |
चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही का राष्ट्रीय लेखा यही संकेत देता है कि यदि कोविड संक्रमण में आ रही तेजी पर जल्द नियंत्रण नहीं किया गया तो इस वर्ष सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10 फीसदी या उससे अधिक की गिरावट आएगी। वृद्धि प्रक्रिया में अगले वित्त वर्ष की दूसरी छमाही तक सुधार नहीं होगा और बढ़ती बेरोजगारी और गरीबी के कारण यह देरी सामाजिक अशांति की वजह बन सकती है। इसका असर घरेलू और विदेशी निवेशकों के रुझान पर भी पड़ेगा।
सरकार को आर्थिक सुधार की ऐसी नीतियों पर काम करना चाहिए जो तात्कालिक प्रभाव डालने में सक्षम हों। अब तक लंबी अवधि के विकास को लेकर घोषणाएं सुनने को मिली हैं जबकि फिलहाल अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने और वृद्धि बहाल करने जैसी तात्कालिक चुनौतियां ज्यादा अहम हैं।
इसके लिए आवश्यक वृहद आर्थिक नीति पर काफी चर्चा हुई और इस बात पर आम सहमति है कि हमें जीडीपी के 5 फीसदी के बराबर राजकोषीय प्रोत्साहन चाहिए। परंतु हमने अब तक जीडीपी के एक फीसदी से भी कम राशि व्यय की है। यह सच है कि बड़े राजकोषीय घाटे का अर्थ होगा स्वचालित मुद्रीकरण और मुद्रास्फीति से जुड़े जोखिम की ओर वापसी। परंतु वह समस्या मौजूदा आर्थिक पराभव से बड़ी नहीं है।
सरकार का राजकोषीय संरक्षणवाद रेटिंग एजेंसियों को संतुष्ट रखने तक सीमित नजर आ रहा है जो विदेशी निवेश जुटाने के लिए जरूरी है। उसे समझना चाहिए कि विदेशी निवेशक भारतीय बाजार में रुचि रखते हैं और वृद्धि दर का ठहराव या उसमें गिरावट उन्हें इससे दूर करेगी।
वित्त मंत्रालय को कहीं बड़े घाटे के प्रबंधन और अर्थव्यवस्था और कामगारों को गहन मंदी से बचाने के लिए धन खर्च करने को तैयार रहना चाहिए। उन क्षेत्रों पर व्यय बढ़ाना चाहिए जो निवेश और वृद्धि को तत्काल प्रोत्साहन देते तथा संकटग्रस्त क्षेत्रों की सहायता करते नजर आते हैं।
मौजूदा मूल्य पर पहली तिमाही के सकल मूल्यवद्र्धन (जीवीए) पर नजर डालें तो इस विषय में कुछ संकेत निकलते हैं। व्यापार, परिवहन, होटल और संचार आदि क्षेत्रों के रोजगार में असंगठित क्षेत्र की बड़ी हिस्सेदारी है। वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में इनके जीवीए में 41.4 प्रतिशत की गिरावट आई। इसमें विनिर्माण और खनन क्षेत्र की हिस्सेदारी 34.3 प्रतिशत और विनिर्माण की हिस्सेदारी 19.5 फीसदी रही। शेष हिस्सा औपचारिक रोजगार वाले क्षेत्रों का रहा। वित्तीय, पेशेवर,अचल संपत्ति, लोक प्रशासन, रक्षा तथा अन्य सेवाओं के क्षेत्र में 8.5 प्रतिशत की गिरावट आई। बिजली और संबधित सेवाओं में 0.7 प्रतिशत की गिरावट आई।
इस रुझान के उलट कृषि क्षेत्र में 4.4 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई और इस वर्ष इसका प्रदर्शन और बेहतर होने की संभावना है। कृषि मंत्रालय के अगस्त के अंत के अनुमान बताते हैं कि खरीफ की फसल का रकबा 7.2 फीसदी बढ़ा। चावल का रकबा 10 फीसदी, तिलहन का रकबा 13 फीसदी और दलहन का रकबा 4.6 फीसदी बढ़ा। अखबारों में ऐसी खबरें आई हैं जिनसे पता चलता है कि शहरी कामगारों के रोजगार गंवा कर अपने घरों को लौटकर खेती के काम में लगना भी इसकी एक वजह हो सकती है।
हालांकि फसल उत्पादन केवल रकबे से नहीं बल्कि मौसम से भी तय होता है। सितंबर के मध्य तक 49 प्रतिशत जिलों में सामान्य वर्षा हुई थी। यह औसत पिछले पांच में से चार वर्षों से बेहतर रहा है। यह वर्षा स्तर 2016 के स्तर के करीब है। हालांकि ज्यादा वर्षा वाले जिले 28 प्रतिशत हैं जो पिछले पांच सालों में सबसे अधिक हैं। कुछ कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जुलाई में कम बारिश और अगस्त में भारी बारिश खरीफ की कई फसलों के लिए बेहतर नहीं है। परंतु इसके बावजूद अक्टूबर/नवंबर में बंपर फसल देखने को मिलेगी। यह कतई जरूरी नहीं कि बंपर फसल किसानों के लिए हमेशा अच्छी कीमत लाए। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे कीमतों में भारी गिरावट आ जाती है। सरकार ने कृषि विपणन में व्यापक सुधार की पहल की है। परंतु उसे प्रभावी होने में वक्त लगेगा और किसान पहले ही इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को न केवल चावल बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली अन्य फसलों की सरकारी खरीद के लिए भी काफी संसाधन लगाने चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो रकबे में इजाफे और बेहतर मॉनसून के आधार पर ग्रामीण क्षेत्र की आय में 10 प्रतिशत तक का इजाफा देखने को मिल सकता है। इससे मांग बढ़ेगी जो स्थानीय सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) तथा उपभोक्ता वस्तुओं कृषि मशीनरी, विनिर्माण आदि क्षेत्रों की बड़ी कंपनियों के लिए फायदेमंद होगी।
दूसरी ओर व्यापार होटल आदि क्षेत्रों की बात करें तो लॉकडाउन ने इन्हें बुरी तरह प्रभावित किया है। परंतु केवल लॉकडाउन हटाना पर्याप्त नहीं होगा। अल्पावधि में प्रोत्साहन देने वाले उपाय करने होंगे क्योंकि शहरी क्षेत्रों में भी आय की आवश्यकता है।
लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के शोधकर्ताओं ने मई से जुलाई 2020 के सर्वेक्षण पर एक शोध किया जिसके अनुसार 21.7 प्रतिशत युवा शहरी कामगार सर्वे अवधि में बेरोजगार हो गए थे या उन्होंने कोई काम नहीं किया था। लॉकडाउन के तीन महीनों तक 52 फीसदी शहरी कामगार बिना रोजगार, वेतन या वित्तीय सहायता के रहे। जनवरी-फरवरी और अप्रैल-मई 2020 के बीच श्रमिकों की आय 48 प्रतिशत गिरी। सरकार को शहरी एमएसएमई के वेतन भत्तों के बड़े हिस्से का बोझ कम से कम छह महीने तक उठाना चाहिए ताकि इस नुकसान की भरपाई हो सके। इससे शहरी मांग बहाल करने में मदद मिलेगी और ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार से मिल रहे प्रोत्साहन में इजाफा होगा। इससे एमएसएमई पर से बंदी का जोखिम समाप्त होगा और मांग में इजाफा होगा।
एक बार मांग में सुधार के बाद संगठित विनिर्माण, खनन और सेवा कारोबार में सुधार होगा। विनिर्माण क्षेत्र को सड़क निर्माण तथा ऐसी अन्य गतिविधियों के रूप में मदद की आवश्यकता पड़ सकती है।
ऐसे में वृद्धि को शीघ्र गति प्रदान करने के क्रम में घाटे का बढऩा अपरिहार्य है। इस दौरान सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग कृषि जिंस के मूल्य समर्थन तथा एमएमसएमई की श्रमिकों की लागत पर सब्सिडी देने में करना होगा। साथ ही सार्वजनिक निर्माण कार्यों में इजाफा करना होगा। इससे मांग में सुधार होगा और न केवल वृद्धि बल्कि निवेश में भी सुधार आएगा। अर्थव्यवस्था को सेहतयाब करने के लिए ये कदम जरूरी हैं।
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