भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने सोमवार को इस बात को मंजूरी दे दी कि लक्ष्मी विलास बैंक का संचालन बैंक के शेष बचे वरिष्ठ प्रबंधन के साथ निदेशकों की तीन सदस्यीय समिति भी करेगी। इससे पहले के घटनाक्रम में गत सप्ताह बैंक की सालाना आम बैठक में अंशधारकों ने सात बोर्ड सदस्यों और चेयरमैन को पद पर बने रहने देने से इनकार कर दिया था। बैंक पहले ही संकट में था और अंशधारकों के इस कदम ने उसे और मुसीबत में डाल दिया। बैंक पिछली 10 तिमाहियों से घाटे में है, उसका जमा तेजी से घट रहा है और वह लंबे समय से आरबीआई के 'त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई' कार्यक्रम के अधीन है और उसके लिए कर्ज बांटना और वापस मुनाफा कमाना मुश्किल बना हुआ है। बैंक से जुड़ी खबरें भी प्राय: निराशाजनक ही रही हैं। रेलिगेयर के पूर्व प्रवर्तकों के साथ मिलीभगत कर फंड में गड़बड़ी के मामले में बैंक के कर्मचारियों के विरुद्ध जांच चल रही है। इस मामले में पिछले सप्ताह दिल्ली में दो लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। बीते तीन वर्ष में बैंक में तीन प्रबंध निदेशक बने। बैंक की हालत देखते हुए यह स्पष्ट है कि बिना भारी पूंजी डाले यह आगे चालू नहीं रह पाएगा। बैंक के अंकेक्षकों ने भी मार्च तिमाही के नतीजों पर अपने नोट में इस बात को प्रमुखता से रेखांकित किया है। सालाना आम बैठक में सांविधिक अंकेक्षकों को भी अंशधारकों की नाराजगी का सामना करना पड़ा और उन्हें हटा दिया गया। बैंक का दावा है कि क्लिक्स कैपिटल समूह के साथ विलय को लेकर उचित जांच परख की गई है। हालांकि मौजूदा झंझावात विलय और पूंजी मिलने में देरी की वजह बन सकता है, बशर्ते कि बैंकिंग नियामक इसके लिए विशेष प्रयास न करे। अंशधारकों की बगावत भले ही उचित समय पर न हो लेकिन उसे समझना मुश्किल नहीं है क्योंकि बैंक में पूंजी डालने की खबरों के साथ भरोसा बहाल करने की तमाम कोशिशों के बीच निवेशकों का धैर्य चुकता जा रहा था। अन्य मुद्दों के अलावा निवेशक सलाहकार सेवा ने एक रिपोर्ट जारी कर अंशधारकों से कहा कि वे मतदान करके पांच निदेशकों को बाहर का रास्ता दिखाएं जो उसके मुताबिक पुराने थे और जिन्हें बदलना जरूरी था। अंशधारकों ने इस सलाह को एकदम दिल पर लिया और इससे भी परे जाते हुए आठ निदेशकों के खिलाफ मतदान किया। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप सलाहकार फर्म की बढ़ती भूमिका अच्छा संकेत है। कई परिपक्व बाजारों में निवेशक सलाहकार सेवा अहम भूमिका निभाती है। खासतौर पर उन अंशधारकों के मामले में जो संस्थागत हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अलावा भी इस वर्ष अल्पांश हिस्सेदार भी घर से काम की अवधि के दौरान खासे मुखर और सक्रिय रहे हैं। अगस्त में निजी इक्विटी कंपनी टीपीजी कैपिटल एशिया के भारत कारोबार के प्रमुख को श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनैंस के बोर्ड से अल्पांश हिस्सेदारों ने बाहर कर दिया था। कई अन्य कंपनियों में कुछ प्रवर्तकों समेत दीर्घकालिक निदेशक विश्लेषकों तथा अन्य की निगरानी के दायरे में आए। यह व्यापक तौर पर एक स्वस्थ रुझान है। अंशधारकों की ओर से तिमाही और सालाना नतीजों पर ज्यादा ध्यान देना जहां नुकसानदेह हो सकता है, वहीं लंंबी अवधि के स्थायित्व और वृद्धि की कीमत पर यह अल्पावधि में फायदेमंद भी हो सकता है। हालांकि इसकी कीमत कंपनी और व्यापक अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है। भारत में समस्या प्राय: अल्पांश हिस्सेदारों की सीमित भूमिका रही है। उस नजरिये से देखें तो लक्ष्मी विलास बैंक का मुद्दा व्यापक बदलाव वाला है। उस दृष्टि से देखें तो वित्तीय क्षेत्र में ऐसे बैंक का होना व्यावहारिक नहीं है जो लंबे समय से ऐसे जोखिम में हो। आरबीआई को विलय प्रस्ताव पर सुगमता से कार्रवाई करनी चाहिए।
