किसानों की आय पर आशंका! | संजीव मुखर्जी और विवेट सुजन पिंटो / September 27, 2020 | | | | |
कृषि क्षेत्र में सुधार से संबंधित तीन विधेयकों के संसद से पारित होने के बाद मचे हंगामे के बीच मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के युवा किसान सुशील हनोटे चार एकड़ जमीन में बोई गई धान एवं मक्के की फसल के पकने के इंतजार में हैं। माली सिलपति गांव के रहने वाले 27 वर्षीय किसान सुशील को किसानों की जिंदगी बदलकर रख देने का दावा करने वाले इन नए कानूनों के बारे में बहुत कम जानकारी है। सरकारी दस्तावेजों में लघु एवं सीमांत किसान के तौर पर वर्गीकृत सुशील कहते हैं कि वह अपनी फसल उसी को बेचना पसंद करेंगे जो उनके खेतों से ही उपज खरीदने को तैयार हो और उसकी अच्छी कीमत भी दे। सुशील बताते हैं कि पास की शाहपुर मंडी में कई बार अनाज व्यापारी मंडी शुल्क काटकर उपज की कीमत देते हैं।
सुशील कहते हैं, 'बैतूल की सबसे नजदीकी मंडी मेरे गांव से करीब 35 किलोमीटर दूर है। अगर कोई मक्के और धान की उपज को सीधे मेरे खेतों से खरीद लेता है और उसके बढिय़ा दाम भी देता है तो फिर मुझे उसे बेचने में कोई दिक्कत नहीं होगी।' अपने दोस्तों एवं सहयोगियों के साथ हुई बातचीत से वह हाल ही में बने इन नए कानूनों से थोड़े-बहुत परिचित हो चुके हैं।
लेकिन बैतूल जिले में ही सक्रिय कृषक उत्पादक कंपनी 'मां माचना फसल उत्पादक कंपनी लिमिटेड' के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) अमित द्विवेदी का मानना है कि इन नए कृषि कानूनों ने मंडियों की भावी भूमिका को लेकर किसानों के मन में ढेरों सवाल एवं आशंका पैदा कर दी है।
द्विवेदी कहते हैं, 'आज के समय में मंडियों में कम-से-कम यह रिकॉर्ड तो रखा जाता है कि किसने और किस भाव पर उपज खरीदी है तथा वह कब इसका भुगतान करेगा। लेकिन अगर मंडी व्यवस्था खत्म हो जाती है तो नियंत्रण एवं संतुलन की कोई व्यवस्था नहीं होने से कोई भी कारोबारी किसान को लूट सकता है।' बैतूल से होकर बहने वाली एक छोटी नदी के नाम पर बनी इस कंपनी के सीईओ द्विवेदी कहते हैं कि फिलहाल मंडियां पैदावार की कीमतों के बारे में एक संदर्भ बिंदु के तौर पर काम करती हैं चाहे उस उपज को सीधे किसानों से ही क्यों न खरीदा गया हो। उन्हें चिंता इस बात की है कि अगर अनाज कारोबारी अपनी लागत कम करने के लिए मंडियों के बाहर ही खरीद करने लगे तो उन पर लगाम कौन लगाएगा? भले ही संसद में पारित ये नए विधेयक मंडियों की व्यवस्था को बनाए रखने और मंडियों के भीतर शुल्क लगाने, मौजूदा मंडियों का विस्तार करने और नई मंडियां बनाने के लिए राज्यों को अधिकार देने की बात करते हैं लेकिन किसानों के एक तबके का मानना है कि एक बार मंडी से बाहर खरीद शुरू हो जाने के बाद चीजें हाथ से बाहर चली जाएंगी।
मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में सोनी गांव के रहने वाले विनोद सिनम का सीधे कारोबारी से सौदे का अनुभव मिला-जुला ही रहा है। विनोद कहते हैं, 'कुछ महीने पहले अप्रैल में लॉकडाउन की वजह से मंडियां कभी-कभार ही खुल रही थीं। उस समय कुछ व्यापारी खेतों से निकली लहसुन की उपज खरीदने के लिए हमारे घर आए थे। कभी तो उन्होंने मंडियों के भाव से अधिक कीमत दे दी और कभी ठीक भाव नहीं लगाया।' विनोद ने टेलीफोन पर हुई बातचीत में कहा कि अगर उन्हें मंडी समिति द्वारा तय दाम के बराबर भाव ही व्यापारी दे रहा है तो सीधे उसे ही फसल बेचने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं होने पर वह मंडी जाकर ही फसल बेचना पसंद करेंगे।
साफ है कि पंजाब और हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में लाखों किसानों के नए कानूनों के विरोध में सड़क पर उतरने के बीच इसके फायदे एवं नुकसान को लेकर उत्पादकों और दूसरे हितधारकों की राय बंटी हुई है। अर्थशास्त्री, नीति-निर्माता और कृषि विशेषज्ञ भी इस मसले पर बंटे हुए हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि क्या ये कानून किसानों की आय बढ़ाने में मददगार होंगे या फिर उनकी आय पहले से भी कम हो जाएगी?
भारतीय सब्जी उत्पादक संघ के अध्यक्ष श्रीराम गाढवे कहते हैं कि इन कानूनों के जरिये नए खरीदारों के लिए दरवाजे खुलते हैं लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस तरह की सभी लेनदेन को ई-नाम प्लेटफॉर्म पर दर्ज भी किया जाए। गढ़वे कहते हैं, 'मंडियों में सब्जी उगाने वाले किसानों को पता होता है कि वह किसे अपनी उपज बेच रहा है और उसे क्या भाव मिल रहा है। लेकिन अगर कोई सीधे उत्पादक से ही खरीदारी कर रहा है तो ऐसे नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था नहीं रह जाएगी।' फॉच्र्यून ब्रांड से खाद्य तेल एवं अन्य खाद्य उत्पाद बेचने वाली कंपनी अदाणी विल्मर के उप मुख्य कार्याधिकारी अंशु मलिक कहते हैं कि मंडी व्यवस्था कमजोर होने पर बिचौलिये के खत्म हो जाने और कंपनियों के सीधे किसानों से खरीद करने के दावा भ्रामक है। वह कहते हैं, 'हम अपने कृषि उत्पादों के लिए मंडियों से खरीदारी करते रहे हैं। जहां पंजाब एवं हरियाणा में कृषि उपज विपणन समितियों के बाहर बिक्री न करने के लिए किसानों पर दबाव होता है वहीं मध्य प्रदेश में हमें ऐसा कोई प्रतिरोध नहीं देखने को मिलता है। मध्य प्रदेश के किसान सीधे कॉर्पोरेट घरानों के कारखानों को अपने उत्पाद बेचने को तैयार रहते हैं।' मलिक कहते हैं कि भारत में बहुतेरे किसान छोटे हैं जिनकी उपज को ग्रामीण स्तर पर सक्रिय आढ़ती ले लेते हैं।
वह कहते हैं, 'मध्य प्रदेश को लेकर हमारा यही आकलन है। ये आढ़ती ही मंडियों तक उपज को पहुंचाते हैं। इन आढ़तियों को बाहर नहीं किया जा रहा है जैसी आशंका पंजाब और हरियाणा में जताई जा रही है। यह किसान, आढ़ती एवं कंपनी तीनों के ही लिए आपसी फायदे का सौदा होने जा रहा है।'सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक जी वी रामनजनेयुलू का मानना है कि इसी स्तर पर कृषक उत्पादक कंपनियों (एफपीओ) की भूमिका बढ़ जाती है। वह कहते हैं, 'करीब 10 वर्षों तक एक एफपीओ चलाने का मेरा अनुभव कहता है कि किसान व्यक्तिगत तौर पर कंपनियों से सौदेबाजी नहीं कर सकता है। अगर वे एक सामूहिक रूप से एक संगठन बना लेते हैं तो उन्हें निजी कंपनियों या सरकार दोनों से बेहतर सौदा मिल सकता है।'उन्हें लगता है कि अकेले कानून बना देने से छोटे एवं सीमांत किसानों की समस्याएं नहीं दूर होने वाली हैं। भारत के कृषक समुदाय में सबसे बड़ी तादाद इन्हीं किसानों की है। अगर एफपीओ में समुचित निवेश हो, किसान सामूहिक तौर पर कदम उठाएं तो व्यवस्था में बदलाव का वे फायदा उठा सकते हैं। जहां तक मंडियों का वजूद खत्म होने का सवाल है तो वह इसे निराधार मानते हैं। रामनजनेयुलू कहते हैं, 'पहले भी 22 राज्यों ने मंडियों के बाहर कृषि उपज की खरीद की अनुमति दी थी। उसके बावजूद मंडियों का वजूद था। नए कानून से मंडियों की प्रासंगिकता खत्म होने का सवाल गैरवाजिब है।'
कृषि विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मॉनसून सत्र में संसद में पारित हुए विवादास्पद कृषि विधेयकों को रविवार को मंजूरी दे दी। राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ही ये विधेयक अब कानून बन गए हैं। कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवद्र्धन और सुविधा) विधेयक, 2020 और कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक, 2020 तथा आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक को राज्यसभा में पारित किए जाने के दौरान हंगामा हुआ था। इसके बाद इसे राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा गया था।
संसद में पारित किए गए तीन कृषि कानूनों को असंवैधानिक करार देते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने रविवार को कहा कि इसका विरोध करते हुए राज्य विधानसभा के अगले सत्र में एक प्रस्ताव लाया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि इन विधेयकों के क्रियान्वयन के खिलाफ जरूरत पडऩे पर कानूनी लड़ाई लड़ी जाएगी। भाषा
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