महामारी से जुड़ी सामाजिक दूरी की चिंताओं के बीच आयोजित संसद का मॉनसून सत्र सामान्य से छोटा रहा और तय समय से आठ दिन पहले ही समाप्त हो गया। ऐसा कोविड-19 के मामलों में अचानक उभार के कारण हुआ। परंतु संख्यात्मक दृष्टि से देखें तो यह सत्र काफी उपयोगी साबित हुआ। संसद के कामकाज का आकलन करने वाली गैर लाभकारी संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक लोकसभा ने अपने तय समय से करीब 50 फीसदी अधिक काम किया जबकि औसतन यह तय समय से कम ही काम करती है। इस दौरान लोकसभा में लगातार दो दिन तक मध्य रात्रि के बाद तक कामकाज चलता रहा। इस समय के 60 फीसदी हिस्से में विशिष्ट विधानों को लेकर बहस की गई। इस क्षेत्र में लोकसभा की उत्पादकता में 167 प्रतिशत का इजाफा हुआ। जबकि राज्यसभा जहां सरकार का बहुमत सुनिश्चित नहीं है वहां 100 फीसदी काम हुआ। उच्च सदन में बाधा के कारण केवल तीन घंटे कामकाज बाधित हुआ। कामकाजी संसद यकीनन शासन के लिए एक सकारात्मक बात है। परंतु ये आंकड़े सही तस्वीर पेश करते हैं या नहीं इसमें पर्याप्त संशय है। मॉनसून सत्र के दौरान संसद में हुई गतिविधियों को सही मायने में काम कहा जा सकता है या नहीं यह भी तय करना होगा। पहली बात, कार्यपालिका के कदमों की जवाबदेही और निगरानी को जमकर क्षति पहुंची क्योंकि प्रश्न काल को रद्द कर दिया गया। किसी भी लोकतांत्रिक सरकार में कार्यपालिका से सवाल करना अहम है और खासतौर पर उस समय जबकि एक दल के पास बहुमत हो और सत्ताधारी गठबंधन में भी बहुत अधिक विमर्श नहीं होता हो। सरकार इसे आदत नहीं बना सकती। ऐसे में सत्ताधारी दल के सांसद भी अलग-थलग महसूस करने लगेंगे। मंत्रियों से उनके मंत्रालयों के कामकाज के बारे में जवाब तलब करना संसद के बुनियादी कामों में शुमार है। इतना ही नहीं संसद में जिस प्रकार कानून पारित किए गए उसने भी विधि की लोकतांत्रिक वैधता को लेकर एक गलत नजीर पेश की। विपक्षी सदस्यों को निलंबित किया गया, बहिष्कार की घटनाएं हुईं और विधेयक बिना किसी बहस के पारित कर दिए गए। सत्र की अवधि में कटौती के एक दिन पहले राज्य सभा में चार घंटे से भी कम समय में सात विधेयक पारित किए गए। अतीत में जब भी बिना पर्याप्त चर्चा के विधेयक पारित किए गए, देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। यहां तक कि संसद के इस सत्र में कोई विधेयक समिति के पास भी नहीं भेजा गया। ऐसा तब हुआ जबकि इनमें से कई विधेयक अत्यंत विवादास्पद थे। इनमें श्रम संहिता, कृषि सुधार विधेयक और विदेशी अनुदान (नियमन) अधिनियम शामिल हैं। जो 20 नए विधेयक पेश किए गए उनमें से 17 इस सत्र में पारित कर दिए गए। दुख की बात है कि इस दौरान सहमति तैयार करने के बजाय संसदीय बहस और जांच प्रक्रिया को हाशिये पर लगाने का प्रयास किया गया। विपक्ष की अनुपस्थिति में खाली सदन में एक के बाद एक विधेयक पारित किए गए। यह भारतीय लोकतंत्र की दयनीय दशा को ही दर्शाने वाला अवसर था। ऐसे दृश्य इससे पहले राज्यों की विधानसभाओं में देखने को मिलते रहे हैं। परंतु राष्ट्रीय स्तर पर निगरानी को सीमित करना कहीं बड़ा खतरा है। विपक्ष के जिन सदस्यों ने बाधा उत्पन्न की वे निंदा के हकदार हैं और उन्हें ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था। परंतु यह सत्ता पक्ष की जवाबदेही है कि वह विधायिका का कामकाज सुनिश्चित करे और इस मोर्चे पर वह विफल रहा। आंकड़े चाहे कुछ भी कहें।
