लद्दाख में सैन्य विकल्प अपनाना भारत-चीन दोनों के लिए कठिन | दोधारी तलवार | | अजय शुक्ला / August 30, 2020 | | | | |
हाल ही में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल विपिन रावत यह कहने वाले देश के पहले वरिष्ठ सैन्य अधिकारी थे कि अगर बातचीत के माध्यम से चीन से लद्दाख में भारतीय जमीन खाली नहीं कराई जा सकी तो सैन्य विकल्प भी मौजूद है। प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री दोनों पहले ही ऐसा संकेत दे चुके हैं। इसके बावजूद रावत का वक्तव्य इस बात की स्पष्ट चेतावनी है कि यदि चीन की सेना अप्रैल 2020 की स्थिति में नहीं लौटती है तो भारत सैन्य संघर्ष को तैयार है।
यदि भारतीय सेना को रावत की बात पर अमल करना पड़ा तो उसके पास तीन विकल्प होंगे। या तो भारतीय सैन्य टुकडिय़ां चीनी टुकडिय़ों के विरुद्ध मोर्चा लेंगी (कुछ इलाकों में आपसी सहमति से सैनिकों को अलग करते हुए) और जाड़ों में फौज की तैनाती बढ़ाकर घुसपैठियों को बाहर करेंगी। दूसरा विकल्प यह है कि चीन के भूभाग पर कब्जा किया जाए और भारतीय क्षेत्र खाली कराने के लिए मोलतोल में उसका इस्तेमाल किया जाए। तीसरा और सबसे भड़काऊ विकल्प यही होगा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारतीय हिस्से में काबिज चीनी सैनिकों पर सीधा हमला किया जाए और जमीन खाली कराई जाए।
भारतीय सेना को पता है कि गत तीन महीनों की निष्क्रियता ने चीनी सेना को मजबूत रक्षा तैयार करने का वक्त दिया है। उसे अपने तोपखाने और टैंक आगे लाने तथा गोला-बारूद एकत्रित करने तथा लड़ाई के लिए अन्य तैयारी करने का वक्त मिला है। सन 1999 में इन्हीं हालात में करगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ के दौरान भारत ने बिना वक्त गंवाए धावा बोला था। लद्दाख में सरकार ने किसी तरह की जमीन गंवाने से ही इनकार कर दिया जिससे निर्णय प्रक्रिया बाधित हुई।
भारतीय सैन्य नियोजक जानते हैं कि करगिल में पाकिस्तान ने खुद को घुसपैठियों से अलग कर लिया था जिन्होंने वहां शिमला समझौते और साझा सहमति वाली नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया था। लद्दाख में चीन ने ऐसी सीमा का उल्लंघन किया है जो कभी निर्धारित ही नहीं हुई। वह पूरे क्षेत्र पर दावा करता है और भारतीय हमलों को जंग का ऐलान मान लेगा। अनुमान है कि प्रतिक्रिया स्वरूप न केवल वह ज्यादा ङ्क्षहसा करेगा बल्कि और अधिक भारतीय भूभाग पर कब्जा करेगा। इसके अलावा वह कश्मीर और नियंत्रण रेखा पर भी पाकिस्तान को अशांति पैदा करने के लिए प्रेरित करेगा। इसलिए सीधे आक्रमण का विकल्प तो खारिज होता है।
यदि चीन आगे और आक्रामकता दिखाता है तो उन हालात से निपटने के लिए नीति निर्माता सेना की तैनाती में कमियों की जांच कर रहे हैं और देख रहे हैं कि उससे कैसे निपटा जाए। एक अहम कमजोरी तो सन 1986 से भारत के तैनाती के तरीके से संबंधित है। वह तैनाती केंद्रीय और दक्षिणी लद्दाख में व्यापक चीनी अतिक्रमण को रोकने से संबंधित है। इसके लिए लद्दाख और कैलास रेंज में रक्षात्मक रुख अपनाया गया। यहां दो ब्रिगेड मजबूत स्थिति में बैठी हैं जबकि तीसरी दौलत बेेग ओल्डी क्षेत्र की रक्षा करती है।
परंतु इस रक्षा पंक्ति के आगे एलएसी तक के 10 से 60 किलोमीटर के इलाके पर मजबूत पकड़ नहीं है। यह इलाका भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के हवाले है। वही यहां से वास्तविक नियंत्रण रेखा तक की अग्रिम चौकियों पर गश्त करती है। सेना का मानना है कि यह अग्रिम मोर्चा चीनी घुसपैठ की दृष्टि से संवेदनशील है। यहां मजबूती के लिए 15,000 जवानों की तीन सैन्य टुकडिय़ों की आवश्यकता होगी।
भारत को चीनी सैनिकों को रोकने के लिए आक्रामकता का समावेश करना होगा। लद्दाख में जहां भारत ने रक्षा मजबूत की है वहां तीन अन्य सशस्त्र टुकडिय़ों की आवश्यकता है ताकि एलएसी में चीन के 35,000 सैनिकों के जमावड़े को रोका जा सके और अक्साई चिन में सामरिक महत्त्व के तिब्बत-शिनच्यांग जी-219 राजमार्ग के करीब भारत की चुनौती मजबूत की जा सके।
अन्य क्षेत्रों में घुसपैठ बढ़ाकर चीन को एलएसी से पीछे लौटने पर विवश करने की क्षमता हम 2013 की गर्मियों में दिखा चुके हैं जब भारतीय सैनिकों ने देपसांग में चीनी घुसपैठ को चूमर में चीनी क्षेत्र में घुसपैठ करके नाकाम किया था।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए विशेष बलों, पैरा कमांडो और ऊंचाई पर कारगर स्काउट्स (जवानों) की आवश्यकता होगी ताकि विशेष कार्रवाई को अंजाम दे सकें। जबकि नियमित टुकडिय़ां रक्षात्मक मोर्चे पर काम करें। भारत के पास लद्दाख में पांच स्काउट बटालियन हैं।
भारत स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) की सात बटालियन पर भी जोर देगा जो ये वे पैराट्रूपर हैं जो तिब्बती शरणार्थी समुदाय से भर्ती किए गए हैं। इन्हें चीनी सीमा पर कार्रवाई का प्रशिक्षण हासिल है। यह बल एक बार तिब्बत में प्रवेश कर जाए तो उसे वहां समस्या नहीं होगी क्योंकि तिब्बत की बड़ी आबादी चीन के खिलाफ है। यदि कश्मीर में चीन किसी तरह के उकसावे की वजह बनता है या उसके कहने पर पाकिस्तान ऐसा करता है तो एसएफएफ तत्काल कार्रवाई कर सकती है।
ज्यादा संभावना यही है कि दोनों देश यथास्थिति बरकरार रखें और दोनों के सैनिक जाड़ों में बने रहें। यह 1993 के शांति समझौते और 1996 के विश्वास बहाली उपायों से इतर होगा। यह चीन के हक में होगा क्योंकि एलएसी पर भारत की तुलना में अधिक सैनिक भेज सकता है।
एलएसी पर सक्रियता सेना के रसद पर भी बोझ बढ़ाएगी। पहले ही जाड़ों में अग्रिम चौकियों तक खाना और हथियार तथा अन्य आपूर्ति हवाई मार्ग से पहुंचाने होते हैं क्योंकि मौसम और हिमपात रास्ता रोक देते हैं। गौरतलब है कि लद्दाख में मई से जो अतिरिक्त जवान तैनात किए गए हैं उनके कारण मांग पहले ही बढ़ी हुई है।
इसके विपरीत चीन की ओर सड़क और ट्रकों का नेटवर्क होने के कारण हवाई आपूर्ति की जरूरत कम है। इसके बावजूद चीन के पास ऊंचाई वाली जगहों पर तैनाती का अनुभव भारतीय सेना से कम है। ऐसे में उसे कठिन सबक सीखना पड़ सकता है।
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