अयोध्या में गत 5 अगस्त को राम मंदिर भूमि पूजन कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विविध क्षेत्रों में रामायण की लोकप्रियता का उल्लेख किया। उन्होंने खासतौर पर इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे मुस्लिम देशों तथा दक्षिण और दक्षिणपूर्वी एशिया के अन्य देशों का जिक्र किया। शायद उनका ध्यान इस बात पर नहीं गया कि राम मंदिर का निर्माण उस स्थान पर हो रहा है जहां एक मस्जिद को तोडऩे का आपराधिक काम किया गया था। क्या इस्लाम को मानने वाले देश वाकई राम मंदिर निर्माण के अवसर पर भारत के हिंदुओं की आस्था का उत्सव मनाने को तैयार रहे होंगे? दूरदराज और अलग-अलग आस्था वाले देशों में रामायण की लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि कैसे मानवता की नैतिक दुविधा की सार्वभौमिक अपील है। रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्य उन्हें ही काव्यात्मक ढंग से दर्शाते हैं। ये दोनों महाकाव्य ऐसी कथा कहते हैं जो धर्म, राजनीति और दार्शनिक विचारों से परे इंसानों को एकदम अपने आसपास की लगती हैं। राम को एक सुनहरी चमकदार इमारत में कैद करना, मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में नैतिक नायक की उनकी सार्वभौमिक अपील को एक स्थानीय देवता के रूप में सीमित करना है जिसके संदेशों का प्रसार करने के लिए पारंपरिक तौर तरीकों की जरूरत होगी। यदि संदेश को प्रसारित करने के लिए ऐसा करना पड़ा तो उसकी सारी आध्यात्मिक विषय वस्तु खो जाएगी। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री विभिन्न संस्कृतियों में राम का उल्लेख करते समय भी इस बात से अनभिज्ञ थे। मैं खुशकिस्मत था कि मुझे इंडोनेशिया में भारत के राजदूत के रूप में काम करने का अवसर मिला। मुझे जोगजकार्ता और बाली में कई अवसरों पर रामायण और महाभारत के प्रकरणों का अद्भुत मंचन देखने को मिला। जोगजकार्ता में रामायण का मंचन नौवीं सदी में बने सुप्रसिद्ध प्रंबनन मंदिर के निकट स्थित मंच पर हुआ। यह मंदिर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की त्रिमूर्ति को समर्पित है। मुझे ग्रीन रूम में जाने का अवसर भी मिला जहां कलाकार रामायण पर आधारित नृत्य नाटिका की प्रस्तुति के पहले अपनी भूमिकाओं को परख रहे थे और वस्त्र आदि धारण कर रहे थे। जब प्रमुख कलाकारों से मेरा परिचय कराया जा रहा था तब मैं इस बात को लेकर सचेत था कि नमाज का वक्त हो रहा है। इसलिए क्योंकि कई कलाकार उस समय अल्लाह की इबादत कर रहे थे। आखिरकार मुझे उस स्थान पर ले जाया गया जहां उस शाम के सितारे हनुमान तैयार हो रहे थे। मैं यह देखकर दरवाजे पर ही रुक गया कि मझोली उम्र का वह कलाकार भगवान हनुमान की विशालकाय तस्वीर के समक्ष प्रार्थना कर रहा है। तस्वीर में हनुमान संजीवनी बूटी के लिए द्रोणागिरि पर्वत लेकर श्रीलंका की ओर जा रहे थे ताकि लक्ष्मण को जीवन प्रदान किया जा सके। वह कलाकार गहरे ध्यान में लग रहा था लेकिन शायद उसे हम आगंतुकों के आने का आभास हो गया और उसने ध्यान समाप्त करते हुए हनुमान के समक्ष झुककर अपनी श्रद्धा प्रकट की और फिर मुस्कराते हुए हमारा अभिवादन किया। मैंने उससे पूछा कि वह भगवान हनुमान की तस्वीर के समक्ष क्यों ध्यान लगा रहा था? उसका उत्तर सीधा और सहज था। वह हनुमान का आह्वान कर रहा था कि अपनी आत्मा को उससे एकाकार करे ताकि वह अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सके। मुस्लिम होने के बावजूद उसके मन में कोई दुविधा नहीं थी जबकि कुछ कुंद जेहन लोग इसे अपना धर्म छोडऩा बताएंगे। हम इस बात को समझने में चूक गए कि हमारे महाकाव्यों मेंं दर्ज मानवीय गाथाओं की जो भावना है, उसे इन सुदूर देशों में हमारी तुलना में कहीं अधिक बेहतर समझा गया है। इंडोनेशिया में ही नहीं बल्कि म्यांमार और नेपाल में भी अपने कार्यकाल के दौरान मुझे इस बात ने प्रभावित नहीं किया कि भारत दक्षिणी और दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों में सभ्यता का जरिया था बल्कि प्रभावित करने वाली चीज वह प्रेरक शक्ति थी जिसने इन इलाकों में सांस्कृतिक प्रफुल्लता पैदा की। उन्होंने पीढिय़ों से भारतीय व्यापारियों, पुजारियों और जिज्ञासु यात्रियों से अर्जित ज्ञान का प्रयोग किया। उन्होंने यह सब अपनी बुद्धिमता, सौंदर्य की समझ और परिकल्पना से हासिल किया। भारत को इस विरासत पर गर्व करना चाहिए लेकिन इसके साथ ही विनम्रता का भाव भी रहना चाहिए। दूर देशों में रामायण और महाभारत का इतिहास हमारे लिए सबक छिपाए हुए है। इसके अनुसार राम को संकीर्ण धार्मिक क्रियाकलापों और आस्थाओं में समेटकर भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का उत्सव मनाने के बजाय हमें इंडोनेशिया के हनुमान से यह सीखना चाहिए कि मूल्यों को किस तरह विनम्रतापूर्वक अपनाया जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने राम मंदिर निर्माण के आंदोलन की तुलना देश की आजादी की लड़ाई से की। यह राम और आजादी की लड़ाई दोनों की अवमानना करने के समान है। जब उन्होंने कहा कि राम हमेशा भक्तों के दिलों में निवास करते हैं तो वह सही थे लेकिन तब राम को एक मानव निर्मित मंदिर की क्या आवश्यकता थी? कुछ लोग कह सकते हैं कि मंदिर लोगों को उनके अतीत से जोड़ता है। वह एक निरंतरता, एक पहचान देता है। लेकिन भारतीयों के पास पहचान का संकट नहीं है। आस्था, जातीयता, भाषा और संस्कृति के मामले में यहां अनेक पहचान हैं। स्वतंत्रता संघर्ष की बात करें तो उसने इन तमाम पहचानों को एक सूत्र में बांधने का काम किया और हममें नागरिकता की साझा भावना पैदा की। गांधी का राम राज्य भारत के इसी विचार पर आधारित था। जिस राम राज्य के लिए एक भव्य राम मंदिर की आवश्यकता हो वह अपने आप में बहुत सीमित अवधारणा वाला राम राज्य होगा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की आजादी के लिए लडऩे वालों को, बाबरी मस्जिद ढहाने का आपराधिक कृत्य करने वालों के साथ एक ही तराजू पर तौलना वैसा ही है जैसे आजादी की लड़ाई को एक हिंसक और अश्लील झड़प के समकक्ष बताना। इसमें दो राय नहीं कि इतिहास दोबारा लिखा जा रहा है। परंतु इरादा यही है हमें उस नियति से बहुत दूर ले जाया जाए जो 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को संभव नजर आ रही थी। फिलहाल घटनाक्रम जिस तरह घट रहा है, उसमें भारत के बुनियादी विचार का ह्रास होता नजर आ रहा है। (लेखक पूर्व विदेश सचिव और सीनियर फेलो, सीपीआर हैं )
