डिजिटल पारिस्थितिकी का बदले स्वरूप | |
श्याम पोनप्पा / 08 12, 2020 | | | | |
भारत का डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र बनाने के लिए सरकार को दो घटनाओं की वजह से संघ (कंसॉर्टियम) प्रायोजित करने की जरूरत आ पड़ी है। पहली, फेसबुक की अप्रैल में रिलायंस जियो में 5.7 अरब डॉलर का निवेश करने की घोषणा बेहद अहम थी। एक सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 20 अरब डॉलर की भारी रकम जुटा ली जिसमें विदेशी निवेश का भी बड़ा अनुपात है। इस 'संघ' ने रिलायंस को कर्ज-मुक्त बनाने के साथ ही उसे भारत में संचार परिदृश्य पर दबदबा बनाने के लिए जरूरी पूंजी एवं क्षमता भी प्रदान कर दी।
दूसरी, भारत की डिजिटल पारिस्थितिकी की चीन और बढ़ते आयात पर निर्भरता इस अपरिहार्यता को दर्शाती है कि भारतीय कंपनियों को सफल होने के लिए एक साथ आकर राष्ट्रीय प्रयास करने चाहिए।
जियो फैक्टर
अतिशय वर्चस्व की स्थिति में शायद ही कभी आम लोगों को फायदा होता है, भले ही कीमत अविश्वसनीय रूप से निम्न स्तर से शुरू हो। विकसित बाजारों में फेसबुक, गूगल, ऐपल, एमेजॉन और माइक्रोसॉफ्ट जैसी दिग्गज कंपनियां होने के बावजूद एकाधिकारवादी वर्चस्व के प्रति असहमति का भाव रहा है। अब भारत के संचार क्षेत्र में भी ऐसी स्थिति पैदा होने की आशंका जताई जा रही है। हालांकि कर्ज एवं करों के बोझ, अन्य ऑपरेटरों के विभाजित होने और हठधर्मी नीतियों जैसी पुरानी नकारात्मक बातें अब भी मौजूद हैं। सरकारी शुल्कों एवं करों को लेकर उलझे ऑपरेटर इस प्रतिस्पद्र्धा में मुकाबला करने के लायक ही नहीं बचे हैं।
जियो के कदमों से सार्वजनिक हित किस तरह प्रभावित हुए हैं? यह असर लाभ एवं हानि दोनों रूप में है। नीलामी से संचार क्षेत्र पर पड़े कर्ज के नकारात्मक असर और कर बढऩे के साथ ही कीमत को लेकर जंग छिडऩे का नतीजा यह हुआ कि ऑपरेटरों द्वारा वसूला जाने वाला कम शुल्क उन्हें टिकाए रखने में नाकाम रहा। हालांकि कम शुल्क होने का सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि डेटा ट्रैफिक काफी बढ़ गया। फिर भी इस संघर्ष के नतीजे नुकसानदेह हैं- नाकाफी मुनाफा होने से सेवा प्रदाताओं के लिए, गुणवत्ता एवं वृद्धि सीमित होने से बाजार के लिए और उपभोक्ताओं के लिए तो अल्पावधि एवं दीर्घकालिक दोनों रूपों में।
संसाधनों से जुड़ी बाधाओं के चलते सेवा स्तर से समझौता किया गया (कॉल ड्रॉप एवं डेटा की धीमी रफ्तार)। इसका खमियाजा मौजूदा ग्राहकों के साथ ही पहुंच से बाहर के उपभोक्ताओं को भी उठाना पड़ा है। डेटा ट्रैफिक बढऩे की वजह शायद यह है कि आज अधिक संख्या में लोग अपने फोन पर फालतू वीडियो देखते हैं जबकि सेवा प्रदाताओं को कवरेज बेहतर करने एवं उसके विस्तार के लिए निवेश करने की जरूरत है। वहीं उपभोक्ताओं के असली फायदे के लिए ऑपरेटर को रचनात्मक शैक्षणिक, चिकित्सा सेवाएं, कौशल निर्माण एवं अन्य इंटरैक्टिव सेवाएं देने पर ध्यान देना चाहिए। उस मायने में उपयोगकर्ता को होने वाले लाभों के पैमाने के तौर पर डेटा ट्रैफिक पीछे रह जाता है। दो अन्य पहलुओं- ऑपरेटर राजस्व और लाइसेंस शुल्क एवं नीलामी राशि के रूप में सरकारी संग्रह पर भी गौर करने की जरूरत है। ऑपरेटरों से मिलने वाला राजस्व 2003 के मध्य से लेकर 2011-12 के मध्य तक तेजी से बढऩे के बाद अगले पांच साल (2012-2017) तक स्थिर रहा था और 2016-17 के बाद से तो इसमें गिरावट आई है।
अतिरिक्त शुल्कों से इतर, सरकारी राजस्व इस गिरावट को परिलक्षित करता है और अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाता है। क्या गिरावट का रुझान होने से जनता का हित होता है? गतिरोध एवं सेवाओं से वंचित होने की अवसर लागत क्या है? इस पर भी गौर करने की जरूरत है कि हम अपनी डिजिटल संभावनाओं को किस तरह बेहतर करते हैं? ध्यान रखें कि लाइसेंस शुल्क एवं स्पेक्ट्रम शुल्क से होने वाला सरकारी संग्रह 2004 से ही इस तरह बढ़ता रहा है कि कुल राजस्व जोड़ दें तो वह नीलामी से मिली राशि को पहले ही पीछे छोड़ चुका है। इसके अलावा सरकार को संचार कंपनियों से कॉर्पोरेट कर भी मिलता है।
लेकिन सरकारी संग्रह पहले स्थिर हुआ और फिर उसमें कमी आने लगी। यह सेवाओं को सुधारने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप की मांग करता है ताकि राजस्व एवं सरकारी संग्रह बढ़े। 60 गीगाहट्र्ज, 70-80 गीगाहट्र्ज और अप्रयुक्त 500-700 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम के आवंटन में वैश्विक मानक लागू करने से मदद मिलेगी। सरकारी संचार कंपनियों बीएसएनएल एवं एमटीएनएल में नई जान फूंकने का दिखावा और गलत ढंग से आवंटित निविदाओं को भी छोडऩा होगा।
सेवा के लिए प्रतिस्पर्द्धा
सरकार के लिए सेवाओं में संतुलित प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देने का एक तरीका एक संघ बनाने का है जो जियो के प्रभावी प्लेटफॉर्म से मुकाबला कर सके। इस संघ में एक अल्पांश ऐंकर होने के साथ वित्तीय, तकनीकी एवं आपूर्ति क्षमता भी हो। रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी 2जी स्पेक्ट्रम को अब तिलांजलि देने की मांग उठा चुके हैं जबकि एयरटेल के चेयरमैन सुनील मित्तल सहयोगी नीतियों की मांग रखते हैं। समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) पर लंबे समय तक चली लड़ाई और अत्यधिक शुल्कों में कटौती जैसे पुराने मुद्दे भी हैं। सरकार इनके समाधान के लिए नीतियों में बदलाव कर सकती है। वह शिकारी तरीकों पर लगाम लगा सकती है और इस संघ को मदद पहुंचा सकती है। बीएसएनएल या एमटीएनएल को इस संघ में अल्पांश हिस्सेदारी वाला सरकारी ऐंकर बनने के लिए वास्तव में समर्थन दिया जा सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक एवं अल्पांश हित दायित्व के लिए समुचित कानून बनाया जा सकता है। एयरटेल इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकती है एवं अन्य कंपनियां भागीदार हो सकती हैं।
उपकरण संघ
बिखरे आपूर्तिकर्ताओं एवं सिस्टम इंटिग्रेटर को भी गठजोड़ के लिए एक संघ की जरूरत है। जहां बहुराष्ट्रीय वेंडरों का वर्चस्व है वहीं हमारी बढ़ती एवं रणनीतिक जरूरतों के लिए आयात एवं चीन पर निर्भरता को सही नहीं ठहराया जा सकता है। सशक्त करने वाली नीति न होने से भारतीय संचार उपकरण विनिर्माताओं को देश के भीतर बिक्री के लिए पहले विदेश में सफल होना पड़ता है। ऐसा कई कारणों से होता है। इतिहास के पुनर्लेखन की चाह रखने वालों में भी औपनिवेशिक मनोवृत्ति का असर होने से लोग सत्ता में बैठी किसी भी सरकार को एक औपनिवेशिक या सामंती स्वामी की तरह देखते हैं जबकि लोगों को एक मत रखने वाले गुलाम ही मानते हैं जिनकी कमजोरियों का फायदा चुनावी जीत के लिए उठाया जा सकता है। यह 'कुल योग शून्य' होने वाला एक मसौदा है जिसमें सरकार बनाम अन्य की स्थिति बन जाती है। जबकि असल में, हालात का कुल योग शून्य होना जरूरी नहीं है और संचार सेवा में वृद्धि एवं सरकारी संग्रह के पिछले आंकड़े इसकी तसदीक भी करते हैं। अगर राजस्व हिस्सेदारी के बजाय नीलामी शुल्क का तरीका अपनाया जाता तो दिवालियापन की घटनाएं घटतीं और सेवा भी नहीं मिलती।
कुछ पूर्वापेक्षाएं हैं। जैसे, स्थानीय विनिर्माताओं एवं सेवा प्रदाताओं को पहुंच मुहैया कराने के लिए डब्ल्यूटीओ प्रावधानों के अनुरूप नीतियां बनाई जाएं, सिलसिलेवार ऑर्डर से उनकी बाजार पहुंच रहे और आपूर्ति, स्थापना एवं परिचालन सुविधा एवं जरूरी उपकरणों के रखरखाव में साझेदारी हो।
अगर ये चीजें संभव हुई रहतीं तो घरेलू आपूर्तिकर्ता भारत की संचार जरूरतों में एक अहम हिस्सा हासिल कर लिए रहते। इसके लिए हुआवे मॉडल अपनाने की जरूरत है लेकिन ऐसा कर पाना काफी मुश्किल है।
केंद्र एवं राज्य सरकारों को ये बाते समझनी होंगी और उन्हें राष्ट्रीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए इस बारे में जोरशोर की बयानबाजी, राजनीतिकरण एवं चुनावों के लिए फंड जुटाने से परहेज करना चाहिए। नीतियों से समन्वित गतिविधि को प्रोत्साहन मिले, ठेके देते समय घरेलू स्तर पर क्षमता विकास करने की शर्त भी जोड़ी जाए और क्रियान्वयन अव्वल दर्जे का होना चाहिए। डिजिटल संचार से सभी क्षेत्रों के कई पहलुओं को गति मिलेगी। हमारे नीति-निर्माता घबराहट छोड़ें और असरदार तैयारी में हमारी मदद करें।
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