निर्यात अवसर को नुकसान | संपादकीय / August 11, 2020 | | | | |
देश में जो चुनिंदा कारोबार प्रतिस्पर्धा और निर्यात के मामले में सफल रहे हैं उनमें वाहन उद्योग भी एक है। जैसा कि फोक्सवैगन इंडिया के प्रबंध निदेशक गुरुप्रताप बोपराई ने इस सप्ताह कहा भी कि कारों पर लगने वाले आंतरिक शुल्क ढांचे ने देश में कार निर्यात बाजार को प्रभावित किया है।
खासकर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के बहुस्तरीय ढांचे ने बाजार और इस उद्योग की उत्पादन क्षमता में विसंगति पैदा की। सस्ती वस्तुओं के लिए अलग ढांचे का राजनीतिक निर्णय कभी भी अच्छा विचार नहीं साबित होता। खासकर तब जबकि सस्ते को मनमाने ढंग से परिभाषित किया जाता है। वाहन क्षेत्र की बात करें तो यहां इस राजनीतिक जरूरत का परिणाम चार मीटर से लंबी और उससे कम लंबाई वाली कारों के लिए दो अलग शुल्क दरों के रूप में सामने आया। चार मीटर से कम लंबाई वाली पेट्रोल कारों पर 29 फीसदी जीएसटी और उपकर लगते हैं। जबकि चार मीटर से अधिक लंबाई वाली कारों पर यह 50 फीसदी तक हो जाता है। यही कारण है कि भारत में कार बना रही कंपनियों ने घरेलू बाजार के लिए चार मीटर से कम श्रेणी की अलग निर्माण क्षमता तैयार की है। इसके बावजूद जैसा कि बोपाराई ने इशारा भी किया, वैश्विक स्तर पर तो यह कुल कार बिक्री का बहुत मामूली हिस्सा है। भारत में बिकने वाली दो तिहाई से ज्यादा कारें चार मीटर से कम लंबाई वाली हैं जबकि दुनिया में इनकी हिस्सेदारी 7 फीसदी है और वह लगातार कम हो रही है।
यही कारण है कि भारत कारों के निर्यात से मुनाफा नहीं कमा पाता। यह बात इस मामले में इसलिए भी दिक्क्तदेह है क्योंकि महंगी कारों में मार्जिन और मूल्यवद्र्धन बहुत अधिक होता है। यही कारण है कि अपने शुल्क ढांचे के कारण भारत कई निर्यात बाजारों में पिछड़ गया। नैसर्गिक परिस्थितियों में होता यह कि भारतीय ग्राहकों की जरूरतें पूरी करने के लिए कार बनाने वाला संयंत्र वैश्विक मांग को भी पूरा करने की स्थिति में रहता। वैश्विक मानकों के अनुसार कार बनाने की सुविधा होने पर उसे क्षमता विस्तार करने में आसानी होती। परंतु ऐसा नहीं है। ऐसे समय में जब भारत वैश्विक आपूर्ति शृंखला में शामिल होना और वैश्विक कारोबार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहता है, सरकार को बोपराई की टिप्पणियों को गंभीरता से लेना चाहिए।
अधिक व्यापक ढंग से देखें तो यह हमें याद दिलाता है कि जब घरेलू नियमन बनाए जाते हैं तो व्यापार और निर्यात पर उसका असर हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। इस बात को लेकर काफी भरोसा जताया जाता रहा है कि भारतीय घरेलू बाजार सुधार और वृद्धि के लिए पर्याप्त है। परंतु न तो भारत के मामले में और न ही दुनिया के किसी अन्य देश के मामले में यह बात सच है। केवल विश्व बाजार तक पहुंच ही यह सुनिश्चित करेगी कि निवेश में इतना सुधार हो जाए जो सतत विकास पथ पर सफर बहाल कर सके। इस संदर्भ में केवल घरेलू नियमन ही दिक्कत नहीं पैदा कर रहे हैं। बोपराई ने यह भी कहा कि चुनिंदा बड़े बाजारों के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर पाना भी वाहन उद्योग को उन इलाकों में प्रतिस्पर्धा से बाहर रखे हुए है। यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौता लंबे समय से लंबित है।
ऐसे में जो कारें भारत में बनकर यूरोपीय संघ को निर्यात हो सकती थीं वे अब पूर्वी यूरोप में बन रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यूरोप में भारतीय कारों पर 10 फीसदी आयात शुल्क है। यह दर्शाता है कि भारत व्यापार के मोर्चे पर आगे बढऩे का अनिच्छुक है। सरकार को इन बातों पर पुनर्विचार करना चाहिए।
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