कोविड-19 के मामले में ठोस उपायों की दरकार | |
जमीनी हकीकत | सुनीता नारायण / 08 10, 2020 | | | | |
कोविड-19 महामारी कमजोर पड़ गई है, लेकिन केवल हमारी सोच में। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। वायरस कहर बरपा रहा है और पूरे देश में फैल चुका है। यह बड़े शहरों से आगे बढ़कर छोटे शहरों और गांवों तक पहुंच गया है, जहां वेंटिलेटर तो छोड़ दीजिए, स्वास्थ्य सेवाओं का नामोनिशां तक नहीं है। इस समय महामारी का प्रकोप सबसे अधिक है। जो लोग संक्रमित हैं, वे दोगुने नहीं तिगुने प्रभावित हो रहे हैं। उनके पास काम पर लौटने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। वे लॉकडाउन में घर बैठने की स्थिति में नहीं हैं। वे केवल बीमारी और स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव से ही प्र्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि उन्हें भयंकर गरीबी और अब मौसम संबंधी आपदाओं से भी लडऩा पड़ रहा है।
महामारी के सबसे बुरे दौर का हमारा दु:स्वपन आज हकीकत बनता दिखाई दे रहा है। संक्रमण के दैनिक आंकड़ों की खबरें फिर से खेले जाने वाले क्रिकेट मैच के समान नजर आ रही हैं। ये आंकड़े आते कई महीने हो गए हैं और ये पुरानी खबरों जैसे लगते हैं। इस मुश्किल भरे वर्ष के घटनाक्रम पर सरसरी नजर डालते हैं। जब हमने 2020 में प्रवेश किया, उस समय दुनिया में आने वाले इस संकट का कोई संकेत नहीं था। चीन के वुहान में कुछ घट रहा था, लेकिन हममें से बहुत से लोगों ने उस पर गौर नहीं किया। फरवरी और मार्च के आखिर तक कुछ भी अजीब नहीं लग रहा था। लोग भारत आ सकते थे और बाहर जा सकते थे। इसी समय अमेरिकी राष्ट्रपति गुजरात में एक बड़ी जनसभा में शामिल हुए थे। सभी सामान्य कार्यकलाप चल रहे थे। संसद का सत्र चल रहा था और मध्य प्रदेश सरकार गिर रही थी। इसके बाद सबसे पहला झटका 24 मार्च को लगा। उस दिन बिना किसी सूचना के अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। देश भर में जन-जीवन अचानक ठहर गया।
उस समय ध्यान बीमारी के दैनिक आंकड़ों पर था। कोविड-19 के कितने मामले हैं, संक्रमण का स्रोत कहां और क्या है और रोजाना कितनी मौत हो रही हैं। लॉकडाउन का पहला चरण अप्रैल के मध्य में खत्म हुआ। जब लॉकडाउन को तीन मई तक और फिर उस महीने के आखिर तक बढ़ा दिया गया तो ऐसा लग रहा था कि बीमारी का जल्द ही खात्मा हो जाएगा।
लेकिन जून से स्थितियां तेजी से बिगड़ीं। देश में मई की शुरुआत में रोजाना करीब 2,500 मामले आ रहे थे। लेकिन जुलाई के अंत में हमारे यहां रोजाना 55,000 से अधिक मामले आने लगे और यह आंकड़ा दिनोदिन बढ़ता जा रहा है।
मई में एक और मानवीय संकट पैदा हुआ, जिसने हमारा ध्यान खींचा। हजारों भूखे, बेसहारा लोग अपने काम-धंधे की जगह को छोड़कर अपने गांवों के लिए निकल पड़े क्योंकि अर्थव्यवस्था बंद हो चुकी थी और उनके पास पैसा नहीं बचा था। हमने देखा कि कैसे हमारे शहरों के दिखाई न देने वाले वे लोग, जो हमारी सुख सुविधाओं के लिए श्रम मुहैया कराते हैं और वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करते हैं, समाज से बाहर हो गए।
उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया गया। उन्हें अपनी जिंदगी गंवानी पड़ी। रेल पटरियों पर सोए मजदूर ट्रेन से कटकर मर गए। कुछ मजदूर ट्रकों के नीचे कुचले गए। मैं यह इसलिए लिख रही हूं क्योंकि हमें अपने दिलो दिमाग से इन तस्वीरों को मिटाना नहीं चाहिए। यह सब हमारी दुनिया में घटित हुआ।
जब 1 जून को लॉकडाउन में पहली ढील की घोषणा हुई तो भीड़ उमडऩी तय थी। अर्थव्यवस्था अपने घुटनों पर आ गई थी, इसलिए सबसे अधिक प्रभावित दिहाड़ी मजदूर हुए। उनके पास खाने या अन्य चीज खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। हालांकि सरकार के राहत पैकेज स्वागत योग्य थे, लेकिन वे समस्याओं को दूर करने में पर्याप्त नहीं थे। लेकिन लॉकडाउन को हटाना आसान नहीं था। जैसे ही हमने लॉकडाउन हटाया तो संक्रमण के मामले बढऩे के कारण बार-बार लॉकडाउन लगाने पड़े। विभिन्न शहरों और विभिन्न राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर लॉकडाउन लगाए। कुछ ने सप्ताह के अंत में, कुछ ने कुछ दिन के लिए लगाया और कुछ ने लॉकडाउन हटाया लेकिन फिर लगा दिया।
अब रोजाना मामले बढ़ रहे हैं। हमारे यहां मरने वालों का आंकड़ा दुनिया में पांचवां सबसे अधिक है। भारत में 7 अगस्त तक मरने वालों का आंकड़ा 41,585 था। आज हम संक्रमण के मामलों में अमेरिका और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि वायरस के मामले केवल शहरों तक सीमित नहीं हैं, जहां मीडिया की नजर है और कुछ स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा है। कोविड-19 के मामले शहरों से आगे निकल चुके हैं। यह उन लोगों को प्रभावित कर रहा है, जहां लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
इस समय अगस्त चल रहा है, इसलिए हमें महामारी शुरू होने के छह महीने बाद खुद को इस हकीकत से रूबरू कराना चाहिए। कोविड-19 ने पीछा नहीं छोड़ा है, यह पूरे देश में तबाही मचा रहा है। हम यह जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि हम इस बात से इनकार कर सकते हैं कि सामुदायिक स्तर पर प्रसार नहीं हुआ है। लेकिन सरकारों को न संक्रमण के स्रोत का कुछ पता है और न ही उनका बीमारी पर नियंत्रण है। अब हमारा सबसे अच्छा दांव यह है कि बीमारी सुर्खियों से बाहर होती जा रही है। आज यह प्रमुख खबर नहीं होती है, लेकिन अंदर के पृष्ठों पर मामूली जगह मिलती है। हमें एक नए मनबहलाव की जरूरत है।
लेकिन यह खबर बनी रहेगी। हमें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि अगर यह बीमारी देश के किसी हिस्से में बनी रहती है तो यह फैलेगी। अगर आज गरीब प्रभावित हो रहे हैं तो अमीर कल प्रभावित होंगे, जिन्होंने ही ज्यादातर मामलों में सबसे पहले इस बीमारी का प्रसार शुरू किया था। अगर बार-बार और बिना योजना के लॉकडाउन लगेंगे तो अर्थव्यवस्था पटरी से नीचे रहेगी और इसे रफ्तार नहीं दी जा सकती। इसलिए इस बार हम नई शुरुआत नहीं कर सकते। इस मामले में महज हेडलाइन प्रबंधन कारगार साबित नहीं होगा।
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