धर्म निरपेक्षता का उपासना स्थल | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / August 09, 2020 | | | | |
क्या 5 अगस्त को अयोध्या में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अंत हो गया? ऐसे में यही कहा जा सकता है कि एक नये भारतीय गणराज्य का उदय हुआ है जो एक हिंदू राष्ट्र है। अगर इन दोनों दलीलों को स्वीकार कर लिया जाए तो तीसरी बात यह कि देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान में आस्था रखने वाला कोई भी व्यक्ति यही कहेगा कि यह वह देश नहीं जहां वह पैदा हुआ था। वह कहां जाएगा? अमेरिका और कहां लेकिन ऐसा तभी होगा जब इन जाड़ों में डॉनल्ड ट्रंप की विदाई हो जाए और आव्रजन के नियम आसान हों। साफ कहें तो हम ऐसे तमाम अनुमानों को खारिज करते हैं। धर्मनिरपेक्षता के अंत की बातें महज अफवाह हैं और वो भी काफी अतिरंजित। मैं मार्क ट्वेन को अपनी राजनीति के कीचड़ में घसीटने के लिए उनसे माफी चाहता हूं। दूसरी बात, धर्मनिरपेक्षता के अंत की घोषणा पहले भी कई बार की जा चुकी है। देश की 1.38 अरब की आबादी में से अधिकांश के पास न तो ग्रीन कार्ड है और न ही अमेरिका में कोई उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। न ही यूरोप या तुर्की में उनका कोई है। हमें भारत में ही रहना है और संवैधानिक प्रावधानों के तहत जनता द्वारा चुने गए लोगों द्वारा ही शासित होना है।
बीते 35 वर्षों की बात करें तो सन 1986 में शाह बानो मामले में राजीव गांधी के कदम, सन 1988 में सलमान रश्दी की किताब सटैनिक वर्सेज पर प्रतिबंध, बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के गेट खोले जाने, उसके शिलान्यास और सन 1989 में राम राज्य के वादे के साथ अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू किए जाने पर संविधान की मौत की बात की गई। इसके बाद सन 1992 में मस्जिद के विध्वंस के बाद भीषण दंगे फैल गए तब यही कहा गया कि ऐसे प्रधानमंत्री से और क्या उम्मीद की जाती जो 'धोती के नीचे खाकी चड्डी पहनता हो?' अर्जुन सिंह, सोनिया गांधी को संजीवनी बूटी के साथ राजनीति में लाए लेकिन कलियुग में इसका असर सीमित रहा। सन 1996 में एक बार फिर भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मौत की घोषणा की गई जब अटल बिहारी वाजपेयी ने देश में पहली भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बनाई, हालांकि वह 13 दिन ही चल सकी। हालांकि कांग्रेस नेता वीएन गाडगिल ने तो इसके मात्र 10 दिन चलने की भविष्यवाणी की थी।
अगली बार भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अंत सन 2002 में गुजरात हत्याओं के बाद हुआ और उसके बाद नरेंद्र मोदी की हर जीत पर धर्मनिरपेक्षता के अंत की बात दोहराई गई। हम उसी समय 19 मई, 2014 और अब 5 अगस्त को जो कुछ हुआ उसका अनुमान लगा सकते थे। मैंने 2002 और 2007 के गुजरात चुनाव के समय दो आलेख लिखकर अनुमान जताया था कि नरेंद्र मोदी का एक दमदार राष्ट्रीय नेता के रूप में उदय सुनिश्चित है। दूसरे आलेख में तो मैंने यह भी लिखा था कि मोदी के छोटी बांह के कुर्ते भी राजनीति में फैशन में आएंगे। क्या मैं मोदी का प्रशंसक हूं या जैसा कि आजकल कहा जा रहा है 'भक्त' हूं? यह आरोप तो मोदी भी मुझ पर नहीं लगाएंगे। परंतु मैं एक पत्रकार हूं और अपने आंख और कान खुले रखता हूं। सन 2014 और 2019 में एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता के मौत की घोषणा की गई। परंतु गत 5 अगस्त तक यह जिंदा थी और इसे एक बार फिर मार दिया गया। आप यह जरूर कह सकते हैं कि इस बार आपने उसकी लाश देखी। इस 5 अगस्त को अयोध्या में कुछ तो मरा लेकिन वह हमारी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता नहीं बल्कि दिसंबर 1992 के बाद बना उसका संस्करण था। बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने तटस्थ रहे हिंदुओं के मन में क्रोध उत्पन्न किया और इसके नतीजे बाद में हुए चुनाव के नतीजों में सामने आए। खासतौर पर उत्तर प्रदेश जैसे हिंदीभाषी क्षेत्र में ऐसा हुआ। कल्याण सिंह की सरकार जाने के बाद मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी बारी-बारी से सत्ता में आईं। दोनों ने पुनर्परिभाषित धर्मनिरपेक्ष मतों के इर्दगिर्द नई राजनीति निर्मित की। बिहार में लालू यादव पहले ही इस फॉर्मूले को अपना चुके थे। धर्मनिरपेक्ष मतों को अब मुस्लिम मत माना जाने लगा। लगभग इसी समय पुराने दुश्मन भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए साथ आए। एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली दो संयुक्त मोर्चा सरकारें आम जनमत को नकारने का प्रमाण थीं। सन 1992 के बाद 'भाजपा के बजाय कोई भी' के नए फॉर्मूले को सच्चा जनादेश 2009 में मिला। हम इसे सन 1992 के बाद की नई धर्मनिरपेक्षता इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वाम राजनीति और बौद्धिक वर्ग इसमें मजबूती से शामिल हुआ। उन्होंने अयोध्या के द्वंद्व को इस प्रश्न तक पहुंचा दिया कि राम कभी थे भी या नहीं? यह कांग्रेस के उस नजरिये के प्रतिकूल था जिसमें अल्पसंख्यकों की हिमायत थी लेकिन हिंदुत्व का कभी मजाक नहीं उड़ाया गया।
यदि नई भाजपा भगवा रंग में डूबी हुई थी तो कांग्रेसनीत गठबंधन की धर्मनिरपेक्षता भी अब ज्यादा वामोन्मुखी थी। इसके चलते कई गड़बडिय़ां हुईं: आतंकवाद निरोधक अधिनियम यानी पोटा का खात्मा संप्रग-1 के गठन की पूर्व शर्त बना क्योंकि मुस्लिमों को लगता था कि उन्हें प्रताडि़त किया जा रहा है। उसी सरकार ने जो आतंकवाद पर नरम नहीं थी, यूएपीए में भी संशोधन किया। क्या वह नरम है? डॉ. कफील खान से पूछ लीजिए। इसके बाद सच्चर कमेटी आई जिसने सेना में मुस्लिमों की तादाद और रोजगार में उनके आरक्षण जैसे सवाल उठाए। संप्रग सरकार ने बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अधिकारी को शांति काल का सर्वोच्च सम्मान दिया। उसी समय कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने मुठभेड़ पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। मनमोहन सिंह ने बयान दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का होना चाहिए। सोनिया गांधी के दौर के पहले आपने कभी किसी कांग्रेसी प्रधानमंत्री से ऐसी बात नहीं सुनी होगी। सपा, बसपा, राजद सभी मुस्लिम वोट बैंक को अन्य बड़ी जातियों के साथ जोड़कर सत्ता में आ रहे थे लेकिन उनकी सरकार बहुत अच्छी नहीं थीं।
आखिरकार हिंदू मतदाता इससे उकता गए। पिछले सप्ताह उसी धर्मनिरपेक्षता की मौत हुई। उससे लाभान्वित होने वालों को बहुत पहले अंदाजा हो गया था। वरना आपको राहुल गांधी का जनेऊधारी अवतार या बड़े मंदिरों की यात्रा देखने को नहीं मिलती। परंतु यह बहुत देर से हुआ। मोदी कहेंगे कि उन्होंने भारतीय धर्मनिरपेक्षता को जनता के मिजाज के मुताबिक नए ढंग से परिभाषित भर किया है। उनकेे पास बार-बार मिल रहे बहुमत की ताकत है आप चाहें तो जनता को दोष दे सकते हैं। संविधान की बातों से परे एक वास्तविक गणराज्य में यदि ज्यादातर लोग किसी बात को पसंद नहीं करते तो वे उसे खारिज कर देते हैं।
कमाल अतातुर्क ने कहा था कि हागिया सोफिया न चर्च है और न ही मस्जिद (हालांकि सन 1553 तक वह चर्च था और उसके बाद मस्जिद)। उन्होंने उसे संग्रहालय बना दिया। वह लोकतांत्रिक नहीं बल्कि एक उदार और धर्मनिरपेक्ष तानाशाह थे। वह धर्म को राजनीति से बाहर रखना चाहते थे।
गत माह एर्दोगन ने उस निर्णय को पलट दिया। अतातुर्क के उलट वह लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित हैं। उनका निर्णय तुर्की में लोकप्रिय है या नहीं? क्या यह लोगों की वास्तविक इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है? जो धर्मनिरपेक्ष था वह लोकतांत्रिक नहीं था जबकि जो लोकतांत्रिक है वह धर्मनिरपेक्ष नहीं है। राजनीति एक दिलचस्प चीज है।
नई जनता नहीं चुनी जा सकती। न ही जनता से निराश होने की जरूरत है। बड़ी तादाद में हिंदू अभी भी मोदी के खिलाफ मतदान करते हैं। उन्हें बस बेहतर विकल्प चाहिए। सन 1996 की बात है वाजपेयी की 13 दिन की सरकार के विश्वास मत पर लोकसभा मेंं बहस चल रही थी। राम विलास पासवान उस समय 'धर्मनिरपेक्ष' थे। उन्होंने अपने जबरदस्त भाषण में कहा कि बाबर के साथ केवल 40 मुसलमान आए थे लेकिन वे करोड़ों में तब्दील हो गए क्योंकि ऊंची जाति के लोगों ने निचली जातियों को मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया गया लेकिन मस्जिदों के दरवाजे उनके लिए खुले थे।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता संविधान के बुनियादी ढांचे में निहित है। उसे सर्वोच्च न्यायालय ने उस वक्त और मजबूत किया जब अयोध्या मामले पर उसके फैसले ने सन 1993 के सभी धार्मिक स्थलोंं की रक्षा के कानून को कुशलता से इसमें शामिल कर दिया। इसका बचाव आवश्यक है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता को समाधि के पत्थर की नहीं बल्कि एक नए पूजा स्थल की आवश्यकता है, वैसा जैसा पासवान ने सुझाया था।
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