पुरानी नीतियों की वापसी | |
साप्ताहिक मंथन | टी. एन. नाइनन / 08 07, 2020 | | | | |
आर्थिक परिस्थितियां कठिन होती जा रही हैं। राजकोषीय नीति से जुड़े आंकड़े चेतावनी दे रहे हैं। जून तिमाही में व्यय, राजस्व का 5.4 गुना था! मौद्रिक नीति में भी कोई गुंजाइश नहीं है। गुरुवार को यह देखने को भी मिला। दरअसल मुद्रास्फीतिक समायोजन के बाद वास्तविक नीतिगत दरें पहले ही ऋणात्मक हैं। एक ओर जहां सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के हाथ बंधे हुए हैं, वहीं शेष अर्थव्यवस्था के संसाधन भी सीमित हैं क्योंकि जीडीपी में पांच फीसदी या उससे अधिक की गिरावट आने की आशंका है। बीती तिमाही में कारोबारी मुनाफे में 30 फीसदी की गिरावट आई है और आम परिवार रोजगार जाने की परेशानी से जूझ रहे हैं। बचत और निवेश का वृहद आर्थिक अनुपात जो वृद्धि को सहारा देता है उसमें गिरावट आएगी। जाहिर है सरकार मौजूदा बचत का एक बड़ा हिस्सा अपने इस्तेमाल में लाएगी।
ये समस्याएं आर्थिक हालात मे थोड़ी बहुत बेहतरी से जाने वाली नहीं हैं। जून तिमाही में निराशाजनक आंकड़े यही बताते हैं। सुधार होगा लेकिन सवाल यह है कि किस स्तर से? उदाहरण के लिए सरकारी कर राजस्व जून तिमाही में करीब आधा रह गया। यदि सितंबर तिमाही में यह दोगुना हो जाता है तो भी वर्ष का राजकोषीय घाटा लक्ष्य जो 8 लाख करोड़ रुपये से कुछ ही कम है वह वर्ष के बीच में ही पार हो जाएगा। वर्ष की दूसरी छमाही में राजस्व सुधार के उदार अनुमानों के बाद भी घाटा जीडीपी के 6.4 फीसदी के उच्च स्तर तक रह सकता है। इस अनुमान को ध्यान में रखते ही सरकार ने पहले ही वर्ष की उधारी संबंधी आवश्यकता 50 फीसदी बढ़ाकर 12 लाख करोड़ रुपये कर दी है। सरकार को इससे अधिक की आवश्यकता हो सकती है। चूंकि आरबीआई सरकारी बैंकर की भूमिका में है इसलिए मौद्रिक नीति को और सीमित किया जा सकता है।
यहां पर बात आती है पहले उठाए गए नीतिगत कदमों को वापस लेने की। शुरुआत इस अनुमान से करते हैं कि भारी भरकम राजकोषीय प्रोत्साहन ही इकलौता उत्तर है। वैश्विक वित्तीय संकट के दौर में भी ऐसा ही देखने को मिला था जब राजकोषीय घाटा जीडीपी के 2.5 फीसदी से बढ़कर 6.4 फीसदी हो गया था। उसके बाद सुधार देखने को मिला था, कुछ लोग कहेंगे कि वह कुछ ज्यादा ही बेहतर था। तब और अब में अंतर यह है कि घाटा और सार्वजनिक ऋण उस वक्त कम थे, ऐसे में बड़े राजकोषीय प्रोत्साहन और सरकारी ऋण विस्तार की गुंजाइश थी। इस बार ऐसा नहीं है इसलिए सरकार को चाहे- अनचाहे नीतिगत कदमों को वापस लेना पड़ सकता है ताकि घाटे का स्वत: मुद्रीकरण किया जा सके। आम आदमी की भाषा में इसका अर्थ है नकदी छापना जिसे सन 1990 के दशक में बतौर नीति और व्यवहार त्याग दिया गया था। इस बीच बैंक एक बार पुन: फंसे हुए कर्ज में डूबने की ओर बढ़ रहे हैं।
आरबीआई के फंसे हुए कर्ज के संभावित अनुमान के मुताबिक उन्हें करीब 4 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता हो सकती है। चूंकि मुद्रा का अभाव है और लगातार नई कंपनियां दबाव में आ रही हैं इसलिए वित्तीय और कारोबारी क्षेत्रों को बैलेंस शीट की दोहरी समस्या के नए चरण के बीच सुचारु बनाए रखने का इकलौता तरीका यही है कि एक और मोर्चे पर नीतिगत कदमों को पलटा जाए। आरबीआई ने ऋण पुनर्गठन को दोबारा शुरू करके ऐसा ही किया है। यदि वृहद आर्थिक प्रबंधन इतना सीमित है कि पुराने कदमों को पलटना पड़ रहा है तो दीर्घावधि की नीति का क्या? सरकार के अब तक के कदम श्रम नीतियों को उदार बनाने, नए क्षेत्रों (कोयला खनन आदि) में विदेशी निवेश आमंत्रित करने, आयात प्रतिस्थापन को बढ़ावा देने और परिवहन का बुनियादी ढांचा सुधारने आदि पर केंद्रित रहे हैं। इनसे अंतर आएगा, हालांकि आवश्यक नहीं कि हर कदम बेहतरी ही लाए।
चीन से आयात (जो वाणिज्यिक व्यापार के गैर तेल घाटे का अहम हिस्सा है) का प्रतिरोध समझा जा सकता है लेकिन खुले व्यापार के लाभ को लेकर भरोसे की कमी के चलते सरकार कांग्रेस की बहुत पहले त्यागी गई नीति को अपनाने की दिशा में बढ़ी है। जबकि आमतौर पर वह कांग्रेस के कदमों का प्रतिकार करती आई है। यानी दो और क्षेत्रों में पुराने कदमों की वापसी होगी- उच्च टैरिफ और तीन दशक बाद आयात लाइसेंसिंग की वापसी। पूर्व में त्यागी गई ये नीतियां पहले दौर में कामयाब नहीं रही थीं। मौजूदा सरकार को लगता है कि वह बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। उसे शुभकामनाएं लेकिन इस बीच ऐसा लगता है कि केवल दैवीय हस्तक्षेप ही कोविड के कहर से बचा सकता है। बशर्ते कि धर्म जनता के लिए सरकार की अफीम से बेहतर साबित हो।
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