'मातृभाषा में निपुणता से दूसरी भाषाएं सीखने में होगी आसानी' | आदिति फडणीस / August 07, 2020 | | | | |
बीएस बातचीत
प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की मुख्य कार्याधिकारी रुक्मिणी बनर्जी ने आदिति फडणीस को बताया कि नई शिक्षा नीति स्कूली शिक्षा एवं सीखने के बीच की खाई को भरने का काम करेगी। संपादित अंश:
प्रथम ने स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर काफी अच्छा काम किया है। नई शिक्षा नीति गुणवत्ता के मामले से कैसे निपटेगी?
पिछले 15 वर्षों से प्रथम द्वारा जारी की जाने वाली सालाना शिक्षा संबंधी रिपोर्ट 'असर' बताती रही है कि भारत में स्कूल नामांकन का स्तर 95 प्रतिशत से अधिक है लेकिन कक्षाओं में छात्रों द्वारा अध्याय पढऩे एवं गणितीय गणनाएं करने का स्तर काफी कम और लगभग स्थिर बना हुआ है जो चिंता का कारण है। बच्चे अपने शैक्षणिक करियर में पीछे छूटने लगते हैं और कहा जाता है कि कॉलेजों में प्रवेश लेने वाले छात्र उस स्तर को पूरा नहीं कर पाते, जिसकी उनसे उम्मीद की जाती है।
हालांकि इसके कारणों पर लंबी चर्चा की जा सकती है लेकिन लैंट प्रीचेट जैसे अर्थशास्त्री सीखने के अंतराल को एक 'अति-महत्त्वाकांक्षी पाठ्यक्रम' के 'नकारात्मक परिणाम' के रूप में इंगित करते हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजित बनर्जी और एस्टर डुफ्लो का तर्क है कि एक भारतीय स्कूलों में, शिक्षण को 'कक्षा के शीर्ष' के तौर पर मापा जाता है, जिसके चलते बच्चे एक कक्षा से अगले स्तर तक पहुंचते पहुंचते पिछडऩे लगते हैं।
इसलिए, भारतीय शिक्षण प्रणाली में सालों की शिक्षा ग्रहण करने पर भी सीखने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती। नई शिक्षा नीति इस अहम समस्या का चौतरफा समाधान करती है।
नीति में शिक्षण सुधार के लिए कई बातों पर जोर दिया गया है लेकिन तीन अहम बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है। पहला, छात्रों को शुरुआती स्कूली शिक्षा के लिए तैयार करने हेतु प्रयास किए जाएंगे। नई शिक्षा नीति में कक्षा एक से पहले तीन साल की प्री-प्राइमरी शिक्षा की बात कही गई है। दूसरा, इसमें 3-8 वर्ष के छात्रों के लिए पढ़ाने के साथ साथ सीखने तथा संस्थागत समर्थन पर भी जोर दिया गया है। तीसरा, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक बच्चे को कक्षा 3 तक मूलभूत साक्षरता एवं गणितीय साधारण गणनाएं सीख लेनी चाहिए। इसमें कहा गया है, 'इस नीति के बाकी खंड तथी बेहतर तरीके से काम कर सकेंगे जब बुनियादी स्तर की सीखने की क्षमता हासिल होगी।'
नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि जहां तक संभव हो, कम से कम कक्षा 5 तक लेकिन साधारणतया कक्षा 8 तक या उससे आगे भी छात्रों को मिलने वाले निर्देश घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय भाषा में हों। सरकारी तथा निजी, दोनों तरह के स्कूलों को इसका पालन करना होगा। क्या यह व्यावहारिक है? शिक्षण पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?
दो पक्षों के बीच संवाद सबसे प्रभावी तब होता है जब दोनों पक्ष उसे समझते हैं और एक ही भाषा का उपयोग कर सकते हैं। दुनिया भर के अनुभवजन्य साक्ष्य इस तथ्य को पुष्ट करते हैं कि छोटे बच्चे उस भाषा में सबसे अच्छा सीखते हैं जिससे वे परिचित हैं। शोध बताते हैं कि पहली भाषा में प्रवीणता हासिल होने पर बच्चों के लिए दूसरी या तीसरी भाषा सीखना भी आसान हो जाता है। अगर स्कूल की भाषा तथा घर की भाषा एक जैसी है तो बच्चों के लिए स्कूल जाना और आसान हो जाता है।
संभ्रांत या शहरी स्कूलों के अलावा भारत के अधिकांश स्कूल, यहां तक कि खुद को 'अंग्रेजी माध्यम' का कहने वाले स्कूल भी वास्तव में बातचीत के लिए स्थानीय भाषा का उपयोग करते हैं। हिंदीभाषी क्षेत्र के कई स्कूलों में अक्सर आम बोलचाल वाली भाषा हिंदी नहीं होती है। उदाहरण के लिए, बिहार में, परिवार भोजपुरी या मैथिली जैसी भाषा बोलते हैं, और बच्चों को स्कूल में आते ही हिंदी सीखनी पड़ती है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित तीन भाषाई फॉर्मूले के साथ, घरेलू भाषा एवं स्थानीय भाषा में बातचीत एवं अध्ययन आसान होना चाहिए तथा बच्चों के लिए एक विषय के रूप में अंग्रेजी के उचित स्तर को विकसित करना चाहिए।
तीन वर्षीय प्री-स्कूल से बच्चों के विकास पर सकारात्मक असर पड़ सकता है लेकिन अगर दूसरी ओर देखें तो देश में सरकारी प्री-स्कूल नहीं होने से क्या माता-पिता को अब निजी क्षेत्र में प्री-स्कूल की तलाश करनी होगी?
व्यावहारिक रूप से हमारे देश में हर निवास स्थान पर, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों एवं गांवों में, एक आंगनवाड़ी है। भारत की आंगनवाड़ी प्रणाली दुनिया के सबसे बड़े शुरुआती बचपन संबंधी कार्यक्रमों में से एक है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के पास तीन प्रमुख जिम्मेदारियां हैं, स्वास्थ्य, पोषण एवं बचपन में बच्चों का विकास। कई कारणों के कारण, प्री-स्कूलिंग कार्यक्रमों को अक्सर कम प्राथमिकता मिलती है।
इसलिए अब तक, अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा की चाह रखने वाले माता-पिता के पास दो विकल्प थे। पहला विकल्प यह था कि लागत एवं दूरी के आधार पर अपने बच्चों को निजी प्री-स्कूलों में दाखिला दिलाया जाए। दूसरा आधाकारिक जन्मतिथि में बदलाव के साथ अपने बच्चों को दाखिला दिलाना। सुलभ एवं सस्ते अतिरिक्त विकल्प उपलब्ध करने के लिए, कुछ राज्यों में शिक्षा विभाग ने हाल ही में प्रायोगिक तौर पर प्राथमिक स्कूलों में प्री-प्राइमरी कक्षाएं शुरू की हैं।
वर्ष 2020 से स्कूलों में नई शिक्षा नीति की शुरुआत और नैशनल मिशन फॉर फाउंडेशनल लिटरेसी ऐंड न्यूमेरसी की घोषणा से कई अहम अवसर उपलब्ध होंगे तथा पुनर्निर्माण के इन अवसरों पर बच्चों का बाद का जीवन निर्भर करेगा। कोरोना के बाद दोबारा स्कूल खुलते ही उन्हें वापस स्कूल तक लाना तथा जैसे ही स्कूल फिर से खुलते हैं, हर बच्चे को स्कूल वापस लाने और हर बच्चे को सीखने की क्षमता सुनिश्चित करना राष्ट्रीय प्राथमिकता बन जानी चाहिए।
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