ढांचागत सुधार से ही होगा बेड़ा पार | राजेश कुमार / August 04, 2020 | | | | |
कोविड-19 महामारी के निरंतर बढ़ते मामलों और देश के कई राज्यों में स्थानीय स्तर पर लॉकडाउन लगाए जाने के कारण आर्थिक हालात में सुधार जोखिम में पड़ गया है। यदि आने वाले सप्ताहों और महीनों में यही रुझान बरकरार रहा तो देश की अर्थव्यवस्था का संकट और गंभीर हो जाएगा। उदाहरण के लिए रेटिंग एजेंसी इक्रा का कहना है कि चालू वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था 9.5 फीसदी तक सिकुड़ सकती है। जबकि पहले उसने 5 फीसदी की कमी का अनुमान जताया था। अन्य अनुमान लगाने वाले भी अपने-अपने पूर्वानुमानों में संशोधन कर रहे हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था अपनी गति खो रही है। आर्थिक गिरावट का थमना इस बात पर निर्भर होगा कि हम महामारी को थामने में कितनी जल्दी कामयाब होते हैं। बहरहाल केवल इतना भर होने से अर्थव्यवस्था मजबूती से वापसी नहीं कर सकेगी। कई ढांचागत मसले भी हैं जो स्थायी सुधार को नुकसान पहुंचा सकते हैं। बल्कि महामारी ने कुछ बुनियादी खामियों को उजागर भी किया है।
यह बात ध्यान देने लायक है कि अर्थव्यवस्था कोविड संकट के प्रभावी होने के पहले ही धीमी पडऩे लगी थी। ऐसे में स्थायी सुधार इस बात पर निर्भर करेगा कि पहले से चली आ रही समस्याओं को कैसे हल किया जाता है। इस आलेख में हम तीन व्यापक क्षेत्रों पर बात करेंगे। पहला है सरकार की वित्तीय स्थिति। इस वर्ष सरकार का बजट घाटा बहुत आसानी से दो अंकों में जा सकता है। माना जा रहा है कि इस वर्ष कुल कर्ज जीडीपी के 85 फीसदी के स्तर से ऊपर निकल जाएगा। यह सही है कि इस संकटपूर्ण वर्ष में बजट घाटे में विस्तार होना तय है लेकिन भारत के साथ दिक्कत यह है कि यहां सरकार की वित्तीय स्थिति भी काफी दबाव में है। भारतीय स्टेट बैंक की एक हालिया रिपोर्ट ने बताया कि वित्त वर्ष 2011-12 में सरकारी ऋण जहां जीडीपी के 67.4 फीसदी था वहीं सन 2019-20 में यह बढ़कर जीडीपी के 72.2 फीसदी हो गया।
चिंता की बात यह है कि कर्ज का यह बढ़ा हुआ स्तर भी सही तस्वीर पेश नहीं करता। केंद्र और राज्य दोनों सरकारें अपनी जवाबदेहियों को सरकारी उपक्रमों के खातों में डालती आई हैं। यह सिलसिला हमेशा नहीं चल सकता। सच तो यह है कि भारत ने कभी राजकोषीय अनुशासन का सही मायनों में पालन नहीं किया और यह बात अब नुकसान पहुंचा सकती है। उदाहरण के लिए चालू वर्ष मे केंद्र सरकार के बजट में उल्लिखित कुल कर संग्रह का 43 फीसदी ब्याज भुगतान के लिए अलग कर दिया गया। इसमें नाटकीय इजाफा होना तय है और यह सरकार की व्यय करने की क्षमता को आगे और प्रभावित करेगा। ऐसे में सरकार को अपने राजस्व का नए सिरे से आकलन करना होगा और मध्यम अवधि में व्यय की दिशा दोबारा तय करनी होगी। इस बीच व्यय में स्थायित्व और ऋण की रोकथाम के लिए उसे बड़ी तादाद में परिसंपत्तियों का मुद्रीकरण करना होगा। अतीत की परंपराओं को जारी रखना सरकार की अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमताओं को बुरी तरह प्रभावित करेगा।
दूसरी कमजोरी है हमारी कमजोर वित्तीय स्थिति। भारतीय रिजर्व बैंक की नवीनतम वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट यह दर्शाती है कि बैंकिंग क्षेत्र में फंसा हुआ कर्ज काफी बढ़ सकता है। खासतौर सरकारी बैंकों के फंसे हुए कर्ज में इजाफा हो सकता है। विपरीत परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया गया विश्लेषण बताता है कि मार्च 2021 तक सरकारी बैंको का फंसा हुआ कर्ज 15 फीसदी तक जा सकता है। बीती कुछ तिमाहियों में वृद्धि में धीमापन आने की एक बड़ी वजह वित्तीय तंत्र की कमजोरी, खासकर सरकारी बैंकों की कमजोरी भी रही है। निश्चित तौर पर पर पिछले वित्तीय संकट के बाद सरकारी बैंकों की फंसे हुए कर्ज की एकत्रित समस्या को कभी हल नहीं किया गया। सरकारी बैंकों की समस्या वास्तव में खराब राजकोषीय प्रबंधन का ही विस्तार है। चूंकि सरकार की प्राथमिकताएं हमेशा अलग रही हैं इसलिए वह सरकारी बैंकों में भी पर्याप्त पूंजी नहीं डाल सकी।
इसके अलावा सरकारी बैंकों और सरकारी वित्तीय संस्थानों को प्राय: राजकोष के विस्तार के रूप में ही देखा जाता है। बैंकों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए ऋण दें। इसका असर उनकी परिसंपत्ति गुणवत्ता पर पड़ता है। इस सिलसिले को बदलना होगा। सरकारी बैंकों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है और इसका लक्ष्य यह होना चाहिए कि बजट पर उनकी निर्भरता समाप्त की जाए। वित्तीय क्षेत्र की कमजोरी के लिए एक हद तक बैंकिंग नियामक भी उत्तरदायी है। समुचित निगरानी के अभाव में गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां नाकाम रहीं जिसके चलते जोखिम में काफी इजाफा हुआ। एक निजी बैंक को इसलिए उबारने की आवश्यकता पड़ी क्योंकि हस्तक्षेप में देरी हुई। एक मजबूत वित्तीय तंत्र के लिए बेहतर नियामकीय निगरानी आवश्यक है। ऐसा मजबूत तंत्र ही देश की वृद्धि संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकेगा।
आखिरी बात यह कि सामान्य नीतिगत माहौल पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। सरकार ने इस दिशा में काफी कुछ किया है। इससे कारोबारी सुगमता रैंकिंग में भी सुधार हुआ है लेकिन अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। सरकार के विभिन्न स्तरों पर महामारी से निपटने को लेकर जो निर्णय लिए गए वे भी बहुत अधिक मददगार नहीं साबित हुए। उदाहरण के लिए वायरस की रोकथाम के लिए क्या कुछ किया जाना चाहिए इसकी बेहतर समझ होने के बावजूद कई राज्यों में लॉकडाउन लगाया जाना अभी भी जारी है। इन लॉकडाउन का आर्थिक गतिविधियों पर असर पड़ रहा है। आर्थिक नीति के क्षेत्र में आयात को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। यह भी हमारी वृद्धि संभावनाओं को प्रभावित करेगा। यह वैश्विक मूल्य शृंखला में भारत के एकीकरण को भी प्रभावित करेगा। यह समझना जरूरी है कि चीन से बाहर जाने वाली कंपनियां अनिवार्य रूप से भारत का रुख करें यह आवश्यक नहीं है।
भारत को इसके लिए एक सक्षम माहौल बनाना होगा और राज्य सरकारों को इसमें अहम भूमिका निभानी होगी। अगर राज्य सरकारें मनमाने ढंग से अनुबंध रद्द करेंगी या निजी कंपनियों को निर्देशित करेंगी तो बात नहीं बनने वाली। इस संदर्भ में केंद्र सरकार अगर राज्यों के साथ मिलकर सुधारों को अंजाम दे और पश्चगामी कदम उठाने से बचे तो कहीं अधिक बेहतर होगा। वायरस को नियंत्रित करने के बाद स्थायी आर्थिक सुधार इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत ढांचागत कमियों को कितनी जल्दी दूर करता है।
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