बैंकों का पुनर्पूंजीकरण आज की अनिवार्यता | टी टी राम मोहन / July 27, 2020 | | | | |
यूं तो कई जगहों पर फिर से सीमित अवधि की बंदिशें लगानी पड़ी हैं लेकिन लॉकडाउन का सिलसिला खत्म होने की तरफ बढ़ चला है। ऐसे में कई लोगों को उम्मीद है कि आर्थिक क्षेत्र में नई गतिविधियां फिर से तेजी पकड़ेंगी। वहीं कई लोग रिकवरी के वी-आकार या यू-आकार में रहने की बात कर रहे हैं।
यहां पर हमें इस बात को लेकर स्पष्ट होने की जरूरत है कि रिकवरी से हमारा आशय क्या है? जब लोग रिकवरी का जिक्र करते हैं तो उनका मतलब उस समय के आउटपुट में आई शिथिलता की स्थिति दूर होने से होता है। अगर किसी वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 20 फीसदी की भारी गिरावट के बाद समूचे वर्ष के आउटपुट में पांच फीसदी की ही गिरावट दर्ज की जाती है तो यही माना जाएगा कि बाकी तीन तिमाहियों में आर्थिक गतिविधियों में तेजी आई है।
हालात बेहतर होने के किसी भी संकेत का स्वागत होना चाहिए। लेकिन हमें सटीक आर्थिक उद्देश्य से अपनी नजर नहीं हटानी चाहिए। कोविड-19 महामारी फैलने के पहले यह अनुमान जताया जा रहा था कि वर्ष 2020-21 में भारत की आर्थिक वृद्धि 6-6.5 फीसदी रहेगी। इस वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था के सात फीसदी की दर से बढऩे का अनुमान जताया गया था यानी यह फिर से दीर्घावधि वृद्धि पथ पर लौट आएगी। सही आर्थिक उद्देश्य का मतलब उस दिशा में बढऩे से है।
हमें इसकी स्पष्टता भी जरूरी है कि वहां तक पहुंचने के लिए किस चीज की जरूरत है। मार्च 2020 तक की लगातार आठ तिमाहियों में वृद्धि के ह्रासोन्मुख होने के पीछे के कई कारकों में से एक बेहद अहम है। यह दोहरी बैलेंस शीट की समस्या है जिसका ताल्लुक कॉर्पोरेट क्षेत्र के अधिक लाभ उठाने और बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के उच्च स्तर से है।
दोहरी बैलेंस शीट समस्या महामारी से कहीं अधिक बुरी स्थिति पैदा करने वाली है। विश्लेषकों का मानना है कि वित्त वर्ष 2020-21 में बैंकों के एनपीए में करीब पांच फीसदी की वृद्धि होने वाली है। कई क्षेत्रों में कंपनियों की बैलेंस शीट भी बिगड़ेगी। ऐसी स्थिति में हमने 2021-22 के लिए जिस आउटपुट स्तर को हासिल करने की उम्मीद लगाई थी, उसे शायद अगले दो वर्ष बाद ही हासिल किया जा सकेगा। हालांकि यह स्थिति भी यूं ही नहीं आ सकती है। हमें बैंकिंग क्षेत्र में इस संकट को दूर करने की जरूरत है। ऐसी स्थिति पैदा होने के लिए दो चीजें बेहद जरूरी हैं। पहली, बैंकिंग प्रणाली में नई पूंजी डालना यानी पुनर्पूंजीकरण और दूसरी, फंसे हुए कर्ज का निपटान।
निजी क्षेत्र के कई बैंक जोखिम-भारित परिसंपत्तियों के 10.875 फीसदी की न्यूनतम नियामकीय सीमा से काफी ऊपर हैं। फिर भी उन्होंने बड़े पैमाने पर पूंजी जुटाने की घोषणा की हुई हैं। इसकी वजह यह है कि इन निजी बैंकों को यह लगता है कि एनपीए बढऩे से उनकी पूंजी में कमी आएगी। इसके अलावा इन बैंकों को न्यूनतम पूंजी जरूरत से 4-5 फीसदी अधिक पूंजी अपने पास रखना ज्यादा मुफीद लगता है।
इस तरह का पूंजी आधिक्य देखकर बैंक के स्थायित्व को लेकर निवेशकों के मन में भरोसा पैदा होता है। जब कोई बैंक हल्के पूंजी आधिक्य के साथ कारोबार करता है तो कुछ कर्ज के भी एनपीए में बदलने पर उसकी पूंजी न्यूनतम सीमा से नीचे जा सकती है। प्रबंधन में अधिक ऋण बांटने या जोखिम भरे आवंटन का साहस कम होता है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को निजी बैंकों की तरह अधिक पूंजी समर्थन की जरूरत नहीं होती है क्योंकि निवेशकों को यह बात बखूबी मालूम होती है कि उनके पीछे सरकार खड़ी है। इसके बावजूद सार्वजनिक बैंक भी नियामकीय सीमा से नीचे रहते हुए अपना परिचालन नहीं कर सकते हैं। सार्वजनिक बैंकों का पूंजी पर्याप्तता अनुपात मार्च 2020 में 13 फीसदी था। इनकी न्यूनतम पूंजी आवश्यकता सितंबर 2020 तक बढ़कर 11.50 फीसदी हो जाने की आशंका है। ऐसे में सार्वजनिक बैंकों के पास 1.5 फीसदी पूंजी ही अधिक रह जाएगी जिसे आने वाले महीनों में एनपीए आसानी से हड़प कर सकता है। विश्लेषकों का अनुमान है कि वर्ष 2020-21 में सार्वजनिक बैंकों को नियामकीय शर्त पूरी करने के लिए कम-से-कम 50,000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी। अगर हम इस न्यूनतम स्तर से 2 फीसदी अधिक अंक के मार्जिन का इंतजाम कर पाते हैं तो अधिक पूंजी की जरूरत होगी। फिर भी सरकार द्वारा दो चरणों में घोषित राहत पैकजों में सार्वजनिक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण का कोई जिक्र नहीं है।
यह कहने से बात नहीं बनेगी कि सरकार के पास बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए फंड ही नहीं है। अगर सार्वजनिक ऋण का स्तर एक मसला है तो सरकार को उधारी जुटाने के बजाय इस घाटे के मौद्रिक इंतजाम करने चाहिए। कई लोग घाटे के मौद्र्रिक इंतजाम के एकदम खिलाफ होते हैं क्योंकि उन्हें पैसे आने से मुद्रास्फीति के प्रभावित होने का डर होता है। वे लोग इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक ने द्वितीयक बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद में काफी तेजी दिखाई है। मुद्रा आपूर्ति पर असर एकसमान ही होगा चाहे आरबीआई द्वितीयक बाजार में सरकारी प्रतिभूतियां खरीदे या फिर घाटे की पूर्ति के लिए प्राथमिक बाजार में खरीदे। अब समय आ गया है कि इस वर्जना से मुक्ति पाई जाए।
कर्ज निपटान भी काफी अहम है। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) प्रक्रिया को एक साल के लिए निलंबित कर दिया गया है। इस दौरान होने वाली भुगतान चूक से बैंक किस तरह निपटने वाले हैं? कर्ज के पुनर्गठन से बचने का कोई रास्ता नहीं है। पुनर्गठन का अक्सर यह मतलब होता है कि कर्ज के एक हिस्से को माफ कर दिया जाए। सार्वजनिक बैंकों के प्रबंधक कर्ज का पुनर्गठन करना नहीं चाहते हैं क्योंकि उन्हें यह वाजिब डर सताता है कि उन्हें आगे चलकर जांच एजेंसियों का इसका जवाब देना पड़ सकता है।
इंडियन बैंक एसोसिएशन ने फंसे कर्ज की देखभाल के लिए एक बैड बैंक या कर्ज पुनर्गठन कंपनी के गठन की संकल्पना पेश की है। लेकिन भारत में संकटग्रस्त कंपनियों में नई जान फूंकने के मामले में परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों का प्रदर्शन खराब ही रहा है। उनमें परिसंपत्तियों की बिक्री का रुझान देखा जाता है। लेकिन अर्थव्यवस्था को इसकी जरूरत नहीं है। हम परिसंपत्तियों का परिरक्षण और उन्हें उत्पादक स्थिति में देखना चाहते हैं।
बैंक यह काम करने के एकदम मुफीद हैं। लेकिन बैंकरों को इस काम के लिए तभी प्रेरित किया जा सकता है जब उन्हें भरोसा हो जाए कि बाद में उन्हें परेशान नहीं किया जाएगा। एक वैधानिक प्राधिकरण का गठन इसका जवाब हो सकता है जो बड़े कर्ज के पुनर्गठन के लिए कई पैनल बनाएगा।
यह बहुत बुरा है कि सरकार ने बैंकों का पुनर्पूंजीकरण एवं उनके प्रबंधन को सशक्त नहीं बनाया है। सबसे बड़ी बात, कमजोर बैंकों के निजीकरण की चर्चा लगातार हो रही है। सार्वजनिक बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करने या इनके निजीकरण के लिए बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन की जरूरत होगी। वह एक विवादित एवं लंबी प्रक्रिया होगी।
अंतरिम रूप से इसकी मार बैंकों के कर्ज आवंटन पर पड़ेगी। फिलहाल सरकार को सरकारी स्वामित्व वाले ढांचे के भीतर ही सुधारों पर जोर देना होगा। वह सार्वजनिक बैंकों में नई पूंजी डालने के साथ ही उनके प्रबंधन एवं कामकाज को दुरुस्त कर सकती है। बाकी सब तो महंगा मनबहलाव है।
(लेखक भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद में प्रोफेसर हैं)
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