आप नरेंद्र मोदी सरकार पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि उसमेंं महत्त्वाकांक्षा की कमी है। अपनी क्षमताओं पर पूरे यकीन के साथ उसने सन 2014 में दो अंकों की आर्थिक वृद्धि और व्यापक परिवर्तन लाने का लक्ष्य तय किया था। तब से अब तक कई अवसरों पर उसने यह दावा किया है कि अपेक्षाकृत कम समय में उसने जो कुछ किया है, उतना पिछली सरकारें 60 साल में नहीं कर पाईं। ऐसे दावे हमेशा सवालों के घेरे में रहते हैं। खासतौर पर इसलिए क्योंकि कोई भी सरकार पिछली सरकार के कामकाज को ही आगे बढ़ाती है। बहरहाल, देश को आर्थिक रूप से आगे बढ़ाना, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं तक लोगों की पहुंच सुधारकर कम से कम एक तरह की असमानता को दूर करना और देश के अंतरराष्ट्रीय कद में सुधार करना इस सरकार के बुनियादी एजेंडे में शामिल रहा है। तो शिकायत की क्या बात है? दरअसल इस सरकार के डीएनए मेंं कुछ तत्त्व ऐसे हैं जो इन लक्ष्यों को हासिल करने की राह में आड़े आते हैं। पहली बात, इसे अपनी नाकामी अथवा दूसरों द्वारा इसकी नाकामी की ओर इशारा किया जाना पसंद नहीं। जब भी कुछ अप्रत्याशित होता है तब यह खामोश हो जाती है (कोविड-19 के बढ़ते मामलोंं के बीच इसकी खामोशी से इसे समझा जा सकता है), यह आंकड़ों से छेड़छाड़ करती है (उदाहरण के लिए जीडीपी) या फिर यह खुद को राष्ट्र ध्वज में लपेट कर आलोचकों को देशद्रोही या धोखेबाज कहने लगती है। कई बार तो मीडिया की मदद से इसने अपनी नाकामियों तक को सफलता के रूप में दिखाने का प्रयास किया है। ऐसा रुख समस्या पैदा करता है क्योंकि उच्च पदों पर आसीन लोग प्राय: अपनी ही दुनिया में रहते हैं और उन्हें आसपास की कोई खबर नहीं होती। जो लोग इन शीर्ष नेताओं के आसपास रहते हैं वे भी उनसे कटु सत्य नहीं बोल पाते। तमाम वजहों से विपक्ष अपना काम नहीं कर पाता या कहें वह इसे प्रभावी ढंग से नहीं कर पाता। विशेषज्ञों की राय ली जा सकती है लेकिन इन आत्मग्रस्त स्वेच्छाचारी लोगों को लगता है कि ये बेहतर जानते हैं। यदि मीडिया की आलोचना को दबा दिया जाए तो हकीकत से दो चार होने का एक बड़ा अवसर समाप्त हो जाता है। हालांकि मोदी इतने चतुर हैं कि अपने ही प्रोपगंडा में नहीं उलझेंगे लेकिन सकारात्मक परिवर्तनकारी बदलाव को लेकर आधिकारिक बात लगातार अपुष्ट रही है। सरकार को अपने लिए इसमें सुधार लाना चाहिए। सरकार ने कई सही काम किए हैं लेकिन उसने गंभीर गलतियां भी की हैं जिनसे देश कमजोर हुआ है। नोटबंदी इसका सटीक उदाहरण है। विशेषज्ञों ने उसके खिलाफ मशविरा दिया था। वस्तु एवं सेवा कर को अपूर्ण ढंग से ही लागू किया गया और उसका नतीजा राजस्व में कमी के रूप में सामने आया, 24 मार्च को लगे नाटकीय लॉकडाउन के कारण जो मानवीय परेशानियां खड़ी हुईं उनसे बचा जा सकता था। यदि मोदी से चार महीने पहले सफलता को परिभाषित करने को कहा जाता तो इसमें संदेह ही है कि वे रोज नए मामलों में दुनिया में दूसरे स्थान पर होने को वे सफलता बताते। कुछ अन्य गलतियां भी हुईं: सरकारी बैंकों में भारी पूंजी निवेश के बावजूद उनकी समस्याओं का समाप्त न होना, एयर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियों पर भी यही बात लागू है, रेलवे पर किए गए व्यापक निवेश से कोई खास प्रतिफल न मिलना, विनिर्माण को बढ़ावा देने की दिशा में कोई खास प्रगति न होना, इन चूकों का राजकोष पर असर और रक्षा क्षेत्र की अनदेखी। आशा के अनुरूप ही इन विफलताओं की भरपाई के लिए सफलताएं भी हैं। परंतु चिंता की बात है कि समय के साथ मोदी सरकार का रिकॉर्ड खराब हुआ है और नाकामियों का असर बढ़ रहा है। इससे भी मदद नहीं मिलती कि मोदी के शक्ति संचय के तरीके एक मजबूत सुशासित देश के निर्माण के घोषित लक्ष्यों से एकदम विपरीत काम करते हैं। स्वायत्त संस्थानों का क्षरण, सरकार की अभियोजन शक्तियोंं का पक्षपात पूर्ण प्रयोग और संशोधित नागरिकता कानून जैसे कदमों से विभाजनकारी भावनाओं को बढ़ावा देना इसके उदाहरण हैं। जब चीन ने सैन्य अतिक्रमण किया तो सरकार की आधिकारिक स्थिति की पोल खुल गई। सरकार को सीमा से जुड़े मसलों का सच छिपाने और तथ्यों में हेरफेर करने के बजाय चुनौती को खुलकर स्वीकार करना चाहिए, व्यक्ति आधारित कूटनीति की कमियों को स्वीकार करना चाहिए और रक्षा क्षेत्र की अनदेखी दूर करनी चाहिए, पिछले तीन वर्ष के आर्थिक पराभव की स्थिति को बदलने का प्रयास करना चाहिए और राष्ट्रीय एकता का निर्माण करना चाहिए। जैसा कि किसी ने कहा भी है, केवल मजबूत सरकार काफी नहीं है, एक मजबूत देश भी होना चाहिए। उसके लिए मोदी सरकार को अपने रवैये पर पुनर्विचार करना होगा और अलग तरह से काम करना होगा।
