सरकार का छोटा आकार कब तक रहेगा बरकरार? | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / July 22, 2020 | | | | |
प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरी पारी में नरेंद्र मोदी अपनी मंत्रिपरिषद में बदलाव या विस्तार को लेकर थोड़े संयमित रहे हैं। इसकी वजह शायद यह हो सकती है कि मार्च से ही वह कोविड-19 महामारी से निपटने में लगे हुए हैं। लेकिन तथ्य तो यही है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में 14 महीने बीतने के बाद भी मंत्रिपरिषद में कोई बड़ा बदलाव या विस्तार नहीं हुआ है।
जब वह पहली बार मई 2014 में सत्ता में आए थे तो उनकी मंत्रिपरिषद में 23 कैबिनेट एवं 22 राज्य मंत्रियों समेत 45 मंत्रियों की अपेक्षाकृत छोटी मंत्रिपरिषद ही थी। लेकिन नवंबर 2014 में मोदी ने 21 नए मंत्रियों को अपनी सरकार में शामिल किया और मंत्रिपरिषद की संख्या बढ़कर 66 हो गई थी। उसके 20 महीने बाद जुलाई 2016 में दर्जन भर और मंत्रियों को शपथ दिलाई गई और मंत्रिपरिषद का आकार 70 के ऊपर चला गया। इसके उलट दूसरे कार्यकाल में मोदी ने 57 मंत्रियों के साथ मई 2019 के आखिर में शपथ ली थी।
उस समय यही उम्मीद की गई थी कि जल्द ही मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाएगा। लेकिन अभी तक न तो मंत्रियों के विभागों में बदलाव किया गया है और न ही नए मंत्रियों को शामिल किया गया है। हालांकि नवंबर 2019 में एक बदलाव हुआ था।
अरविंद सावंत ने अपनी पार्टी शिवसेना के सत्तारूढ़ गठबंधन से अलग हो जाने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद मोदी की मंत्रिपरिषद की संख्या घटकर 56 हो गई थी। सावंत के पास भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उपक्रमों का दायित्व था जिन्हें उनके इस्तीफे के बाद प्रकाश जावडेकर को सौंप दिया गया। जावडेकर के पास पहले से ही सूचना एवं प्रसारण और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन जैसे दो मंत्रालयों का जिम्मा था।
केंद्र सरकार में 52 मंत्रालय एवं दो विभाग हैं। अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के ये विभाग सीधे प्रधानमंत्री के मातहत काम करते हैं। मोदी के पास कार्मिक, जन शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय का प्रभार भी है। इस तरह उनकी मंत्रिपरिषद में शामिल मंत्रियों के बीच इन 51 मंत्रालयों की देखरेख का जिम्मा है। लेकिन मोदी के दूसरे कार्यकाल में केवल 23 कैबिनेट मंत्री और सात स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री ही हैं। बाकी 24 राज्य मंत्रियों के पास कोई स्वतंत्र प्रभार नहीं है।
इस सरकार की एक अनोखी बात यह है कि पांच मंत्रियों के पास तीन-तीन मंत्रालयों के प्रभार हैं। वहीं पांच ऐसे मंत्री हैं जो दो-दो मंत्रालय संभाल रहे हैं। इस सरकार में केवल 13 मंत्री ही ऐसे हैं जिनके पास केवल एक मंत्रालय है। स्वतंत्र प्रभार वाले नौ राज्य मंत्रियों में से चार के पास दो-दो मंत्रालय हैं जबकि बाकी पांच राज्यमंत्री एक-एक मंत्रालय देख रहे हैं।
अगर मोदी सरकार पिछले 14 महीनों में कम मंत्रियों से ही काम चला सकती है तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि मंत्रिपरिषद में आगे चलकर भी विस्तार करने की जरूरत क्या है? आखिर सरकार में कम मंत्री होने से शासन पर तो वास्तव में कोई असर पड़ा नहीं है। न्यूनतम सरकार के जरिये अधिकतम शासन का बहु-प्रचारित लक्ष्य कम-से-कम प्रशासन के शीर्ष स्तर पर तो हासिल कर लिया गया लगता है, आखिर 14 कैबिनेट मंत्रियों के ही पास करीब 63 फीसदी मंत्रालयों का दायित्व है।
आलोचक मंत्रियों की छोटी संख्या में ही सत्ता का संकेद्रण होने को लेकर चिंता जता सकते हैं लेकिन वह एक अलग विमर्श का मुद्दा है। यहां से आगे का कदम यह होना चाहिए कि इन मंत्रालयों का विलय या पुनर्गठन कर ऐसा ढांचा बनाया जाए कि इन मंत्रियों द्वारा संभाले जा रहे अलग-अलग मंत्रालयों के बीच सामंजस्य एवं सह-संबंध सुनिश्चित किया जा सके। मसलन, इसकी कोई वजह नहीं है कि एक मंत्रालय के तौर पर स्टील को कोई संभाले और कोयला एवं खान मंत्रालय का जिम्मा किसी और के पास हो। इसी तरह, वाणिज्य एवं उद्योग, भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्यम और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालयों को संभालने के लिए तीन अलग मंत्री क्यों होने चाहिए?
सरकार के लिए एक तर्कसंगत अगला कदम यही होगा कि मंत्रिपरिषद के आकार को मौजूदा स्तर पर ही बनाए रखे क्योंकि अधिक मंत्रियों वाली सरकारों की तुलना में शासन कोई बुरा नहीं रहा है। इसके साथ ही सरकार को मंत्रालयों का पुनर्गठन कर उन्हें इस तरह आवंटित करना चाहिए कि इस पहल से संबंधित कार्यों वाले मंत्रालयों के बीच अधिक सामंजस्य एवं सह-संबंध स्थापित किए जा सकें।
हालांकि ऐसा होने के आसार कम ही हैं। कई वर्षों तक मंत्रालय बनाने का ताल्लुक केवल शासन से नहीं बल्कि राजनीतिक प्रबंधन से रहा है। शासन से अधिक महत्त्वपूर्ण यह रहा है कि अलग-अलग राज्यों को मंत्रिपरिषद में समुचित प्रतिनिधित्व कैसे मिले, एक गठबंधन के सहयोगी दलों को किस तरह सरकार में समायोजित किया जाए और मंत्रिपरिषद में विभिन्न जातियों एवं समुदायों की मौजूदगी को सुनिश्चित किया जाए।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल दलों की तरफ से अपने सांसदों को मंत्री बनाने के लिए डाले जाने वाले दबाव को नकारना उतना मुश्किल नहीं होगा। सत्तारूढ़ गठबंधन में करीब 30 छोटे-बड़े दल हैं लेकिन उनमें से किसी भी दल का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर खास प्रभाव नहीं है। इसकी वजह यह है कि गठबंधन के मुख्य घटक भाजपा को अकेले ही बहुमत हासिल है।
ऐसी स्थिति में मंत्रिमंडल विस्तार का अधिक दबाव उन राज्यों से आएगा जहां पर भाजपा विधायकों की निष्ठा में हुए बदलाव का फायदा उठाते हुए कांग्रेस को अपदस्थ कर सत्ता में आई है। हो सकता है कि एक और राज्य में ऐसा हो जाए। संक्षेप में कहें तो मोदी सरकार आने वाले समय में अपने मंत्रिपरिषद का आकार उसी तरह सीमित नहीं रह पाएगी जैसा वह पिछले 14 महीनों से करती आई है।
|