केंद्र सरकार ने पहली बार विवादास्पद खरपतवारनाशी ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल को नियंत्रित करने को लेकर कोई सक्रियता दिखाई है। सरकार ने इसको प्रतिबंधित करते हुए इसका इस्तेमाल केवल कीट नियंत्रण परिचालकों के जरिये किए जाने का प्रस्ताव रखा है। इसका मतलब है कि देश में कृषि रसायन के तौर पर सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले इस खरपतवारनाशी का इस्तेमाल अब किसी और के द्वारा नहीं किया जा सकेगा। भले ही मसौदा आधिकारिक आदेश में स्पष्ट तौर पर इसका जिक्र नहीं किया गया है लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार के इस कदम का उद्देश्य किसानों द्वारा धड़ल्ले से इसके इस्तेमाल पर रोक लगाना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की शोध शाखा की ओर से किए गए एक अध्ययन में ग्लाइफोसेट को संभवत: कैंसरकारक पाया गया था। प्रस्तावित आदेश को लागू करने के लिए, रसायन के विनिर्माण या बिक्री के लिए कंपनियों के पास जो पंजीकरण के प्रमाणपत्र हैं उसे पंजीयन समिति को लौटाना होगा। मसौदा आदेश पर प्रतिक्रिया 30 दिनों के भीतर दी जा सकती है। इससे पहले पांच राज्यों- केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और पंजाब ने पिछले कुछ वर्षों से ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा रखा है। इसके अलावा दुनिया भर के भी कई देशों में ग्लाइफोसेट पर प्रतिबंध रहा है। विवाद क्या है? दुनिया भर में करीब 1970 में ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल शुरू हुआ लेकिन भारत में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल इसके एक दशक बाद 1980 के आसपास शुरू हुआ। कुछ ही वर्षों में इस कृषि रसायन का इस्तेमाल सबसे अधिक उपयोग में आने वाले खरपतवारनाशी के तौर पर होने लगा और इसके फॉर्मुलेशन का इस्तेमाल फसली क्षेत्रों और गैर फसली क्षेत्रों दोनों में ही होता है। फसली क्षेत्र में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल चाय बागानों में होता है। ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल गैर-फसली क्षेत्रों में भी खरपतवार की अवांछित वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। गैर फसली क्षेत्र में इसके इस्तेमाल की बात करें तो सिंचाई चैनलों, रेल पटरियों के किनारे, परती भूमि, बांधों, खेत के मेढ़ों, पार्कों, औद्योगिक और सैन्य परिसरों, हवाईअड्डों और विद्युत स्टेशनों सहित विभिन्न जगहों पर होता है। बड़े पैमाने पर ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल की एक बड़ी वजह इसकी कम कीमत है। व्यापार से जुड़े सूत्रों का कहना है कि 250 रुपये में औसतन 500 लीटर ग्लाइफोसेट या उसका फॉर्मुलेशन मिल जाता है। जबकि इसी तरह की दूसरी अन्य खरपतवारनाशी अधिक महंगी हैं। एचटी बीटी कपास भले ही कई दशकों से इसका इस्तेमाल हो रहा है लेकिन भारत में एचटी बीटी कपास की अवैध खेती शुरू होने से ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल में कई गुना का इजाफा हुआ है। भारत में एचटी बीटी कपास की बिक्री और उत्पादन की अनुमति नहीं है। हालांकि, सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में अवैध रूप से पिछले कुछ वर्षों से इसका उत्पादन हो रहा है। एचटी बीटी कपास में ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल पौधे को बिना नुकसान पहुंचाए खरपतवार को नष्ट करने के लिए किया जाता है। कार्यकर्ताओं का तर्क है कि ग्लाइफोसेट की बिक्री रोकने से एचटी बीटी कपास के प्रसार पर स्वाभाविक तौर पर रोक लग जाएगी। कैंसरकारक 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की इंटरनैशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर ने एक अध्ययन प्रकाशित किया था। इसमें पाया गया था कि ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल मानव के लिए संभवत: कैंसरकारक है। इसी के आधार पर ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल की सबसे बड़ी आलोचना होती है। भारत में खुदरा दुकानों के माध्यम से कृषि रसायन की बिक्री शुरू हो जाने पर यह पता लगाने का शायद हो कोई तंत्र है कि खरीदार इसका कैसे और किस उद्देश्य से इस्तेमाल करेगा। ऐसी परिस्थिति में यह सुनिश्चित करना लगभग नामुमकिन है कि क्या किसान रसायन के छिड़काव के लिए कीट नियंत्रक परिचालक की सहायता लेगा या नहीं। उद्योगों को नाखुशी कृषि रसायन उद्योग के एक समूह ने आरोप लगाया है कि मसौदा आदेश को कुछ घरेलू कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए तैयार किया गया है जिनके पास ग्लाइफोसेट से मिलता जुलता उत्पाद है लेकिन महंगा होने के कारण उनकी बिक्री घरेलू स्तर पर नहीं होती है। एग्रो-केमिकल्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसीएफआई) के महानिदेशक कल्याण गोस्वामी को लगता है कि मसौदा अधिसूचना को जल्दबाजी में तैयार किया गया है जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उनका कहना है कि मसौदा आदेश के कारण छोटे किसानों को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
