भारतीय सेना को मिले अपनी क्षमता दिखाने का अवसर | दोधारी तलवार | | अजय शुक्ला / July 19, 2020 | | | | |
लद्दाख के हालात को परिभाषित करना हो तो उसे 'खराब स्थिरता' कहा जा सकता है। लड़ाई भले ही नहीं हो रही लेकिन कई जगहों पर भारत और चीन के सैनिक आमने-सामने हैं। हालांकि तीन जगहों पर दोनों सेनाएं पीछे भी हटी हैं। लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा दोबारा खींची गई है और चीन को लाभ मिला है। सन 1962 की जंग के बाद यह पहला मौका नहीं है जब हमने जमीन गंवाई है। चीन छिटपुट कब्जे करता रहा है। कभी सैनिकों को तंग करके तो कभी लद्दाखी चरवाहों को पश्मीना भेड़ों को पारंपरिक मैदानों में चराने से रोककर उसने अच्छी खासी जमीन हथिया ली है। डेमचोक और डुंगती के बीच की जमीन इसका उदाहरण है जो कभी भारतीय थी लेकिन अब स्थानीय लोग और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के जवान भी वहां नहीं जा पाते। डेपसांग, गलवान, हॉट स्प्रिंग और पैंगोंग सो को मिला दें तो सन 1962 के बाद सबसे अधिक जमीन इस बार गंवानी पड़ी है।
भारतीय सेना ने जवानों की तादाद बढ़ाकर चीन को और आगे बढऩे से रोका है। अब अगर हम सैन्य कार्रवाई करके चीनियोंं को पीछे नहीं धकेलते तो हमारी जमीन हमेशा के लिए छिन जाएगी। लद्दाख भारतीय सेना के लिए हमेशा संवेदनशील इलाका रहा है। इस इलाके में चीन और पाकिस्तान मिलकर काम कर सकते हैं। सन 1999 मेंं पाकिस्तानी घुसपैठियों ने करगिल में भारत को इसलिए चौंका दिया क्योंकि सेना का ध्यान कश्मीरी उपद्रवियोंं पर था, बजाय कि करगिल में अपेक्षाकृत शांत नियंत्रण रेखा के। उन दिनों श्रीनगर में मुख्यालय वाली 15 कोर घाटी और लद्दाख दोनों का ध्यान रखती थी। पाकिस्तानी घुसपैठियों को निकालने के बाद लद्दाख को लेह में मुख्यालय वाली 14 कोर के अधीन किया गया लेकिन उसकी जिम्मेदारियां भी बांट दी गईं। यह सेना की इकलौती कोर है जो चीन और पाकिस्तान दोनों सीमाओं पर नजर रखती है। सियाचिन भी इसी के हवाले है। इसके बावजूद इसे जरूरत पडऩे पर और फौजी सहायता शायद ही मिले क्योंकि उत्तरी कमान का आरक्षित बल प्राय: उपद्रवियोंं से निपटने में लगा रहता है।
पूर्वी कमान ज्यादा बेहतर है। अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में चीन सीमा की रक्षा करने वाली इसकी तीनों कोर के पास 15,000 सैनिकों की आरक्षित टुकड़ी है जिसे जरूरत पडऩे पर बुलाया जा सकता है। पूर्व में ऑपरेशन के लिए माउंटेन स्ट्राइक कोर उपलब्ध है। यानी पूर्व में चीन को दूर रखने के लिए पर्याप्त सैन्य बल है।
विडंबना ही है कि लद्दाख और अक्साई चिन में भारत और चीन दोनोंं संवेदनशील हैं। पीएलए का प्रमुख लक्ष्य है शिनच्यांग-तिब्बत राजमार्ग जी219 की रक्षा करना जो अक्साई चिन से गुजरता है। चीन शिनच्यांग के इस्लामिक अलगाववादियों और तिब्बत के विद्रोहियों से भी घबराता है। ये दोनों लद्दाख से करीब हैं। लद्दाख में भारतीय सेना के योजनाकारों को डर है कि चीन एलएसी के निकट सेना की संचार व्यवस्था को निशाना बना सकता है। यदि श्योक नदी घाटी के करीब चीन और पाकिस्तान ने एक साथ हमला कर दिया तो यकीनन चिंता की बात होगी। यह इलाका सियाचिन क्षेत्र और नुब्रा घाटी तकथा दौलत बेग ओल्डी को पूरी तरह काट सकता है।
पीएलए के हालिया अतिक्रमण दौरान सेना शिथिल पाई गई है। उन्होंने उस समय ऐसा किया जब भारतीय सैनिक कम थे और जाड़ों के अंत में संसाधन भी सीमित थे। अब जबकि पूरा ध्यान इस कमी को पूरा करने मेंं होना चाहिए, योजनाकार चीन के मुकाबले सैनिक बढ़ाने में लगे हुए हैं। भारत ने पहले अतिक्रमण से इनकार किया और अब कह रहा है कि चीन पीछे हटा है। इससे यही संदेश गया है कि भारत को धमकाया जा सकता है। भारत राजनेताओं की छवि बेहतर दिखाने के लिए चिंतित है। ऐसे में चीन यह मान सकता है कि भविष्य में भी ऐसे अतिक्रमण पर भारत का रुख नकारने का ही रहेगा। भारत के साझेदार देशों के लिए और खतरनाक संदेश है। सरकार चीन के अतिक्रमण को लेकर जो कह रही है उससे भारतीय जनता मूर्ख बन सकती है लेकिन तकनीकी निगरानी उपकरण मसलन हाई रिजॉल्युशन सैटेलाइट इमेजरी, टाइम सीरीज फोटोग्राफी आदि सब देख रहे हैं। ऐसे में भारत के मित्र देश खामोश रहने के लिए भारत से कीमत वसूलेंगे।
भारत ने अब तक चीन की संवेदनशीलता को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी है। मामला चाहे तिब्बत का हो, शिनच्यांग का, ताइवान, हॉन्गकॉन्ग और दक्षिण चीन सागर का या आर्थिक जगत का। परंतु चीन इससे भी संतुष्ट नहीं है। भारत के पास अब दो ही विकल्प हैं वह या तो चीन के मातहत हो जाए या अपनी संप्रभुता की रक्षा करे। चीन भारत से अधिक संपन्न और ताकतवर है। ऐसे में सैन्य मुकाबले की भारी कीमत चुकानी होगी। परंतु भारत-पाकिस्तान के मामले में भी यही दलील लागू होती है। हम सभी जानते हैं कि हजारों भारतीय सैनिकों के पाकिस्तानी सीमा में घुसने पर पाकिस्तान क्या करेगा। संप्रभुता की कीमत चुकानी होती है। राजनीतिक स्तर पर भी राष्ट्रवादी छवि वाले प्रधानमंत्री के लिए क्षेत्रीय अतिक्रमण के समक्ष समर्पण का जवाब देना मुश्किल होगा।
सेना के पास स्थानीय आक्रामकताओं से निपटने की कई योजनाएं हैं और वह समुद्र समेत कई अहम इलाकोंं में चीन को रोकने में सक्षम है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भी हमारे मित्रों की कमी नहीं। खासकर चीन के खिलाफ। भारत एक परमाणु शक्ति है और उसके पास ऐसी मिसाइल और अन्य हथियार हैं जो चीन के खिलाफ तगड़ा प्रतिरोध उत्पन्न करते हैं। सरकार को केवल राजनीतिक और सामरिक लक्ष्य तय करना है और सैन्य योजनाकारों को खुली छूट देनी है। भारतीय सेना को अक्सर कम करके आंका जाता है और हथियारों की कमी की बात बढ़ाचढ़ाकर कही जाती है। जबकि हमारी सेना आपात स्थिति के प्रबंधन में पूरी तरह सक्षम है। तीनों सेनाओं को अपनी क्षमता साबित करने की छूट दी जानी चाहिए।
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