कूटनीति के स्तर पर जागने का वक्त | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / July 19, 2020 | | | | |
आइए सबसे पहले उन सकारात्मक बातों की गिनती कर लें जो मोदी सरकार के कार्यकाल मेंं सामरिक और विदेश नीति केे क्षेत्र में घटी हैं। अमेरिका के साथ रिश्ता इस सूची मेंं शीर्ष पर है। चीन की बढ़ती दुष्टता के बीच अमेरिका इकलौता ऐसा देश है जिसने खुलकर भारत के पक्ष में बात की। इतना ही नहीं इस बार उसकी बातचीत में लेनदेन की भावना भी नहीं नजर आई। देश के रणनीतिक इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है। कम से कम तीन दशक पहले शीतयुद्ध समाप्त होने के बाद से ऐसा नहीं हुआ था।
बात केवल इतनी नहीं है कि दोनों देश चीन को नापसंद करते हैं। उड़ी में सर्जिकल स्ट्राइक से शुरुआत करें तो पुलवामा, बालाकोट, अनुच्छेद 370 में बदलाव और अब लद्दाख तक अमेरिका ने हमें बिना शर्त समर्थन दिया है। इसके अलावा क्षेत्रीय सहयोगियों की बात करें तो हिंद-प्रशांत में जापान और ऑस्ट्रेलिया हमारे साथ हैं। चीन की चुनौती उन्हें हमारे साथ जोड़ती है।
इसी तरह अरब देश निष्पक्ष बने रहे हैं जबकि अतीत में वे पाकिस्तान की ओर झुक जाते थे। सऊदी अरब और यूएई इसका उदाहरण हैं। इस बीच इजरायल और उत्पादक हुआ है। तुर्की और कतर में जरूर समस्या है लेकिन वह हमेशा से थी। दोनों देश मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ और भारत के खिलाफ हैं। हां, कतर तुर्की की तुलना में थोड़ा नफासत से पेश आता है। ईरान के साथ रिश्ते सुधरे हैं या बिगड़े हैं? बीते कुछ दिनों की सुर्खियां बताती हैं कि रिश्ते बिगड़ रहे हैं। परंतु चीन और रूस की तरह भारत इतना मजबूत नहीं था कि अमेरिकी प्रतिबंधों का जोखिम उठा पाता। न भारत के पास विकल्प था, ईरान के पास। ईरान को लेकर समझदारी बरतना बेहतर है।
बीते कई वर्षों में जहां अरब के देश कश्मीर और सांप्रदायिकता समेत भारत के आंतरिक मसलों से दूर रहे हैं वहीं ईरान ने हस्तक्षेप किया है। आप कह सकते हैं कि अब तक जो हुआ ठीक हुआ लेकिन यहीं पर बुरी खबरों की शुरुआत होती है। जो सही नहीं हुआ है उसका संबंध भी उन बातों से है जो सही हुईं। मसलन अमेरिका के साथ रिश्ता। कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति और सीएए/एनआरसी विवाद को लेकर कांग्रेस मेंं चर्चा के दौरान भले ही अमेरिकी प्रशासन ने भारत का बचाव किया हो लेकिन कुल मिलाकर मामला छोटीमोटी सौदेबाजी जैसा ही रहा है, बड़ा आकार नहीं ले सका है। कारण यह कि मोदी सरकार ऐतिहासिक पूर्वग्रहों के कारण हिचकती रही है। भारत के साथ सामरिक स्वायत्तता का मसला भी है। लेनदेन के स्तर पर मोदी की ट्रंप के साथ एक मामूली कारोबारी समझौते तक पर हस्ताक्षर करने की अनिच्छा इसी बात की ओर इशारा करती है। मोदी ह्यूस्टन गए और उन्होंने खुशी-खुशी 'अबकी बार-ट्रंप सरकार' का नारा लगाकर ट्रंप के पुनर्निर्वाचन का समर्थन किया। परंतु कारोबारी सौदे के मामले में वे जरा भी आगे नहीं बढ़े। जबकि इस विषय में तमाम प्रतिबद्धता, वादे और झूठी आशाएं बंधाई गईं।
कोरोनावायरस के शुरुआती दौर में ट्रंप भारत आए। मकसद यकीनन चुनावी था। मोदी सरकार की भ्रामक विचारधारा और वैश्विक व्यापार को लेकर उसके बेबुनियाद डर ने देश के रणनीतिक हित को प्रभावित किया है। आपसी रिश्तों में इस कमी से सैन्य संबंध भी अछूते नहीं रहे। छह वर्ष में भारत ने अमेरिका से छिटपुट खरीदारी की। कोई बड़ी खरीद, साथ मिलकर कोई नया उत्पाद विकसित करना या उत्पादन शुरू नहीं हुआ। यह बात अलग है कि जब चीन ने लद्दाख में घुसपैठ की तो हम सी-17, सी-130, अपाचे, चिनूक और एम777 तोप के भरोसे रहे। ये सारी चीजें अमेरिका से खुदरा खरीद में ली गई हैं। यदि मोदी सरकार थोड़ा आगे का सोचती तो इस दिशा में बड़ा सौदा हो सकता था। हमने अब तक रूस का जिक्र नहीं किया। दरअसल जब चीन ने लद्दाख में हरकत की तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सबसे पहले रूस पहुंचे। सुखोई-30 और मिग-29 के रूप में दो शुरुआती आपातकालीन ऑर्डर भी रूस को दिए गए। ध्यान रहे यह खरीद भी छिटपुट थी। यानी शीतयुद्ध समाप्त होने के 31 वर्ष बाद, 25 वर्ष की तेज आर्थिक वृद्धि और मोदी सरकार के छह साल के कार्यकाल के बाद भी रूस पर हमारी सैन्य निर्भरता समाप्त नहीं हुई है।
यह नाकामी है। खासतौर पर ऐसे समय जबकि रूस चीन का वफादार साथी बनकर उभरा है। भारत की निर्भरता और संवेदनशीलता तथा विकल्पों और संसाधनों की कमी को देखते हुए वह जानता है कि वह हमें परेशान करता रह सकता है। उसने चीन को एस-400 मिसाइल सिस्टम दिया और बाद में उसे भारत को बेच दिया। वह तुर्की को भी यह दे सकता है। वह अपने और चीन के अलावा किसी का सामरिक भागीदार नहीं है। मजबूत विदेश नीति ने रूस पर हमारी निर्भरता कम की होती।
ऐसा लगता है कि मोदी को चीन के साथ रिश्तों से कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं थीं। लगातार शिखर बैठकों और शी चिनफिंग की सराहना से तो ऐसा ही लगता है। यह सोचना भूल थी कि चीन के मजबूत नेता को अपना व्यक्तिगत मित्र बनाया जा सकता है। भारत अब उस भूल की कीमत चुका रहा है।
कूटनीति में व्यक्तित्व का ज्यादा इस्तेमाल दो ऐसे राष्ट्रों के बीच कारगर हो सकता है जो समान हों। तब भी जब असमान देशों में आप मजबूत हों। दो बड़े लेकिन असमान पड़ोसियों में कूटनीति तब आपके पक्ष में नहीं होती जब आप कमजोर हों।
शी चिनफिंग के इरादों, ताकत तथा चीन की काम करने की शैली को समझने में भी चूक हुई। चिनफिंग, तंग श्याओ फिंग के बाद सबसे मजबूत चीनी नेता हैं लेकिन व्यक्तिगत रूप से उन्हें नीतिगत मुद्दों पर मोदी की तुलना में कम अधिकार हासिल हैं।
भारत उनसे अपरिपक्व तरीके से निपटा। डोकलाम में चीन द्वारा हमें पहुंचाई गई क्षति के बाद समीकरण बदल गए। अब यह स्पष्ट है कि वुहान में मोदी की बात को उसने इस अनुरोध के रूप में लिया कि चीन और गड़बड़ न करे और उनकी चुनावी संभावनाओं को नुकसान न पहुंचाए। अगर आप दूसरे पक्ष की इज्जत करते हैं तो आपको पता होगा कि चीन के लोग भी सोचते हैं। वे भी हमारे इरादों का आकलन करते होंगे जैसे हम उनका करते हैं। इससे कोई मतलब नहीं कि कौन सही है और कौन गलत। असल बात यह है कि आखिर में आपको क्या मिलता है। एक शब्द में इसका उत्तर है गलवान। व्यापार को लेकर वैचारिक आशंकाओं और जरूरत से अधिक व्यक्ति आधारित कूटनीति के बाद बड़ी नकारात्मक बात थी मोदी और भाजपा की चुनावी राजनीति का विदेश नीति में उलझ जाना। यदि आप हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को चुनाव जीतने का हथियार बनाएंगे तो मुस्लिम अलग-थलग तो पड़ेंगे।
भले ही ऐसा करने से पाकिस्तान के साथ हमारे विकल्प बंद होते हैं। परंतु इसका असर विश्वसनीय पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के साथ रिश्तों पर भी पड़ता है। मोदी ने शुरुआत अच्छी की थी। बांग्लादेश के साथ सीमा समझौता राष्ट्रीय हित में था। हालांकि उनकी पार्टी ने संप्रग को यही समझौता नहीं करने दिया था। परंतु पहले असम और उसके बाद पश्चिम बंगाल में जीतने की हड़बड़ी में यह शुरुआत खराब हो गई। आप एक ओर बांग्लादेशियों को घुसपैठिये और दीमक कह कर उन्हें वापस भेजने की बात करते हैं और दूसरी ओर शेख हसीना से इसका उलट कहते हैं। यह समझना चाहिए कि ईरान, नेपाल और श्रीलंका के साथ ताल्लुकात सुधारने के बाद अब चीन ढाका का रुख करेगा। भारत मोदी और भाजपा की चुनावी राजनीति की कीमत इस तरह चुका रहा है। इस बात को अच्छी तरह समझना होगा।
भारी लोकप्रियता वाले शक्तिशाली नेताओं के पास कई तरह की शक्तियां तो होती ही हैं परंतु उनकी कुछ कमजोरियां भी होती हैं। उनमें से एक कमजोरी है चापलूसी। अगर उन्हें यह पसंद आने लगे तो इतिहास हमें बताता है कि नतीजे त्रासद होते हैं। भारत की रणनीतिक नीति निर्माण प्रक्रिया को गहरे आत्मावलोकन और सुधार की आवश्यकता है। यह सुधार केवल प्रक्रिया और तरीकों में नहीं है बल्कि बुनियादी राजनीति में भी लाना होगा। ध्रुवीकृत राजनीति एक दल के लिए अच्छी हो सकती है। परंतु बंटे हुए नागरिक देश के लिए खतरनाक हैं।
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