पिछले हफ्ते एक भारतीय स्टार्टअप चक्र इनोवेशन ने एक ऐसा उपकरण पेश किया जो एन95 मास्क के छिद्रों को साफ करने के लिए ओजोन का इस्तेमाल करता है। इस तरह मास्क को कीटाणुमुक्त करने के बाद 10 बार तक इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी हफ्ते मैंने एक युवती को भीड़भाड़ वाले बाजार में हाथों को साफ करने वाला ऐसा उपकरण लगाने की सलाह दी जिसे पैर से ही संचालित किया जा सकता है। कोविड महामारी के दौर में तकनीकी, वित्तीय एवं व्यवहार-संबंधी हर तरह के नवाचार को बढ़ावा मिल रहा है। इसे बढ़ावा देने वाली नीति भी होनी चाहिए। भारत एक नई विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार नीति का मसौदा तैयार कर रहा है। आजादी के बाद से केवल चार बार ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीतियां एवं प्रस्ताव आए हैं। यह मौका 1958, 1983, 2003 और 2013 में आया था। मौजूदा संकट यह स्पष्ट कर देता है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का मसला एकांत में बैठकर सोचते रहने का नहीं हो सकता है। नवाचार यानी विचार एवं तकनीक के सफल अनुप्रयोग को प्रधानता मिलनी चाहिए। भारत की प्रगति मिश्रित रही है। वर्ष 2005-18 के दौरान अमेरिका के नैशनल साइंस फाउंडेशन के आंकड़ों में प्रकाशित लेखों के मामले में भारत की रैंकिंग 10वें स्थान से सुधरकर तीसरे पर पहुंच गई। खरीद क्षमता के संदर्भ में, प्रति व्यक्ति शोध एवं विकास (आर ऐंड डी) व्यय पिछले दशक में दोगुना हो गया जबकि सकल आरऐंडडी व्यय तिगुना हो गया। लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में आरऐंडडी व्यय 2005-06 के 0.81 फीसदी से घटकर 2014-15 में 0.7 फीसदी पर आ गया। उसके बाद से उसी स्तर पर थमा हुआ है। प्रति 10 लाख आबादी पर पूर्णकालिक समकक्ष शोध पेशेवरों की संख्या 2015 में 218 थी जो दुनिया भर में सबसे कम अनुपात वाली श्रेणी है। निजी क्षेत्र की सीमित शोध एवं विकास गतिविधियों को लेकर क्षुब्ध होने के बजाय हमें नवाचार को वाणिज्यिक रूप देने की जरूरत को आत्मसात करना होगा। केवल पेटेंट की गिनती करने के बजाय हमें यह आंकना चाहिए कि नवाचार भारत के हालात यानी यहां की गर्मी, धूल एवं भीड़भरी जगहों के हिसाब से कितना कारगर साबित हो रहे हैं। ऐसी नीति बनाई जानी चाहिए जो नवाचार को बढ़ावा देने के साथ ही उपभोक्ता की मांग को भी पूरा करे और शोध में निवेश को प्रोत्साहन मिले। इसके लिए नवाचार एवं तकनीक की चार श्रेणियां चिह्नित की जा सकती हैं जिनमें क्रमिक रूप से जोखिम बढ़ रहा हो और निजी निवेश की चाह कम हो रही हो। संक्रमणकालीन तकनीकें, जो तकनीकी स्तर पर प्रमाणित होते हुए भी स्थानीय अनुकूलन की जरूरत होती है, लचीलेपन के लिए नवाचार (जलवायु परिवर्तन के जोखिमों का सामना करने के लिए), बुनियादी तकनीकें (तमाम क्षेत्रों में लागू करने योग्य लेकिन नीतिगत दिशा एवं सार्वजनिक-निजी दोनों के वित्तपोषण की जरूरत) और परिवर्तनकारी तकनीकें (पुरानी लकीर को तोडऩे की क्षमता होती है लेकिन इसमें जोखिम भी अधिक होता है)। इन चार तरह की नवाचार श्रेणियों से निकले छह विचार इस तरह हैं: 1. ग्रीन बिल्डिंग एवं सामग्री की चुनौती: कम लागत वाले मकानों, कम कार्बन वाले सीमेंट और कम बिजली खपत वाले कूलिंग उपकरणों की जरूरत है। टिकाऊ आवास मुहैया कराना सामाजिक प्राथमिकता होने के साथ ही अब एक जन स्वास्थ्य की अनिवार्यता भी है। अगर कोई इनामी मॉडल लाएं तो निजी क्षेत्र से बेशुमार संसाधन एवं ऊर्जा भी जुटाई जा सकती है। उस स्थिति में घरों और कूलिंग की मांग के बड़े हिस्से की पूर्ति निजी क्षेत्र से की जाएगी। 2. राष्ट्रीय जैव-ऊर्जा अभियान: इसके माध्यम से कृषि क्षेत्र से पैदा होने वाले जैव ईंधन की सालाना खरीद एवं नगरीय क्षेत्रों से निकलने वाले ठोस कचरे को द्रव ईंधन में बदलने का अनुपात तय किया जाए। निजी निवेश के लिए अग्रिम बाजार प्रतिबद्धताओं का रास्ता अख्तियार किया जा सकता है जैसा एलईडी बल्बों के मामलों में किया गया। 3. प्रकृति आधारित एवं जलवायु सक्षम ढांचा: बेहद प्रतिकूल मौसमी घटनाओं से होने वाले नुकसान को कम करने में ऐसा ढांचा काफी अहम होगा। तटीय शहरों में मैंग्रोव वनों की संख्या बढ़ाने या मरुस्थलीकरण रोकने के लिए 'हरित दीवार' खड़ी करने के मकसद से बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने से जुड़े नवाचार को बढ़ावा देने के लिए ग्रीन बॉन्ड वित्तपोषण का रास्ता अपनाया जा सकता है। 4. महत्त्वपूर्ण खनिजों की चक्रीय अर्थव्यवस्था: घरेलू स्तर पर बैटरियां बनाने की भारत की मंशा को पूरा करने के लिए इन खनिजों की उपलब्धता बेहद जरूरी है। दोबारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले या वैकल्पिक खनिजों का न्यूनतम अंश तय करने वाले नियामकीय प्रावधानों से ऐसा किया जा सकता है। इस तरह ई-कचरे के लिए एक मजबूत द्वितीयक बाजार भी तैयार हो जाएगा। 5. ग्रीन हाइड्रोजन अभियान: भारी उद्योगों में हाइड्रोजन कोयले की जगह ले सकता है लेकिन इसके व्यावसायिक उत्पादन के लिए काफी बिजली की जरूरत होती है। नवीकरणीय ऊर्जा के इस्तेमाल से पैदा हुआ ग्रीन हाइड्रोजन भारत के लिए तकनीकी स्तर पर बड़ा दांव हो सकता है। स्टील, उर्वरक एवं पेट्रो-रसायन जैसे कई प्रमुख उद्योगों और लंबी दूरी के परिवहन में इसका रणनीतिक इस्तेमाल हो सकता है। यूरोपीय संघ ने वर्ष 2030 तक 40 गीगावाट ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन का लक्ष्य रखा हुआ है। जापान के संयंत्रों में इसका उत्पादन शुरू भी हो चुका है। नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों की गिरती लागत का लाभ उठाते हुए ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है। इसके प्रायोगिक प्रयोग के लिए वर्ष 2025 का लक्ष्य रखा जा सकता है। 6. कार्बन डाई-ऑक्साइड के उन्मूलन की चुनौती: भारत का आधिकारिक आकलन है कि कई मायनों में भारत वैश्विक औसत से कहीं अधिक ताप-वृद्धि से प्रभावित होगा। वायुमंडल में मौजूद कार्बन जाई-ऑक्साइड पहले से ही काफी अधिक मात्रा में है। वैश्विक ताप-वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर ही सीमित रखने के लिए वर्ष 2050 तक 100-200 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड को नियंत्रित करना होगा। उसके बाद तो यह लक्ष्य और भी बड़ा हो जाएगा। कार्बन का अधिक मूल्य लगाए बगैर हवा से कार्बन डाई ऑक्साइड को सीमित करने का आज कोई बाजार नहीं है। इसमें कई परिचित एवं अनजान जोखिम भी हैं। ऐसी एकदम नई तरह की तकनीक के लिए भारत को एक राष्ट्रीय चुनौती रखनी चाहिए जिसमें कंपनियों एवं शोधकर्ताओं को मिलकर काम करने का न्योता दिया जाए। नवाचार के व्यावसायिक उपयोग के लिए अनुकूल पारिस्थितिकी की जरूरत होगी। शोध एवं विकास कार्यों और फंडिंग के लिए तकनीक सूचना पोर्टल बनाया जाए, भारत के पेटेंट कार्यालयों की क्षमता बढ़ाकर आवेदन एवं आवंटन की प्रक्रिया को सरल बनाया जाए, नवाचारी प्लेटफॉर्म को खोला जाए और शोध एवं विकास कंसोर्टियम के अधिक मुफीद पेटेंट के साझा स्वामित्व का इंतजाम हो, नवाचार से जुड़े पुरस्कार एवं जोखिम की गारंटी देकर निजी पूंजी जुटाई जाए, सरकारी खरीद के मानकों में संशोधन कर लागत के बजाय सक्षमता को अहमियत दी जाए, उत्पाद प्रमाणन के मानकों को उन्नत किया जाए और मान्यता से जुड़े अधिक परीक्षण केंद्र हों और नए विचारों को जमीन पर उतारने में मददगार स्टार्टअप इनक्यूबेटर मौजूद हों। परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष अनिल काकोडकर ने अपनी पुस्तक 'फायर ऐंड फ्यूरी' में उस वाकये का रोचक ब्योरा दिया है जब हमारे परमाणु वैज्ञानिकों ने यूरेनियम की घटती आपूर्ति की समस्या का हल निकाला था। उसमें ऊर्जा संयंत्रों की क्षमता बढ़ाने, शोध संयंत्रों से निकले परमाणु ईंधन का बिजली संयंत्रों में दोबारा इस्तेमाल और हवा निकासी के लिए बने सुराखों की भी सफाई कर नाभिकीय कचरा जुटाने की कोशिशों का जिक्र है। प्रतिभा का मतलब है असाधारण नैसर्गिक बौद्धिक क्षमता का होना जबकि सरलता का आशय है मुश्किल समस्याओं को चतुर एवं नवाचारी तरीकों से हल करना। हमारे समाज में कई प्रतिभावान लोग हो सकते हैं लेकिन सरलता के पालन-पोषण के लिए एक पारिस्थितिकी की जरूरत है। क्या जरूरत महज आविष्कार की जननी न होकर नवाचार की पारिस्थितिकी को जन्म भी दे सकती है? (लेखक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट ऐंड वाटर के सीईओ और नई विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति के ऊर्जा एवं पर्यावरण खंड के सह-प्रमुख हैं)
