आखिरकार उत्तर प्रदेश ने हमेंं कोरोनावायरस और चीन से निजात दिला दी। लेकिन दिक्कत यह है कि हमें इसके लिए उसका शुक्रिया करना चाहिए अथवा नहीं? इसलिए क्योंकि इसका संदर्भ भी उतना ही परेशान करने वाला है जितना कि तेजी से पांव पसारती महामारी का या घुसपैठ करते पड़ोसी का। एक व्यक्ति को कथित मुठभेड़ में मारा गया। इस मुठभेड़ को इतने खराब तरीके से अंजाम दिया गया कि ऐसा करने वाले पुलिसकर्मियों और उनके राजनीतिक आकाओं को अगर गैर न्यायिक हत्या के आरोप मेंं जेल नहीं भी होती तो भी कम से कम उनकी नौकरी तो जानी ही चाहिए। अगर आपको इस कहानी पर यकीन है तो आप विक्रम-बेताल की कहानी को भी सच मानेंगे। बल्कि मुझे तो उनमें से कुछ कहानियां ज्यादा विश्वसनीय लगती हैं। बहरहाल हम न्यायिक विज्ञान को एक क्षण के लिए परे हटाकर इसमें निहित राजनीतिक संदेश को पढऩे की कोशिश करते हैं। यह वह प्रदेश है जिसकी आबादी देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की आबादी का 15 फीसदी है, जिसने देश के सत्ताधारी दल को उसके कुल सांसदों का पांचवां हिस्सा तो दिया ही है, साथ ही प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री भी दिए हैं। वह प्रदेश हमसे कह रहा है-भाड़ में जाओ और अपना संविधान, कानून का शासन और अदालतें भी अपने साथ ले जाओ। हम अपना कानून बनाएंगे, और फिर अपनी खुशी से उसे तोड़ेंगे। क्यों? क्योंकि हमारे पास संख्या बल है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे शक्तिशाली राज्य है लेकिन यह सबसे खराब शासन वाला राज्य भी है। यह राज्य कई माफियाओं के चंगुल में है जो एक दूसरे से होड़ ले रहे हैं। राज्य सरकार भी उन माफियाओं में से एक है। वह वायरस जो उत्तर प्रदेश को अंदर से खाये जा रहा है वह है उसका आकार। इसका असर भारत पर भी पड़ रहा है। पहले उत्तर प्रदेश नामक इस समस्या के आकार का आकलन करते हैं। इस राज्य में 75 जिले हैं जो देश के 739 जिलों के दसवें हिस्से से अधिक हैं। इस राज्य का प्रबंधन कितना मुश्किल है इसे समझने के लिए उन राज्यों के बारे में सोचिए जिनकी आबादी कमोबेश उत्तर प्रदेश के बराबर है। पाकिस्तान और ब्राजील दोनों की आबादी 20 करोड़ से अधिक है। पाकिस्तान में चार संपूर्ण प्रांत और दो स्वायत्त संघीय इकाइयां हैं जबकि ब्राजील में 26 राज्य हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को सबकुछ स्वयं संभालना पड़ता है। यह असंभव है और राज्य के शासन की गुणवत्ता और सामाजिक संकेतकों से यह पता चलता है। हमने एक बार द प्रिंट पर यह रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि आबादी के लिहाज से पाकिस्तान की बराबरी करने वाला उत्तर प्रदेश खराब सामाजिक संकेतकों के मामले में भी उसके आसपास ही नजर आता है। शिशु मृत्युदर जैसे संकेतकों मेंं यह उससे बेहतर और प्रति व्यक्ति आय और लिंगानुपात में यह उससे खराब स्थिति में है। परंतु आबादी में वृद्धि जैसी अहम कमी के मामले में वह उसके साथ बराबरी से होड़ कर रहा है। बाद के दिनों में उत्तर प्रदेश की आबादी मेंं इजाफे की दर कम हुई है लेकिन यह पाकिस्तान की दर के बराबर है यानी करीब 2 फीसदी। यह दर शेष भारत के दोगुना से भी अधिक है। उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम है। उसकी अपराध दर, माफिया की पैठ, राजनीति का अपराधीकरण आदि फिल्मों में चित्रण करने लायक हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यह राज्य बहुत बड़ा है और इसकी राजनीति जाति और धर्म के नाम पर इतनी अधिक बंटी हुई है कि सत्ताधारी ढांचे से बाहर रह गए लोग जातीय माफिया और बाहुबलियों के पास संरक्षण, न्याय और समानता की बाट जोहते हैं। आइए देखते हैं यह कैसे काम करता है। यदि एक यादव पिता या बेटा सत्ता में है तो यादवों के पास सत्ता होगी जबकि वे कुल आबादी का महज 9 फीसदी हैं। वे मुस्लिमों और अक्सर ठाकुरों के साथ गठजोड़ करते हैं। इस प्रकार सत्ता के ढांचे में उनको वैधता मिलती है। उन्हें हर तरह के शासन, कल्याण योजनाओं के वितरण, ट्यूबवेल और नलकूप खुदवाने से लेकर अहम पदोंं पर नियुक्तियों तक में तरजीह दी जाती है। जो इससे बाहर रह जाते हैं वे माफिया नेताओं की ओर रुख करते हैं। ऐसे में प्राय: सबसे सक्रिय माफिया उस जाति के होते हैं जो सत्ता से बाहर हो। सन 1980 तक जब अगड़ी जाति के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब आपराधिक गिरोह और डकैतों के गिरोह प्राय: पिछड़ी जाति से होते थे। सन 1981-82 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बतौर मुख्यमंत्री पहली बार उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ की संस्कृति को जन्म दिया और महज एक महीने से कुछ अधिक समय में 299 डकैतों को मार दिया गया। यह सिलसिला तब बंद हुआ जब बदले की कार्रवाई में उनके भाई और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चंद्र शेखर प्रसाद सिंह और उनके बेटे की हत्या कर दी गई। जल्दी ही सिंह ने इस्तीफा दे दिया। इससे संबद्ध राजनीतिक कथा यह है कि उसी समय एक युवा पूर्व पहलवान मुलायम सिंह यादव बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता इन मुठभेड़ों का विरोध करते हुए लोकप्रिय हो रहे थे। मुठभेड़ के शिकारों में कई पिछड़ी जातियों के थे और वे मुलायम सिंह के समर्थक हो गए। एक बार जब सत्ता निचली और यादव समेत मध्यम जातियों के हाथ में आ गई तो अगड़ी जातियों के लोग संगठित अपराध में लिप्त हो गए। ब्राह्मणों और ठाकुरों के गिरोह बन गए और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कानून का राज समाप्त ही हो गया। फिलहाल शाासन कानपुर मेंं जिस माफिया से उलझा हुआ है वह ब्राह्मण है। याद रहे इस प्रदेश में अंतिम ब्राह्मण मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे और वह सन था 1989। उससे पहले गोविंद बल्लभ पंत से लेकर कमलापति त्रिपाठी तक कई कद्दावर ब्राह्मण प्रदेश पर शासन कर चुके थे। यह समुदाय 31 वर्ष से सत्ता से बाहर है। ऐसे में विकास दुबे कानपुर में रॉबिनहुड बन गया वैसे ही जैसे अतीत में गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी। आज कानून व्यवस्था कुशासन का एक अहम पहलू है और हमने इस पर विस्तार से बात की। बाकियों पर आप तेजी से नजर डाल सकते हैं। सात दशकों में राज्य नई उद्यमिता तैयार करने मेंं नाकाम रहा। दिल्ली के निकट नोएडा को छोड़कर कोई औद्योगिक परिसंपत्ति नहीं विकसित हुई। जबकि उत्तर प्रदेश में देश के कुछ सबसे पुराने और बेहतरीन शहर रहे हैं। वे कानपुर और इलाहाबाद की तरह मृतप्राय भले न हों लेकिन उन सभी का पराभव हो रहा है। पश्चिम के हरित क्रांति वाले जिलों को छोड़कर वह खेती में भी पिछड़ गया है। 75 से अधिक जिलों और 2.43 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रहने वाली 20 करोड़ की आबादी पर शासन करना एक सरकार के लिए बहुत बड़ा काम है। खासकर तब जबकि उसे केवल एक व्यक्ति चला रहा हो। हमारे प्रदेशों में यह एक नया मानक बन गया है। इसी तरह एक संघीय गणराज्य में 80 लोकसभा सीटों का एक राज्य में होना भी बहुत ज्यादा है। यह तादाद गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक की कुल सीटों से अधिक है। यह राजनीतिक रूप से विसंगतिपूर्ण है। खासकर तब जबकि इसकी आंतरिक राजनीति इतनी विभाजक और जाति-धर्म पर आधारित है। वहीं सामाजिक संकेतकों पर यह पीछे है। उत्तर प्रदेश को पांच नहीं तो कम से कम चार राज्यों में बांटा जाना चाहिए। पश्चिमी जिलों में काफी समय से हरित प्रदेश की मांग हो रही है। दक्षिण में बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाया जाना चाहिए और मध्य प्रदेश के तीन-चार जिलों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। पूर्वांचल प्रांत में नेपाल और बिहार की सीमा से लगने वाले पूर्व के सभी जिलों को शामिल करना चाहिए और गोरखपुर को राजधानी बनाना चाहिए। मध्य प्रांत जिसे अवध प्रदेश या कुछ और नाम दिया जा सकता है उसका शासन लखनऊ से चलना चाहिए। इस तरह चार नए राज्य बनेंगे। हालांकि अपनी पुस्तक में मैंने पांच राज्यों की बात कही है क्योकि पूर्वांचल बहुत बड़ा और बहुत कम विकसित राज्य होगा। उसे दो हिस्सों में बांटना और वाराणसी को दूसरे राज्य की राजधानी बनाना बेहतर होगा। कोई राजनेता ऐसा नहीं चाहता। पूर्ण बहुमत वाले नेता का हित राज्य को एक रखने में ही सधता है। जो चीज कारगर है उसमें क्या बदलाव करना, भले ही हालत कितनी भी खस्ता क्यों न हो? परंतु जब तक कोई यह चुनौती नहीं लेता तब यह राज्य जहां हर छह में से एक भारतीय रहता है, उसके सामने कोई आशा नहीं।
