लोकतांत्रिक भारत और चीन की वैचारिक जंग | श्याम सरन / July 10, 2020 | | | | |
खबरों के मुताबिक भारत और चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब से अपनी सेनाएं वापस बुलाने को तैयार हो गए हैं। यह सकारात्मक खबर है। हालांकि दोनों देशों में अविश्वास बना रहेगा और भारत आने वाले दिनों में चीन के संभावित कदमों को लेकर सतर्क रहेगा। चीन अतिरिक्त जमीन के दावे को बार-बार दोहराता रहा है। आर्थिक और कारोबारी मोर्चे पर संभव है कि कोविड-19 के कारण आई मंदी से आगे और गिरावट आएगी। भारतीय और चीनी कंपनियों का एक दूसरे के यहां निवेश रुक जाएगा। आत्मनिर्भर भारत की नीति इस रुझान को और गति प्रदान करेगी। यह स्पष्ट है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत-चीन रिश्तों को परिभाषित करने वाला तालमेल अब भंग हो चुका है। इस मतैक्य के प्रमुख तत्त्व क्या थे?
पहली बात, भारत चीन के लिए खतरा नहीं था और न ही चीन भारत के लिए। दूसरा, एशिया और समूचे विश्व में दोनों देशों की प्रगति के लिए पर्याप्त गुंजाइश थी। तीसरा, भारत चीन के लिए और चीन भारत के लिए आर्थिक अवसर समेटे था। और चौथा, भारत और चीन के रिश्तों का सामरिक और वैश्विक पहलू थे। ऐसे में मजबूत और सहयोगात्मक रिश्तों की अहमियत बढ़ी। इन बातों के चलते दोनों देश सीमा विवाद का राजनीतिक हल चाह रहे थे ताकि वे साझा हितों वाले तमाम वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम कर सकें। दोनों देशों की यह एकता सन 2005 में चीन के प्रधानमंत्री वेन च्यापाओ की भारत यात्रा के दौरान साफ नजर आई लेकिन 2009 के बाद से यह लगातार छीज रही थी। आखिरी बार भारत और चीन जिस वैश्विक आयोजन में साथ काम करते नजर आए थे वह थी सन 2009 में कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक। सन 2010 में च्यापाओ की भारत यात्रा के समय यह बदलाव तब नजर आया जब उन्होंने कहा कि सीमा विवाद हल होने में लंबा समय लगेगा। सन 2015 में पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान अमेरिका और चीन की बातें समझौते का आधार बनीं। भारत उतना अहम नहीं रहा था। चीन ने खुद को अमेरिका के समक्ष मानक के रूप में पेश करना शुरू कर दिया और अन्य उभरते देशों के साथ अपने रिश्ते कायम करने लगा। अब एशियाई तथा विश्व स्तर पर भी चीन के लिए भारत के साथ रिश्ते उतने अहम नहीं रहे थे। वह मानता है कि एशिया में केवल चीन के विस्तार और उभार की गुंजाइश है भारत के लिए नहीं। ताजा घटनाओं के बाद उस मतैक्य का पूरी तरह अंत हो गया है। हालांकि इस बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच शिखर बैठकों के कई दौर हुए। दरअसल चीन अपने इरादे छिपाने में कामयाब रहता है और विरोधियों को आश्वस्त होने देता है। परंतु अगर ठीक से पढ़ा जाता तो संकेत तो नजर आ ही रहे थे।
चीन की भारत को नीचा दिखाने की कोशिशों का एक अतिरिक्त वैचारिक पहलू भी है। वह भारत की लोकतांत्रिक राजनीति को अस्तव्यस्त और नाकाम दिखाने के साथ-साथ यह दिखाना चाहता है कि चीन का सत्ता का मॉडल अधिक श्रेष्ठ है। अमेरिका सहित पश्चिम के तमाम लोकतांत्रिक देशों की ओर से चीन की उपेक्षा को इसी क्रम में देख सकते हैं। जबकि डॉनल्ड ट्रंप के अधीन अमेरिका भी उदार लोकतंत्र का बहुत अच्छा उदाहरण नहीं पेश करता। उसके लिए भी राजनीतिक असंतोष का प्रबंधन और चीन के साथ असहमति अहम है। चीन का अधिनायकवादी शासन महामारी के उभार को चिह्नित करने में नाकाम रहा और उसने दुनिया को पारदर्शी तरीके से इसके खतरों से अवगत नहीं कराया। एक उदार लोकतांत्रिक देश में ऐसा करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। परंतु चीन ने अत्यंत कड़ाई से इस समस्या से निपटते हुए अपनी इस नाकामी को ढक दिया। जिसे दुनिया को चीन के बेहतरीन मॉडल की एक खतरनाक नाकामी के रूप में देखना था वह महामारी से निपटने की शानदार सफलता के प्रदर्शन में बदल दिया गया। इतना ही नहीं इस चूक में केवल चीन के लोगों के लिए खतरा नहीं है बल्कि शेष विश्व भी इसका शिकार हो सकता है। यह मॉडल अन्य देशों को जितना अधिक लुभाएगा, भविष्य में ऐसे संकट के समय दुनिया उतने ही अधिक जोखिम में होगी।
मैंने अब तक वैचारिक पहलू पर उपयोगितावाद के आधार पर नजर डाली है। लोकतांत्रिक देश बुनियादी आजादी, विधि के शासन और राज्य शक्ति की जवाबदेही के रूप में जो आधार तैयार करते हैं वे ज्यादा अहम हैं। चूंकि वैश्विक शक्ति का केंद्र लगातार एशिया की ओर स्थानांतरित हो रहा है इसलिए चीन न केवल सैन्य और आर्थिक आधार पर दबदबा कायम करना चाहता है बल्कि वह वैचारिक स्तर पर भी ऐसा ही करना चाहता है। इस क्षेत्र का दूसरा सबसे बड़ा देश होने के नाते भारत जो भी कदम उठाएगा वे यह निर्धारित करने में अहम होंगे कि यह नई शक्ति कहीं अधिक ताकतवर शत्रु के वैचारिक रंग में तो नहीं रंगी जाएगी। यदि भारत एशिया में चीन के दबदबे का मुकाबला करने के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे ऐसा न केवल सैन्य और आर्थिक क्षेत्रों में करना होगा बल्कि वैचारिक क्षेत्र में भी यही दोहराना होगा।
चीन का मुकाबला करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे उदार लोकतंत्र और भारतीय संविधान में उल्लिखित मूल्यों के प्रति भरोसा कायम किया जाए। यह खेद की बात है कि हमारे देश में चीन को मॉडल मानकर उसका अनुकरण करने की प्रवृत्ति रही है। लगातार ऐसा सुनने में आता है कि लोकतंत्र होने के नाते भारत पीछे रह गया। मोदी की भी इसलिए सराहना की जाती है क्योंकि वे शी चिनफिंग की तरह मजबूत नेता हैं।
बगैर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को त्यागे देश के बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषीय, बहुधार्मिक और बहुजातीय समाज का बेहतरीन प्रबंधन करना हमारी बहुत बड़ी सफलता है। यह हमारी बहुत बड़ी ताकत है। चीन बनने की आकांक्षा में हमने इन गुणों का सही मोल नहीं लगाया। चीन का भविष्य एकरंगा है। भारत को कभी वैसा बनने की कामना नहीं करनी चाहिए। यदि एशिया में चीन का दबदबा हो जाता है तो ऐसा इसलिए तो होगा ही कि भारत न केवल आर्थिक रूप से मुकाबला नहीं कर सका बल्कि इसकी एक वजह यह भी होगी कि भारत अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर खरा नहीं उतर पाया। एशिया में और विश्व में लोकतंत्र का भविष्य इस पर निर्भर करता है कि भारत आगे कौन सी राह चुनता है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर के सीनियर फेलो हैं)
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