हॉन्गकॉन्ग और लंदन कैसे बने बड़े अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र? | नीति नियम | | मिहिर शर्मा / July 09, 2020 | | | | |
वह कौन सा जादू है जो किसी शहर को 'अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र' बनाता है? इस समय यह सवाल एशिया प्रशांत क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वालों के जेहन में है। शी चिनफिंग के नेतृत्व में चीन ने आक्रामक और अधिनायकवादी रुख अपनाया है जो एक हद तक उसके हितों को भी नुकसान पहुंचा रहा है। इसमें नवीनतम हैं नए राष्ट्रीय सुरक्षा नियम (कानून नहीं) जो हॉन्गकॉन्ग पर लागू होंगे। ब्रिटिश सरकार के अनुसार नए नियम उन शर्तों का उल्लंघन हैं जिनके तहत सन 1997 में हॉन्गकॉन्ग को चीन को सौंपा गया था। इसका एशिया के सर्वश्रेष्ठ वित्तीय केंद्र के रूप में हॉन्गकॉन्ग की प्रतिष्ठा पर क्या असर होगा? खासकर उस वित्तीय शोध पर जो चीन के मैक्रो डायनैमिक्स, राजनीतिक जोखिम और सरकारी कंपनियों आदि पर होती है। उसे दबाया जा सकता है। एक शोधकर्ता ने फाइनैंशियल टाइम्स को बताया कि चीन के ग्राहकों से रिश्ते बनाए रखने के लिए विश्लेषक खुद पर ही सेंसरशिप लगाते रहे हैं लेकिन नई व्यवस्था में इनका संस्थानीकरण हो जाएगा। यहां एक सीधा संबंध है जिसे बहुत कम समझा गया है। अभिव्यक्ति की आजादी के सकारात्मक आर्थिक प्रभाव भी हैं। कुल आर्थिक प्रभाव के लिए विभिन्न जगहों और परियोजनाओं तक पूंजी का उचित आवंटन जरूरी है। बाजार भागीदार इस प्रक्रिया में जोखिम प्रोफाइल को समझते हैं। उनके विश्लेषण को अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी चाहिए। वरना खुद लागू की जाने वाली सेंसरशिप खतरनाक तरीके से गलत आवंटन की वजह बनेगी।
कहने का अर्थ यह नहीं है कि हॉन्गकॉन्ग में वित्तीय क्षेत्र ने खुद को जानबूझकर अलग किया ताकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) को बता सके कि वह गलत है। बल्कि वह चीन के साथ प्रतीकात्मक रिश्ते रखकर खुश है। खेद की बात है कि हॉन्गकॉन्ग के विशेष दर्जे में बदलाव के बाद यह चीन से जुड़े कारोबार के लिए उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। सीसीपी के नेता भी शांघाई के वित्तीय केंद्र के हित में हॉन्गकॉन्ग को सीमित करना जारी रखेंगे।
स्पष्ट है कि एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र के लिए विधि का शासन और प्रासंगिक बातों पर न्यूनतम प्रतिबंध की आवश्यकता है। इतिहास हमें बताता है कि इसके अलावा किन चीजों की आवश्यकता है। एक: बदलाव की इच्छा और वित्तीय संस्थानों के बीच नई तकनीक को अपनाना, भले ही वह बदलाव उसे नकारने वालों को नाराज करके आए। याद रहे सन 1970 के दशक के आखिर में ऐसा लगने लगा था कि लंदन शहर स्थायी पराभव की ओर अग्रसर है। खासतौर पर न्यूयॉर्क से तुलना करने पर ऐसा ही लगता था। मार्गरेट थैचर के युग में आए अहम सुधारों ने इस शहर को आने वाले दशकों की प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया। अक्टूबर 1986 में लंदन स्टॉक एक्सचेंज के प्राइवेट लिमिटेड बनने और नियम बदलने से इसे काफी मदद मिली। इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और बाजार निर्माताओं तक पहुंच खुली और लंदन इस बात का आदर्श बन गया कि कौन से कदम कारगर रहते हैं। पहला, किसी भी मुद्रा में कारोबार की इच्छा, दूसरा नवाचार की इच्छा, तीसरा विधि का शासन, खासकर निवेशकों के अनुकूल सामान्य कानून और आखिर में ऐसे बड़े निवेश केंद्रों से भौगोलिक और सांस्कृतिक करीबी जो अत्यधिक या अवांछित नियमन का शिकार हो। लंदन को यूरोपीय संघ से मदद मिली जिसके फ्रैंकफर्ट और पेरिस स्थित वित्तीय केंद्र सरकार के हस्तक्षेप से ध्वस्त हो गए थे। लंदन यूरोप के लिए वैसा ही था जैसा चीन के लिए हॉन्गकॉन्ग उसका हिस्सा था भी और नहीं भी। वित्तीय केंद्र होने के तमाम लाभ थे। इनकी सफलता के लिए आवश्यक है कि बड़े निवेश केंद्रों तक सुनिश्चित पहुंच हो और इसके साथ ही यह बेहतर नियमन और मानकों से संचालित हो। लंदन और हॉन्गकॉन्ग में फाइनैंस का स्वर्णयुग खुलेपन को लेकर साझा प्रतिबद्धता से उत्पन्न हुआ: विदेशी पूंजी, विदेशी कार्मिकों और विदेशी निवेश नीतियों को लेकर खुलापन। पूंजी की आवक जावक को लेकर भरोसा भी इसमें अहम था। इसके बावजूद अस्पष्ट तत्त्वों को नकारा नहीं जा सकता। अंग्रेजी भाषी विधिक परंपरा की आजादी और सुरक्षा के बावजूद उन्हें कम नहीं आंक सकते। अंग्रेजी भाषा एक बात है और बेहतर कारोबारी माहौल दूसरी। यही कारण है कि अन्य वित्तीय केंद्रों को संघर्ष करना पड़ा। टोक्यो में अंग्रेजी नहीं है, दुबई में अन्य दिक्कतें हैं।
परंतु सिंगापुर पिछले एक दशक में भारतीयों के लिए प्राथमिकता वाला केंद्र रहा है। आसियान देशों के लिए सिंगापुर पुनर्निर्यात वित्तीय केंद्र बन सकता है। सवाल यह है कि क्या दीर्घावधि में यह पर्याप्त मुक्त होगा और भारत के सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से इतना करीब होगा कि यह वह कर सके जो हॉन्गकॉन्ग ने चीन के लिए किया।
शायद भारत को हॉन्गकॉन्ग नहीं न्यूयॉर्क की जरूरत है। उसे अपने एक शहर को इस रूप में विकसित करना होगा। एक दावेदार तो स्पष्ट है। सन 2008 की पर्सी मिस्त्री समिति की मुंबई को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र के रूप में विकसित करने संबंधी रिपोर्ट आज भी प्रासंगिक है। इसकी अधिकांश बातें वित्तीय सुधारों के बारे में हैं। इसकी अंतिम अनुशंसा में कहा गया है, 'मुंबई को पूरे भारत और शेष विश्व में एक स्वागताकांक्षी और विविध संस्कृति वाले शहर के रूप में देखा जाना चाहिए जो बड़ी तादाद में बाहरी लोगों को समायोजित कर सके। केवल ऐसे मूल्यों के साथ ही मुंबई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र बन सकेगा।' जाहिर है बिना अनावश्यक प्रतिबंध के खुलापन, पारदर्शिता और आजादी ही इसमें मददगार हो सकते हैं।
नोट: इस स्तंभ में मैंने गुजरात इंटरनैशनल फाइनैंशियल टेक-सिटी पर विचार भी नहीं किया है। एक दशक पहले जब इसकी शुरुआत की गई थी तो हमसे कहा गया था कि एक दशक में यह 6 करोड़ वर्ग फुट इलाके में विस्तारित होगा और लंदन के कैनरी व्हार्फ से बड़ा होगा। हालिया रिपोर्टों से पता चलता है कि यहां अभी भी केवल दो टावर हैं जिनमें कुछ हजार लोग काम करते हैं। इनमें भी ज्यादातर सरकार से जुड़ी कंपनियों के लोग हैं।
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