गलत लाभ की वसूली पर आए फैसले से नियामक लें सबक | बाअदब | | सोमशेखर सुंदरेशन / July 06, 2020 | | | | |
गलत तरीकों से अर्जित लाभ की वसूली वित्तीय कानूनों का पसंदीदा विषय रहा है। भारत के प्रतिभूति कानून में गलत तरीके से अर्जित लाभ एवं गलत तरीका अपनाकर दिखाए गए घाटे की रकम की वसूली को मान्यता है। हालांकि इस मुद्दे पर बाजार नियामक से कोई स्पष्टता नहीं होने से काफी विवाद भी रहे हैं। दरअसल गलत ढंग से दिखाए गए लाभ या हानि की गणना के लिए कोई सरकारी नीति या तय सिद्धांत नहीं होने से इस रकम की वसूली कर पाना मुश्किल होता है।
इस मसले पर अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसला दिया है जो प्रतिभूति नियमन के कुछ सिद्धांत प्रतिपादित करता है। भारत में इन मुद्दों पर अक्सर विवाद होता है।
हमारी अदालतें एवं पंचाट अक्सर इस मुद्दे पर अमेरिकी अदालतों के रुख एवं फैसलों पर नजर रखते हैं। गलत ढंग से दिखाए लाभ या हानि की रकम वसूलने को लेकर अमेरिकी अदालतों के रवैये पर भारत में भी प्रतिभूति संबंधी मुकदमों में चर्चा होती है।
पहला, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इस राशि की वसूली दंडात्मक उपचार न होकर न्यायसंगत उपचार है। इसका मतलब है कि यह वसूली गलत काम को सही करने के लिए की जाती है, न कि गलती करने वाले को दंडित करने के लिए। हालांकि मुख्य सिद्धांत यह है कि गलत तरीके से अर्जित लाभ से अधिक राशि वसूलने की कोई भी कोशिश न्यायसंगत नहीं मानी जाएगी और यह असल में दंडात्मक कदम होगा। अमेरिकी अदालत ने कहा है कि गलत ढंग से अर्जित लाभ से अधिक राशि की वसूली नहीं करना न्यायोचित राहत ही कहा जाएगा, दंडात्मक नहीं।
दूसरा, न्यायालय ने वसूली गई रकम से पीडि़तों को मुआवजा देने की जरूरत पर भी चर्चा की है। अक्सर नियामक एवं सरकारों का यही मत होता है कि गलत तरीके से अर्जित लाभ से आरोपी को वंचित कर देना खुद ही बाकी समाज के लिए एक उपचार है। लेकिन गलती करने वाले से उस रकम को ले लेना अपने आप में पूर्ण उपचार नहीं है। प्रतिभूति अपील पंचाट ने भारत में भी इसी तरह का नजरिया रखा है। उसका मानना है कि पीडि़तों को वसूली गई रकम लौटाने की मंशा या उस दिशा में प्रयास किए बगैर सिर्फ इस राशि की वसूली करना अस्वीकार्य है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का एकदम स्पष्ट निर्णय एक जुर्माने एवं एक न्यायोचित उपचार के बीच के फर्क के इस बेहद अहम मसले को चर्चा में ले आएगा।
अगर गलत ढंग से मुनाफा कमाने वाले से उस राशि को महज वापस ले लिया जाता है तो वह एक जुर्माना ही होगा और इसलिए इस रकम को पीडि़तों के बीच बांटने की मंशा एवं उसका तरीका निकालने की कोशिश भी होनी चाहिए। भारत में इसका त्वरित समाधान यह हो सकता है कि पूरी राशि को एक निवेशक सुरक्षा कोष को भेज दिया जाए। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट यह फैसला करने का जिम्मा निचली अदालतों पर छोड़ दिया है कि जुटाई गई रकम निवेशकों के बीच बांटे जाने लायक नहीं है और उस समय न्यायोचित सिद्धांतों का पालन कैसे किया जा सकता है।
तीसरा, अदालत ने कहा है कि वसूली शुद्ध लाभ की राशि के आधार पर होनी चाहिए, न कि अर्जित राशि पर। इस प्रक्रिया में वैध खर्चों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह काफी अहम मुद्दा है और गलती करने वाले पर कानूनी असर का आकलन करते समय अक्सर इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। अक्सर यह देखा जाता है कि गलत काम ऐसे कार्यों के भीतर प्रच्छन्न रूप से छिपे रहते हैं जो खुद गलत नहीं होते हैं। एक कुंद हथियार के तौर पर वसूली का इस्तेमाल कमाई का एक-एक रुपया निकालने के लिए किया जाता है, न कि दिमाग लगाकर यह तय करने में कि असल में कितनी राशि गलत तरीके से जुटाई गई थी और फिर कुल आय में से कर देने एवं वेतन भुगतान जैसे वैध खर्चों को अलग कर दिया जाए। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट कहता है कि अदालतों को अर्जित लाभ की गणना करते समय इन पहलुओं को जरूर ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि यह एक न्यायोचित उपचार है, कोई पेनल्टी नहीं।
आखिर में, नियामक यह तरीका भी अपनाते हैं कि वित्तीय लेनदेन में शामिल रहे किसी भी शख्स से अमुक रकम वसूल ली जाए और एक 'साझा एवं मिली-जुली जवाबदेही' ठहरा दी जाए। आम बोलचाल में इसका यही मतलब है कि कई लोगों को हुए अनुचित लाभ के लिए किसी एक का भी पीछा किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि सम्मिलित रूप से किए गए गलत काम में सामूहिक जवाबदेही तय की जा सकती है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि जिससे वसूली की जा रही है वास्तव में अर्जित रकम उसके पास है या नहीं।
इस फैसले से असहमत एक न्यायाधीश ने यहां तक कहा है कि न्यायाधीशों का बहुमत नियामकों को 'न्यायोचित राहत' के दायरे में रकम वसूली को शामिल करने की अनुमति देकर गलती कर रहा है। उनके मुताबिक, अगर रकम वसूलने की प्रक्रिया को न्यायोचित माना जाता है तो यह सिर्फ शुद्ध लाभ पर ही लागू होना चाहिए और इसका असर किसी भी रूप में साझा एवं मिला-जुला नहीं होना चाहिए। इसका मकसद सिर्फ पीडि़तों को मुआवजा देने का ही होना चाहिए।
अब समय आ गया है कि भारत में इस तरह के सभी मामलों का आनुभविक अध्ययन किया जाए और वसूली की रकम की गणना के लिए सिद्धांत भी तय किए जाएं। हमें ध्यान रखना होगा कि नुकसान के दावे वसूली के दावों से अलग होते हैं। भारत में नियामकों को वसूली की मात्रा के बारे में किसी अदालत को आश्वस्त नहीं करना होता है क्योंकि वे खुद ही शुरुआती अदालतें हैं। लेकिन अधिक शक्ति के साथ अधिक जिम्मेदारी भी होती है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
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