क्या भोजन वह माध्यम होगा जिसके जरिये अप्रत्याशित मौद्र्रिक हस्तक्षेप मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकता है? क्या बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए धरती के पास जमीन एवं पानी की कमी हो जाएगी? आखिरकार खेती-योग्य भूमि धरती के कुल भूभाग का महज 12 फीसदी ही है और 25 फीसदी इलाके में चारागाह हैं। बीते तीन दशकों से यह अनुपात काफी हद तक अपरिवर्तित रहा है जो बहुफसली खेती में वृद्धि की संभावना को भी सीमित करता है। इंसानी आबादी में स्थिर वृद्धि होने और आय बढऩे से अधिक कैलरी-युक्त खाने की तरफ रुझान बढ़ा है जिसके लिए अधिक जमीन एवं पानी की जरूरत होती है। इन मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने के लिए क्रेडिट सुइस ने शरीर के निर्माण एवं जिंदा रहने के लिए जरूरी खाद्य कैलरी की मांग एवं आपूर्ति की गहन पड़ताल की। कैलरी की मांग जनसंख्या बढऩे के अनुपात में बढ़ती जाती है और कुपोषण स्तर में गिरावट आने एवं औसत शारीरिक वजन में वृद्धि का भी इसमें योगदान है। दरअसल बड़े आकार वाले शरीर के विकास एवं उसे जीवित रखने के लिए अधिक कैलरी की जरूरत होती है। नई पीढ़ी के अधिक लंबे एवं वजनदार होने का यह मतलब भी है कि इसे अधिक कैलरी की जरूरत भी है। वैश्विक कैलरी मांग 1960 के बाद करीब पांच दशकों तक सालाना 2 फीसदी की दर से बढ़ी लेकिन बीते दशक में जनसंख्या वृद्धि सुस्त पडऩे से मांग में 1.5 फीसदी की कमी दर्ज की गई। प्रति व्यक्ति मांग में वृद्धि लंबे समय से 0.5 फीसदी के स्तर पर अपरिवर्तित रही है लेकिन थोड़े समय में निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में आय वृद्धि का इस पर असर पड़ता है। इसकी वजह यह है कि कार्बोहाइड्रेट-जनित कैलरी की मांग प्रति व्यक्ति 1,800 कैलरी प्रतिदिन पर ही स्थिर रहती है और इससे अधिक कैलरी अपेक्षाकृत महंगे स्रोतों से ही मिलती है: वसा (मुख्यत: वनस्पति तेल एवं मांस) या फिर सस्ते अनाज से मिलने वाले कार्बोहाइड्रेट के बजाय फलों, सब्जियों, दालों एवं दूध जैसे महंगे स्रोतों से कैलरी जुटाई जाए। कोरोनावायरस पर काबू पाने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से आर्थिक गतिविधियां ठप होने के पहले भी वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि 2019 में एक दशक के न्यूनतम स्तर पर थी। सिद्धांत रूप में आय घटने का असर प्रति व्यक्ति कैलरी मांग पर सबसे कम पडऩा चाहिए लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि कम आय वाले परिवार अपने खानपान में कटौती कर सकते हैं। मसलन, नेपाल में येल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अप्रैल के फसल कटाई समय में भी खाद्य असुरक्षा की स्थिति देखी है जबकि आम तौर पर ऐसा काम न होने के मौसम में ही होता है। ऐसी स्थिति में नेपाल के एक चौथाई गरीब ग्रामीणों ने या तो अपने खाने की मात्रा कम कर दी या फिर दिन भर में किए जाने वाले भोजन में कटौती कर दी। इन कारकों से कैलरी की प्रति व्यक्ति मांग प्रभावित होती है। दूसरी तरफ, खाद्य कैलरी पर रोशनी डालने की प्रक्रिया काफी हद तक निर्बाध रही है। प्रति हेक्टेयर उपज बढऩे से आपूर्ति बेहतर हुई है और मौजूदा संकट भी इस रुझान को बदल नहीं सकता है। अनाज पहले से ही प्रचुर मात्रा में हैं और चीन एवं भारत के गोदाम अनाज से भरे हुए हैं। खासकर भारत भूमि उत्पादकता पैमानों के करीब पहुंचता जा रहा है और अब तो उसे अपना अतिरिक्त अनाज संभालने में समस्या होने लगी है। वैश्विक भूभाग का महज 2 फीसदी होने के बावजूद भारत में वैश्विक फसल-योग्य जमीन का 12 फीसदी अंश है। वैश्विक स्तर पर खेती के रकबे में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वसा उत्पादन पर जोर है। उदाहरण के तौर पर पॉम, कॉर्न एवं सोया के फसल रकबे में ही वर्ष 2000 के बाद से 86 फीसदी वृद्धि देखी गई है। जलवायु परिवर्तन एवं मौसमी गतिरोध अब ठीक से दर्ज हो रहे हैं। मौसमी विपदाओं की आवृत्ति भी वर्ष 2000 के बाद बढ़ी नहीं है। सिंचाई सुविधाओं में सुधार, रणनीतिक भंडार अधिशेष और खाद्य व्यापार बढऩे से भी जल्दी खराब न होने वाले कृषि उत्पादों की आपूर्ति में अस्थिरता कम हुई है। हालांकि पूर्वी अफ्रीका एवं दक्षिण एशिया में टिड्डी दलों के आतंक जैसी नई चुनौतियां हमेशा ही रहती हैं। मांस, अंडे एवं दूध के जरिये कैलरी हासिल करने की प्रक्रिया भी अधिक तेज हुई है। भोजन रूपांतरण अनुपात (मवेशियों से एक खाद्य कैलरी पाने के लिए उसे दी जाने वाली कैलरी की संख्या) 4 से 12 के बीच होता है और यह मांस की किस्म पर निर्भर करता है। काफी ऊर्जा जानवरों के अंगों के निर्माण और उनके उपापचय में ही खर्च हो जाती है। इस वजह से वसा में एक खाद्य कैलरी के लिए कार्बोहाइड्रेट से कहीं ज्यादा पानी की जरूरत होती है। कुछ अनुमानों के मुताबिक, पशु-स्रोतों से एक कैलरी जुटाने के लिए अनाज की तुलना में 10-50 गुना अधिक पानी चाहिए। हालांकि बढ़ते औद्योगीकरण और सुदृढ़ीकरण से भोजन रूपांतरण अनुपात एवं पानी का इस्तेमाल कम हो रहा है और इससे आपूर्ति प्रतिक्रिया समय भी नीचे आ रहा है। पोल्ट्री एवं पोर्क के एक टन मांस के लिए पानी की जरूरत औद्योगिक स्तर पर सामान्य तरीकों से उत्पादन की तुलना में 40 से 60 फीसदी कम है। मसलन, हम अपने आसपास जिन देसी सूअरों को घूमते देखते हैं, वे साल भर में 60 किलो वजन के हो जाते हैं जबकि गुलाबी रंगत एवं हल्के बालों वाले सूअर छह महीनों में ही 90 किलो तक वजनी हो सकते हैं। कृत्रिम तरीके से तैयार मांस कैलरी रूपांतरण में अधिक सक्षम है। एक कृत्रिम मांस उत्पादक की तरफ से कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक पशुओं के मांस की तुलना में कृत्रिम मांस में 90 फीसदी कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, 93-99 फीसदी कम पानी एवं भूमि की जरूरत और 46 फीसदी कम ऊर्जा उपभोग होता है। वनस्पति आधारित मांस की हिस्सेदारी वर्ष 2018 में मूल्य के हिसाब से वैश्विक मांस मांग का महज 3.5 फीसदी थी और 2025 तक करीब सात फीसदी हो जाने की उम्मीद है। मांग में बदलाव न होने पर खाद्य कैलरी आपूर्ति के उत्पादन एवं रूपांतरण में स्थिर सुधार के कई निहितार्थ हैं। पहली और सबसे अहम बात खाद्य महंगाई में कमी होना है। पिछले कुछ दशकों में कुल मुद्रास्फीति को नीचे लाने में इसका बड़ा योगदान रहा है। जल्द खराब होने वाले खाद्य उत्पादों की आपूर्ति में अंशकालिक बाधा आ सकती है लेकिन खाद्य महंगाई के निचले स्तर पर रहने का सिलसिला आगे भी जारी रहना चाहिए। वैश्विक स्तर पर अतिरिक्तपैसे आने से सिद्धांत रूप में समग्र मुद्रास्फीति बढऩी चाहिए लेकिन इसकी संभावना नहीं है कि उपभोग में 25-45 फीसदी भारांक रखने वाला खाद्य क्षेत्र ही इसका जरिया बनेगा। जब तक आपूर्ति बढऩे की वजह से अधिशेष की स्थिति बनी रहेगी, तब तक वसा एवं प्रोटीन के दाम कम ही रहेंगे और सेहतमंद खुराक के लिए यह बेहद जरूरी है। इससे डिब्बाबंद खाना बनाने वाली कंपनियों का मार्जिन भी बढ़ेगा। इसका यह भी मतलब है कि खेतों पर कम दबाव होगा। हमारा अनुमान है कि वर्ष 2025 तक मांस के जरिये वसा उपभोग की मांग पूरा करने के लिए अतिरिक्त 1 करोड़ हेक्टेयर में मक्के एवं सोया खेती की जरूरत होगी। लेकिन तब तक 75 लाख हेक्टेयर में अनाज की अतिरिक्त खेती भी हो रही होगी। उपग्रह की तस्वीरें वैश्विक स्तर पर पत्तियों का दायरा बढऩे की तस्दीक कर रही हैं। हालांकि इससे दुनिया भर में कृषि में लगे करोड़ों लोगों की आय पर दबाव भी बढ़ेगा। कृषि आय को बचाने के लिए सरकारें सब्सिडी बढ़ाती रही हैं जो अब वैश्विक कृषि जीडीपी का 20 फीसदी तक हो चुका है। लेकिन यह नाकाफी हो सकता है जिससे सामाजिक एवं राजनीतिक चुनौतियां पैदा हो सकती हैं। (लेखक क्रेडिट सुइस के एशिया-प्रशांत रणनीति सह-प्रमुख एवं भारत रणनीतिकार हैं)
