वित्त मंत्री जब भी संसद में चालू वित्त वर्ष के बजट संबंधी नए आंकड़े पेश करेंगी, उस समय यह सच भी सामने आ जाएगा कि कोविड-19 ने अर्थव्यवस्था की वित्तीय स्थिति को तात्कालिक रूप से किस प्रकार प्रभावित किया है। इसके बाद चर्चा इसी विषय पर केंद्रित रहेगी। कोविड ने राजकोषीय स्थिति पर जो असर डाला है उसे टाला नहीं जा सकता, यकीनन कई लोग कहेंगे कि सरकार को इस स्थिति में अपना खजाना खोलने में थोड़ी और उदारता दिखानी थी। इस विषय को छोड़ भी दें तो हमारे लिए अधिक चिंता की बात यह है कि (यह विषय कोविड की चर्चा में खो भी सकता है) हाल के वर्षों में अर्थव्यवस्था में धीमापन आने से वित्तीय प्रतिगमन की स्थिति बनी है। इसने भी कोविड संकट को लेकर सरकार की प्रतिक्रिया को सीमित करने का काम किया है। समस्या राजस्व और व्यय दोनों मोर्चों पर रही है। हाल के वर्षों में जीडीपी की तुलना में राजस्व में लगातार कमी आई है जबकि व्यय में इजाफा देखने को मिला है। ऐसा तब हुआ है जबकि ईंधन कीमतों में गिरावट के चलते पेट्रोलियम संबंधी सब्सिडी बिल में कमी आई है। कुल मिलाकर देखें तो व्यय में इजाफा नई कल्याण योजनाओं का वित्त पोषण करने की वित्तीय प्रतिबद्धताओं को ही परिलक्षित करता है। इस इजाफे को बजट से इतर तरीके से ढका गया। चूंकि राजस्व और व्यय विपरीत दिशा में जाते हुए प्रतीत हुए इसलिए दोनों के बीच का अंतर मोदी सरकार के कार्यकाल के शुरुआती वर्षों के बाद निरंतर बढ़ता चला गया। यह दीर्घावधि की राजकोषीय समस्या है जिसे हल किया जाना है। इसका संबंध कोविड को लेकर किए गए अल्पकालिक उपायों से नहीं है। उदाहरण के लिए अप्रत्यक्ष कराधान से आए राजस्व के रुझान को देखें तो वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था के पहले इसमें सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवा शुल्क राजस्व शामिल था। वर्ष 2013-14 में जीडीपी में इनकी हिस्सेदारी 4.4 फीसदी थी और नई सरकार द्वारा पेट्रोलियम कीमतों में गिरावट का लाभ लेकर पेट्रोलियम कर बढ़ाने से इसमें इजाफा हुआ। तीन वर्ष पहले जब जीएसटी लागू किया गया तब अप्रत्यक्ष कर जीडीपी के 5.4 फीसदी हो गया था। चिंतित करने वाली बात यह है कि अगले दो वर्ष इसमें लगातार गिरावट आई और यह 4.9 फीसदी और 4.8 फीसदी रहा। यह कोविड के आगमन से पहले की बात है। इसी समय गैर कर राजस्व और पूंजीगत प्राप्तियों में भी गिरावट आई। दोनों को साथ में देखा जाए तो वर्ष 2013-14 में ये जीडीपी के 6.8 फीसदी थे। गत वर्ष संशोधित अनुमानों के बाद ये 4 फीसदी की सीमा में आ गए। पिछले एक दशक मेंं पूंजीगत प्राप्तियां जीडीपी के 7 फीसदी से घटकर 2 फीसदी हो गईं। ये रुझान बताते हैं कि अन्य चीजों के अलावा सरकार दूरसंचार क्षेत्र से पूरा लाभ लेने में नाकाम रही है। विनिवेश कार्यक्रम की विफलता भी इसमें नजर आती है। नतीजा, सरकार की कुल प्राप्तियां जो एक दशक पहले जीडीपी का 15.8 फीसदी थी वे अब घटकर 12 फीसदी रह गई हैं। राजस्व के मोर्चे पर इकलौती सकारात्मक बात है प्रत्यक्ष कर राजस्व में उछाल। इसमें आयकर और निगमित कर शामिल हैं। यह सही है कि अप्रत्यक्ष कर राजस्व में कमी के बाद जीएसटी दरों में कटौती देखने को मिली लेकिन बड़ी समस्या कर राजस्व नहीं बल्कि अन्य राजस्व स्रोतों से संबंधित है। कुछ समय के लिए व्यय भी राजस्व की राह पर चला और उसमें भी जीडीपी की तुलना में गिरावट आई। कम पेट्रोलियम सब्सिडी के कारण ऐसा हुआ लेकिन बाद में इसने दोबारा तेजी पकड़ ली। इस बीच स्वास्थ्य बीमा और किसानों को नकद भुगतान जैसी नई योजनाओं की शुरुआत के बाद व्यय के मोर्चे पर भी कड़ाई आई है। सरकार ने इस समस्या को दो तरह से हल करने की कोशिश की है। पहला है भारतीय रिजर्व बैंक तथा सरकारी उपक्रमों से अधिक लाभांश की मांग करना और दूसरा पेट्रोलियम करों में इजाफा करना। कांग्रेस ने उसके इन कदमों की आलोचना की है। बहरहाल, समग्र वित्तीय स्थिति को देखते हुए और यह समझते हुए कि लागत आधारित मुद्रास्फीति नदारद है, यह तरीका एकदम उचित है। तीसरा विकल्प यह हो सकता है कि सरकारी बैंकों मेंं पूंजी डालनी बंद कर दी जाए। उनसे कहा जाएगा कि वे अपना ध्यान रखें या फिर निजीकरण के लिए तैयार रहें। इन दोनों में से कोई भी बात विकल्प है या नहीं यह संदेहास्पद है लेकिन यह बताता है कि किस तरह के निर्णय लिए जा सकते हैं।
