मौजूदा आर्थिक संकट से उबरने में विशेषज्ञों की मदद ले सरकार | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / July 03, 2020 | | | | |
भारत इस वक्त कई तरह के संकटों से जूझ रहा है। कोविड-19 महामारी ने स्वास्थ्य संकट को जन्म दिया है। वायरस का प्रसार रोकने की कोशिश में अर्थव्यवस्था में और अधिक मंदी आई है और आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के साथ झड़प इन संकटों के प्रबंधन को और कठिन बना रही हैं।
मोदी सरकार इन चुनौतियों से निपटने में व्यस्त है। बीते कई सप्ताह में सरकार इनसे निपटने के लिए कई नीतियां, पैकेज और कूटनयिक और सैन्य पहलों के साथ सामने आई। इन उपायों के असर के बारे मेंं बात करना जल्दबाजी होगी। परंतु सरकार ने स्वास्थ्य और आर्थिक चुनौतियों पर जिस तरह प्रतिक्रिया दी है वह ध्यान देने लायक है।
किसी भी सरकारी ढांचे में, खासकर लोकतांत्रिक देश में निर्णय प्रक्रिया में चुने हुए राजनीतिक नेतृत्व को ही सामने रहना चाहिए और ऐसा ही हुआ। राजनीतिक नेतृत्व को आईएएस समेत अफसरशाही ने तमाम जानकारी मुहैया कराई और संकट से जुड़ी नीतियां बनाने में भी अहम भूमिका निभाई।
बहरहाल शासन के मौजूदा ढांचे में पेशेवर विशेषज्ञोंं की कमी है। सवाल यह है कि अगर सरकारी या बाहरी विशेषज्ञों की सलाह ली गई होती तो क्या सरकार की पहल अधिक बेहतर साबित हो सकती थीं?
कोविड-19 महामारी के प्रसार के प्रबंधन को ही लीजिए। क्या वायरस के नियंत्रण और प्रबंधन का काम चिकित्सकों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों और महामारीविदों को संभालना चाहिए था? कुछ चिकित्सक और स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं जो सरकार को सलाह देते रहते हैं। ये विशेषज्ञ सरकार को आंतरिक स्तर पर सलाह दे रहे हैं लेकिन मौजूदा व्यवस्था में दो कमियां हैं।
पहली, वायरस के प्रबंधन से जुड़े निर्णय लेने का अधिकार अफसरशाहों के एक समूह और राजनीतिक नेतृत्व के हाथ में था। राजनीतिक नेतृत्व के अंतिम निर्णय लेने में कुछ भी गलत नहीं है। दिक्कत यह है कि उसे विशेषज्ञों से पर्याप्त जानकारी नहीं मिल पाती। दूसरा, जनता में यह धारणा घर कर रही है कि ऐसे अफसरशाह जो कल तक पर्यटन या शिक्षा संभाल रहे थे वे अब महामारी से निपटने की नीतियां बना रहे हैं।
ये दोनों कमियां सरकार की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित कर सकती हैं। ऐसी महामारी से निपटने के लिए बनने वाली सरकारी नीतियों के निर्माण में विषय विशेषज्ञों को सीधे तौर पर शामिल करना जरूरी है। ऐसे मामलों में उनका चेहरा ही आगे होना चाहिए। पेशेवरों की सलाह के प्रभाव की कभी अनदेखी नहीं करनी चाहिए। उससे भी अहम बात यह है कि महामारी की स्थिति में लोगों को सरकार की स्वास्थ्य सेवा नीतियों पर यकीन तब और अधिक होता है जब उन्हें पेशेवर और विशेषज्ञ बनाते हैं।
भारत में भी मुंबई के धारावी इलाके में वायरस के प्रसार को रोकने में सरकार ने जो सफलता हासिल की उसका श्रेय सीधे तौर पर विशेषज्ञों और उनकी नीतियों को दिया जा सकता है। बेंगलूरु में भी शुरुआत में कामयाबी मिल गई क्योंकि वहां वायरस का प्रसार रोकने की नीति बनाने और उसे अमल में लाने पर विशेषज्ञों की मदद ली गई।
आर्थिक नीति निर्माण के क्षेत्र में भी विशेषज्ञों की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती लेकिन सरकार में ऐसे विशेषज्ञ अधिक नहीं हैं जो नीति निर्माण में निर्णायक ढंग से अपनी बात कह सकें। ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार में स्तरीय अर्थशास्त्री सेवारत न हों या सलाहकार की भूमिका में न हों। विवेक देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं। साजिद जेड चिनॉय और आशिमा गोयल के रूप में उन्हें दो अंशकालिक सहायक मिले हुए हैं। वित्त मंत्रालय में कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद पर हैं। कुछ महीने पहले सरकार ने पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव सेन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन भी किया था ताकि यह पता लगाया जा सके कि आर्थिक आंकड़ों के संग्रहण और उन्हें एकत्रित करने की प्रक्रिया और मजबूत कैसे बनाई जा सके।
दिक्कत यह है कि आर्थिक नीति निर्माण में उनकी भागीदारी के बारे में कभी पता नहीं चलता। बहुत संभव है कि ये विशेषज्ञ वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री को अपनी सलाह नोट या मशविरा पत्र के माध्यम से देते हों जो सार्वजनिक नहीं किए जाते। कुछ वर्ष पहले ऐसी खबर आई थी कि परिषद ने अहम आर्थिक नीति के मुद्दों पर रिपोर्ट तैयार की है। हाल के महीनों में इसके सदस्यों ने व्यापार और वृद्धि को लेकर नीतिगत प्रपत्र तैयार किए हैं। परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि ये आंकड़े आर्थिक संकट से निपटने में मददगार साबित हो रहे हैं या नहीं।
यहां तक कि मुख्य आर्थिक सलाहकार को भी नॉर्थ ब्लॉक में बहुत अधिक मुखर नहीं माना जाता। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या प्रणव सेन की अध्यक्षता वाली समिति ने अपना काम पूरा किया और सरकार इन अनुशंसाओं पर क्या कदम उठाएगी? अतीत में विशेषज्ञ समितियों की अनुशंसाओं को हमने सरकारी आलमारियों की धूल फांकते भी देखा है।
अलग-अलग अनुमानों के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था 2020-21 में 5 फीसदी तक सिकुड़ सकती है। पिछली बार अर्थव्यवस्था में इतनी अधिक गिरावट सन 1979-80 में आई थी। यदि सरकार को मौजूदा वर्ष के आर्थिक संकट से निपटना है तो उसे उन अर्थशास्त्रियों और आर्थिक प्रशासकों का नजरिया भी समझना चाहिए जिन्होंने चार दशक पहले 5.2 फीसदी की गिरावट का सामना किया था और उससे निपटे थे। उस समय के ज्यादा अर्थशास्त्री अब मौजूद नहीं हैं लेकिन देश में ऐसे अर्थशास्त्रियों और आर्थिक प्रशासकों की कमी नहीं है जो सन 1991-92 अथवा 2008-09 के संकट से निपटने में शामिल थे। अब समय आ गया है कि सरकार अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के लिए विशेषज्ञों की सलाह ले और एक समूह का गठन करे जो उसे संकट से उबरने में मदद करे। संकट के समय विशेषज्ञों और उनकी विशेषज्ञता की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।
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