चीन ने लद्दाख में भारी साजो-सामान के साथ अपनी सेना का जमावड़ा करके युद्ध जैसे हालात क्यों बनाए हैं? वह भारत से क्या चाहता है? भारत इस पर क्या प्रतिक्रिया देगा यह इस बात पर निर्भर है कि वह इन हालात को कैसे समझता है? आश्चर्य नहीं कि इस घटनाक्रम के बाद चीन विशेषज्ञों, भू-सामरिक विशेषज्ञों और सैन्य विशेषज्ञों को काम मिल गया है। इसके अलावा हम रणनीतिक समझ के लिए सुन जू अथवा कौटिल्य की विरासत की शरण लेते ही रहते हैं। इतना ही नहीं हिंदी फिल्मों में आइटम नंबर की तरह यदाकदा क्लॉजविट्ज और मैकियावेली भी चर्चा में आते रहते हैं। कन्फूशियस और बुद्ध की तरह आप इन दोनों के हवाले से कुछ भी कह दीजिए कोई उसकी जांच नहीं करने वाला। दिक्कत यह है कि भारत में लोग अभी भी शतरंज के खेल की मानसिकता में हैं जबकि चीन 'गो' नामक खेल खेलता है। शतरंज में आप विरोधी के राजा को निशाना बनाते हैं जबकि 'गो' गेम में आप दुश्मन को कई तरह से घेर लेते हैं और आखिरकार वह घुटने टेकने पर मजबूर हो जाता है। एक बार फिर यह दिलचस्प सोच है, खासकर ऐसे समय में जबकि व्हाट्सऐप ही तमाम तरह का ज्ञान फैला रहा है और जो लोग आज महामारी विशेषज्ञ और वायरसों के जानकार हैं वे टिड्डियों के हमले से रातोरात कीट विशेषज्ञ, सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद मनोचिकित्सक बन जाते हैं वे आज रणनीतिकार बने हुए हैं। यदि संास्कृतिक रूप से प्रचलित धारणाओं को अपने दिलोदिमाग पर जगह बनाने देते हैं तो इसमें दो समस्याएं हैं। चीन और भारत आज ऐसी नई जटिलताओं वाली व्यवस्था हैं जिन्हें ऐसे सामान्यीकरण से नहीं समझा जा सकता। वह हमारे मस्तिष्क की सोच को सीमित कर देता है। जब तक हम सांस्कृतिक और जातीय जालों में उलझे रहेंगे हमारे दिमाग पर पड़ी धुंध गहरी होती जाएगी (क्लॉजविट्ज के प्रशंसकों से क्षमा)। परंतु अगर हम मौजूदा हकीकतों के बारे में सोचें तो शायद कुछ जवाब मिल जाएं। चीन लद्दाख में क्या करना चाहता है? करीब 20 वर्ष पीछे जाकर देखिए कि भारत पाकिस्तान से कैसे निपट रहा था। याद कीजिए भारत द्वारा खोजी गई कूटनीतिक अवधारणा को जिसे 'बल प्रयोग की कूटनीति' कहा गया था। मुझे नहीं पता इस शानदार अवधारणा का अविष्कार किसने किया था, जसवंत सिंह ने या स्वर्गीय ब्रजेश मिश्रा ने। इनमें से एक ने भारतीय संसद पर आतंकी हमले के बाद दिसंबर 2001 में ऑपरेशन पराक्रम की शुरुआत करते हुए ऐसा किया था। इसके तहत भारत ने सीमा पर सेनाओं की तैनाती बढ़ाई, भारी साजो-सामान वहां पहुंचाए और ऐसा माहौल बनाया मानो जंग की तैयारी हो। इन दिनों वास्तविक नियंत्रण रेखा के आरपार ऐसा ही माहौल बना हुआ है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि चीन हम पर हमारा ही दांव आजमा रहा है? सेना और साजो-सामान का जमावड़ा कहीं उसकी ओर से हमारे खिलाफ बल प्रयोग की कूटनीति का उदाहरण तो नहीं है? यदि ऐसा है तो वह बदले में क्या चाहता है? वह लद्दाख में जमीन के कुछ टुकड़ों के लिए तो ऐसा जोखिमभरा कदम नहीं उठा रहा होगा। न ही वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की मान्यता के लिए या फिर अक्साई चीन को औपचारिक रूप से उसे सौंपने या पूर्व में तवांग के आकार की भूमि उसे देने के लिए ऐसा कर रहा होगा। यह कुछ ज्यादा बड़ी महत्त्वाकांक्षा होगी और ऐसा नहीं कभी नहीं होगा। सवाल यह है कि 14,000 फुट की ऊंचाई पर ऐसा करके चीन आखिर क्या हासिल करना चाहता है? मान लेते हैं कि चीन बल प्रयोग की कूटनीति का इस्तेमाल कर रहा है और कह रहा है कि अगर आप चाहते हैं कि हम वापस लौटें तो हमारी बात मानिए। सवाल यह है कि भारत के लिए इन हालात में सर्वश्रेष्ठ प्रतिक्रिया भला क्या होगी? हालिया दर्ज संदर्भ तथा ऐसी अन्य घटनाएं किसी भी पुराने ज्ञान या मंत्र से अधिक उचित होती हैं। भारत ने अपनी बल प्रयोग की कूटनीति से क्या हासिल किया? उसके लक्ष्य क्या थे? पाकिस्तान ने इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया दी? हालांकि मैं यह मानता हूं कि ऐसी तुलना के अपने जोखिम हैं। भारत, पाकिस्तान नहीं है। कभी नहीं हो सकता। हम केवल युद्ध का खेल खेल रहे हैं। भारत पाकिस्तान से केवल यह चाहता था कि वह आतंकवाद का इस्तेमाल बतौर सरकारी नीति करना बंद करे। वह लक्ष्य संसद पर हमले के एक महीने के भीतर हासिल हो गया जब परवेज मुशर्रफ ने दुनिया भर को संबोधित करते हुए इस विषय में प्रतिबद्धता जताई। बल्कि उन्होंने ऐसे 24 आतंकवादियों की सूची भी स्वीकार की जो पाकिस्तान में थे और भारत में वांछित थे। इनमें दाऊद इब्राहिम का नाम शामिल था। उन्होंने वादा किया कि उन्हें तलाश कर भारत को सौंपा जाएगा क्योंकि पाकिस्तान ने उन्हें शरण नहीं दी है। भारत कुछ और ठोस चाहता था इसलिए युद्ध जैसा जमावड़ा बना रहा। कई बार चीजें हाथ से निकलती नजर आईं। खासतौर पर तब जबकि आतंकवादियों ने कालूचक कैंट में भारतीय जवानों के परिवारों पर हमला किया। परंतु संयम बरकरार रहा क्योंकि एक तो पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव था, वहीं भारत भी जंग नहीं चाहता था। उस वक्त मैंने इस प्रक्रिया में शामिल सभी प्रमुख लोगों, जसवंत सिंह, ब्रजेश मिश्रा और अटल बिहारी वाजपेयी से पूछा था कि क्या तनाव के नियंत्रण से बाहर हो जाने का जोखिम नहीं था। मिश्रा ने एनडीटीवी के कार्यक्रम वॉक द टॉक में इसका उत्तर देते हुए कहा था कि बलप्रयोग की कूटनीति के कारगर होने के लिए खतरा इतना वास्तविक होना चाहिए कि सभी इस पर यकीन करें। क्या इस बार एलएसी पर भी ऐसा ही नहीं लग रहा? भारत को उस नीति से काफी कुछ हासिल हुआ। उसके बाद कई वर्षों तक शांति कायम रही। किसी को पाकिस्तान से यह आशा नहीं थी कि वह हमेशा के लिए अपनी बात पर कायम रहेगा लेकिन यह भी देखना होगा कि दोनों पक्षों ने क्या सही किया और क्या नहीं। भारत ने फौजी जमावड़े के साथ शानदार शुरुआत की लेकिन वह यह नहीं समझ पाया कि जीत की घोषणा कब करनी है। यह उसी दिन किया जा सकता था जिस दिन मुशर्रफ ने भाषण दिया। पाकिस्तान ने जल्दी हार स्वीकार करके गलती की थी। अगर भारत ने उसी समय जीत की घोषणा कर दी होती और जमावड़ा हटा लिया होता तो भी उतना ही लाभ होता जो हमें हुआ लेकिन इसकी कीमत बहुत अधिक चुकानी पड़ी। बाद में उपजी अनिश्चितता से भी बचा जा सकता था। यह दबाव की कूटनीति की सीधी जीत होती परंतु हमारी अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं। दूसरी ओर पाकिस्तानी समय के साथ उबर गए और उन्होंने भारत से निपटने के लिए अपनी रक्षा व्यवस्था मजबूत करने का निर्णय लिया। उन्हें कामयाबी भी मिली। एक समय के बाद गतिरोध निरर्थक हो गया और पांच दिवसीय क्रिकेट टेस्ट मैच जैसा नीरस भी। अब उसी समीकरण में जब भारत विपरीत परिस्थिति में है तो वह कुछ सबक ले सकता है: 1. कभी डरें नहीं, पीछे न हटें। तार्किक रहें, परदे के पीछे खुले दिमाग से बात करें। परंतु कभी मुशर्रफ की तरह जल्दी हार न मानें। 2. दूसरा पक्ष क्या चाहता है यह समझने में पूरा समय लें। मांग कम है या ज्यादा? देखिए कि क्या जवाब दिया जा सकता है लेकिन कभी दबाव में आकर कुछ न दें। 3. लंबे समय के लिए तैयार रहें। अगर लगता है कि चीन दबाव बना रहा है और वह जो चाहता है वह अवास्तविक है तो उसे वहां बने रहने दें और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पूरी तैयारी करके उसे वापस भेजें। 4. आखिर में यह याद रखें कि कोई दो हालात एक जैसे नहीं होते। प्रेम, युद्ध या खेलकूद कभी भी दो घटनाएं समान नहीं होतीं। इसलिए हालात से निपटने की तैयारी रखें। मिश्रा के शब्दों को याद रखें: बल प्रयोग की कूटनीति के कारगर होने के लिए यह आवश्यक है कि युद्ध की आशंका इतनी वास्तविक हो कि सबको उस पर यकीन हो। इससे निपटने का तरीका भी यही है कि युद्ध की आशंका को एकदम सही मानकर तैयारी की जाए।
