भारत-चीन सीमा संघर्ष के मसले पर 19 जून को हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्य ने सीमा पर भारत के पक्ष को लेकर असमंजस पैदा कर दिया है और इससे सीमा वार्ताओं में हमारा पक्ष खासा कमजोर हो सकता है। प्रधानमंत्री के इस बयान में दावा किया गया कि 'न तो कोई हमारे क्षेत्र में घुसा है और न ही कोई वहां पर अब भी मौजूद है और न ही हमारी कोई चौकी किसी के कब्जे में है।' फिर सवाल खड़ा होता है कि गलवान घाटी समेत कई जगहों पर गंभीर किस्म की झड़पें क्यों हुईं जिसमें हमारे 20 जवानों को शहादत देनी पड़ी? चीन ने पैंगोंग झील इलाके में फिंगर 4 और 8 के बीच स्थायी ढांचे बनाने के अलावा अतिरिक्त सैन्यबल भी तैनात कर रखे हैं और वह भारतीय गश्ती दलों को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) तक पहुंचने से भी रोक रहा है। चीन ने अब एक और नया दावा करते हुए कहा है कि गलवान घाटी क्षेत्र पर उसका अधिकार है जबकि इस इलाके में पिछले कई वर्षों से उसकी कोई मौजूदगी नहीं रही है। हमें एलएसी को लेकर 'समझ का फेर' शब्दावली का इस्तेमाल करने में सावधान रहना चाहिए। हमें बखूबी पता है कि एलएसी कहां है और हम इसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमें चीनी अतिक्रमण की गंभीरता को यह कहते हुए कमतर नहीं आंकना चाहिए कि उनकी सोच अलग है। और न ही हमें दोनों पक्षों द्वारा दावा किए जाने वाले इलाकों में तथाकथित 'बफर जोन' को स्वीकार करने के जाल में ही फंसना चाहिए। हम अपनी ही जमीन पर बफर जोन को नहीं स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वास्तविक स्थिति को स्पष्ट करने करने की कोशिश में कुछ आलेखों में इसी तरह का संकेमिल रहा है। हमें चीन की इस चालबाजी को समझना चाहिए कि वह अपने अधिकार-क्षेत्र से आगे बढ़कर दावा कर रहा है। ऐसा ही काम वह अन्य क्षेत्रों में भी कर सकता है। प्रधानमंत्री के इस बयान में चीन के इन दावों को वैधता प्रदान करने का जोखिम है। हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने उसके एक दिन बाद जारी लंबे बयान में स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है और दृढ़ता से कहा है कि 'भारतीय सैनिकों को गलवान घाटी समेत भारत-चीन सीमा के सभी क्षेत्रों में एलएसी के स्वरूप के बारे में बखूबी पता है।' भारत की तरफ से इस बात को दोहराया जाना बेहद अहम है। दरअसल चीन के व्यवहार के तरीके का एक इतिहास है। नवंबर 1985 तक भारत के साथ सीमा विवाद के समाधान के लिए चीन का औपचारिक रुख 'पैकेज प्रस्ताव' लाने का था जिसमें सीमा पर यथास्थिति को स्वीकार कर उसे अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने की बात थी। चीन के सर्वोच्च नेता तंग श्याओफिंग ने 1982 में इस बात को खुलकर कहा भी था। उन्होंने कहा था, 'पूर्वी क्षेत्र के लिए क्या हम मौजूदा यथास्थिति यानी कथित मैकमोहन रेखा को मान्य कर सकते हैं? लेकिन पश्चिमी क्षेत्र में भारत सरकार को भी मौजूदा यथास्थिति को मान लेना चाहिए।' नवंबर 1985 में आधिकारिक स्तर की छठे दौर की वार्ता में चीन ने एक बार फिर यह कहते हुए यह प्रस्ताव रखा कि पूर्वी क्षेत्र में उसके 90,000 वर्ग किलोमीटर इलाके पर भारत का 'कब्जा' होने से यह क्षेत्र सबसे विवादित इलाका है और इस वजह से भारत को पूर्वी सीमा पर 'सार्थक' रियायत देनी होगी और इसके बदले में वह पश्चिमी क्षेत्र में 'समुचित' रियायत देगा। असल में गोलपोस्ट बदल गए थे। चीन को लगा कि भारत की तुलना में उसकी आर्थिक एवं सैन्य क्षमता बढ़ गई है और अमेरिका के साथ आभासी गठजोड़ से अंतरराष्ट्रीय हालात भी उसके पक्ष में थे और भारत की कमान अपेक्षाकृत कम अनुभवी राजीव गांधी के हाथों में थी। उसके बाद 1986 में वांगदुंग की घटना हुई थी जब चीन के सैनिक एलएसी के दक्षिण में एक जगह पर कब्जा करने के साथ ही सुमदोरुंग नदी घाटी को अपना बताते हुए वहां तक चले आए थे। उसके बाद चीन की तरफ से लगातार यह कहा जाता रहा कि किसी भी सीमा समाधान में तवांग उसे ही मिलना चाहिए। शायद इसका ताल्लुक फरवरी 1987 में अरुणाचल प्रदेश को भारत संघ में एक राज्य बनाने से था। इसकी साम्यता जम्मू कश्मीर की स्थिति में गत अगस्त में हुए बदलाव की पृष्ठभूमि में गलवान घाटी में हुए हालिया संघर्ष से है। चीन ने इन दोनों ही बदलावों को खारिज किया था। सीमा पर चीन के इस कदम का दो देशों के बीच शक्ति संतुलन, दोनों देशों के अंदरूनी राजनीतिक परिदृश्य और समग्र क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक परिवेश को लेकर चीनी अवधारणा से करीबी नाता है। इसके उलट चीन की उस स्थिति को देखिए जब उसे लगा कि भारत के साथ उसकी शक्ति असमता घट रही है और सापेक्षिक रूप से भारत की अंतरराष्ट्रीय एवं कूटनीतिक हैसियत बढ़ी है। वर्ष 2003-07 कालखंड में भारत की सालाना वृद्धि दर 8-9 फीसदी थी और उसे चीन के बाद अगले बड़े वाणिज्यिक अवसर के रूप में देखा जा रहा था। भारत ने दिसंबर 2004 में आई भीषण सुनामी से बदहाल दक्षिण-पूर्व एशियाई एवं दक्षिण एशियाई देशों को राहत एवं मदद पहुंचाकर अपनी नौसैनिक ताकत का भी प्रदर्शन किया था। अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की नौसेनाओं के साथ भारतीय नौसेना के करीबी समन्वय ने ही आगे चलकर इन देशों के चतुर्गुट को जन्म दिया। अमेरिका के साथ ऐतिहासिक परमाणु सहयोग समझौता आसन्न दिख रहा था और अमेरिका, यूरोप, जापान एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के संबंध आजादी के बाद के शायद सबसे अच्छे दौर में थे। इस पृष्ठभूमि में भारत और चीन के रिश्तों में भी अप्रैल 2005 में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई और सीमा मुद्दों के समाधान के लिए राजनीतिक मानकों एवं सलाहकार सिद्धांतों को अंतिम रूप दिया गया। सिक्किम को भारत संघ के एक राज्य के तौर पर चीन ने स्वीकार कर लिया। भारत एवं चीन के संबंधों का वैश्विक एवं रणनीतिक आयाम होने और सीमा विवाद के त्वरित समाधान के लिए काम करने का जिक्र किया गया। लेकिन यह दौर थोड़े समय तक ही चला। वर्ष 2007-08 के वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट के बाद चीन ने आर्थिक एवं सैन्य क्षमताओं के मामले में अमेरिका से अपना फासला कम किया है। अब यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भारत की तुलना में पांच गुना हो चुका है और अब भी बढ़ रहा है। भारत की प्रगति रफ्तार सुस्त हुई है। यह 'ऐक्टिंग ईस्ट' के बजाय पूर्व एशिया से अपने कदम पीछे खींच रहा है। आरसेप समझौते से बाहर रहने के भारत के फैसले को चीन इसी नजरिये से देखता है। कोविड महामारी के दौर में भी चीन की आर्थिक स्थिति बाकी बड़े देशों से बेहतर रही है। जिस तरह इसने 1985-87 के दौरान गोल पोस्ट बदले थे, उसी तरह अब भी वह भू-राजनीतिक परिदृश्य को अपने अनुकूल मानकर वैसा ही करने की कोशिश कर रहा है। चीन के व्यवहार का यह तरीका पूर्व एवं दक्षिण चीन सागर में भी नजर आता है। चीन आगे भी भारत के साथ लगी सीमा पर नए-नए इलाकों पर अपना दावा जताता रहेगा। ऐसे में हमें बाकी चीजों पर अपनी प्राथमिकताएं नए सिरे से तय करने एवं रक्षा को मजबूत करने की जरूरत है। ऐसा करना आसान नहीं होगा लेकिन इसका कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन हमारी सीमा पर चीन के सपनों का दम घोंटने की हमारी काबिलियत में भरोसा जगाने और इस लंबी कवायद के लिए देश को तैयार करने के बजाय प्रधानमंत्री ने दुश्मनों के साथ दोस्तों को भी यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि भारत अपनी जमीन गंवाकर भी संतुष्ट हो जाएगा। इस तरह हमारी विश्वसनीयता कम हुई है। हमारी चीन नीति इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से निर्धारित होनी चाहिए। तनाव कम करने और एक दूसरे के संपर्क में बने रहने के साथ हमें ऐसी निवारक क्षमताएं हासिल करने पर भी ध्यान देना होगा कि चीन को जमीन पर दावा करना जोखिम से भरा एवं महंगा लगने लगे। हमारे पड़ोस में चीनी प्रभाव के विस्तार का खतरा भी है। एक सोची-समझी विदेश नीति, पड़ोस में अपने संसाधनों की नए सिरे से तैनाती और चीन के आक्रामक रुख को लेकर हमारे जैसे ही फिक्रमंद देशों के साथ अपने राजनीतिक एवं सुरक्षा इंतजामों का ध्यान रखना आज के वक्तकी जरूरत है। (लेखक पूर्व विदेश सचिव एवं सीपीआर के सीनियर फेलो हैं)
