चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर हुई झड़प में 20 जवानों की शहादत खतरनाक और चिंतित करने वाली घटना है। दोनों देशों को समस्त राजनीतिक और कूटनीतिक संचार माध्यमों का इस्तेमाल करके सीमा पर तनाव कम करने का प्रयास करना चाहिए ताकि स्थिति एक बड़े संघर्ष में न बदल जाए। जाहिर है यह प्रक्रिया लंबी होगी क्योंकि लद्दाख के विवादित इलाके में लंबे समय से गतिरोध बना हुआ था। न तो भारतीय और न ही चीनी अधिकारियों ने इस झड़प में मारे गए चीनी सैनिकों की तादाद के बारे में कोई स्पष्ट दावा किया है। हालांकि चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि दोनों पक्षों से जानें गई हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चीन के विदेश मंत्रालय ने दावा किया है कि झड़प एलएसी में 'उसके' इलाके में हुई। उसने यह भी कहा है कि समूची गालवान घाटी 'हमेशा' से चीन का संप्रभु अंग रही है। इससे यह चिंता उत्पन्न होती है कि पीएलए ने घाटी में जमीनी कब्जे की स्थिति बदल दी है। इन बातों को एक साथ रखकर देखें तो लगता है कि भारतीयों के सामने घटनाक्रम की सही तस्वीर नहीं रखी गई है। सरकार और उसकी ओर से बोलने वालों का दावा है कि गालवान इलाके में भारतीय सीमा में टेंट लगाने के बाद अपने इलाके में लौट चुके थे। यह सही नहीं लगता क्योंकि अगर ऐसा हुआ होता तो 15 और 16 जून की रात दुखद झड़प नहीं होती। घटनाक्रम को छिपाने के साथ दिक्कत यह है कि अगर सही घटनाएं सामने आ गईं तो सरकार विश्वसनीयता खो देगी और लोगों को लगने लगेगा कि पता नहीं उनसे क्या-क्या छिपाया जा रहा है। कोई भी यह अपेक्षा नहीं कर रहा कि सरकार सार्वजनिक रूप से चीन से बातचीत करेगी। अगर सारी बातें बाहर आईं तो सरकार की मोलतोल की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। इससे वह अनावश्यक रूप से सार्वजनिक निगरानी में आ जाएगी जैसा सन 1962 की जंग के वक्त हुआ था जब चीन के साथ किया गया संवाद संसद में पेश कर दिया गया था। ऐसे में सरकार कब और क्या जानकारी देगी यह उसके विवेकाधिकार में है। परंतु विवेकाधिकार और बहकावे में अंतर है। जो भी बताया जाए वह सही होना चाहिए। सरकार को सार्वजनिक रूप से एलएसी के हालात की गंभीरता के बारे में अपनी राय रखनी चाहिए तथा कड़े प्रतिवाद को लेकर आम सहमति बनानी चाहिए। डोकलाम में पीएलए के साथ पिछले संघर्ष में भारतीय सेना को तैनाती के मामले में लाभ हासिल था। वह इकलौता अवसर था जब भारत ने सियाचिन में पहले कदम उठाया था और इससे हमें सालतारो पहाडिय़ों पर कब्जा बनाए रखने में मदद मिली थी। मौजूदा हालात करगिल के ज्यादा समान हैं जहां पाकिस्तानी सेना पहाड़ों की ऊंचाइयों पर काबिज थी। पाकिस्तान से हम सैन्य और कूटनीतिक दोनों तरीकों से निपट सकते हैं लेकिन चीन का मामला अलग है। चीन को उस इलाके से हटाना काफी मुश्किल होगा जहां वह काबिज हो चुका है। ऐसा करने के लिए बदले में कुछ न कुछ देना होगा। भले ही उसका सार्वजनिक खुलासा किया जाए या नहीं। चिंता की बात यह है कि चीन ने दोनों मौकों पर भारतीय सेना को चौंकाया। यह सवाल कभी न कभी उठेगा और इसका जवाब भी देना होगा। यदि किसी तरह की असावधानी पाई गई है तो ऐसा करने वालों के खिलाफ भी कदम उठाया जाना चाहिए।
