भारत-ऑस्ट्रेलिया शिखर वार्ता से चीन को संदेश | श्याम सरन / June 12, 2020 | | | | |
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 जून को ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के साथ वर्चुअल शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेकर इतिहास बना दिया। दोनों नेताओं ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के संबंधों को एक समग्र सामरिक भागीदारी के स्तर पर ले जाने के साथ ही 'हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नौवहन सहयोग के बारे में साझा नजरिया' विकसित करने की बात की। इस दौरान दोनों देशों के बीच नौ अहम समझौते भी हुए जिनमें पारस्परिक लॉजिस्टिक समर्थन समझौता (एमएलएसए) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। दोनों देशों ने अब साल में दो बार होने वाले 2प्लस2 द्विपक्षीय विदेश एवं रक्षा सचिवों की बैठक को मंत्री-स्तरीय बैठक में तब्दील करने का फैसला भी किया है। फिलहाल भारत इस तरह की बैठकें अमेरिका और जापान के साथ ही करता रहा है। लेकिन अब भारत ने चतुर्गुट के सभी देशों के साथ उच्च-स्तरीय सुरक्षा एवं राजनीतिक संवाद का ढांचा विकसित कर लिया है।
यह चतुर्गुट भले ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा का एक अनौपचारिक सलाहकार मंच है लेकिन पहले से ही मंत्री-स्तरीय बैठकें हो रही हैं। अगला तर्कसंगत कदम यही होगा कि ऑस्ट्रेलिया को भी हर साल होने वाले मालाबार संयुक्त नौसेना अभ्यास में शिरकत के लिए आमंत्रित किया जाए। एमएलएसए का निष्कर्ष इसी दिशा की ओर संकेत करता है। यह चतुर्गुट हिंद महासागर एवं प्रशांत महासागर के समुद्री क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए एक बराबरी वाला गठजोड़ बनाने के केंद्र में है और अब ठोस रूप लेने लगा है। चीन की समुद्री रणनीति के दो आयाम हैं। पहला आयाम पीला सागर, ताइवान खाड़ी एवं दक्षिण चीन सागर में एकल वर्चस्व कायम करना और दूसरा आयाम है हिंद महासागर में अपनी नौसैनिक मौजूदगी बढ़ाना। म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान और जिबूती में बंदरगाहों का अधिग्रहण इसी रणनीति का हिस्सा है। चतुर्गुट की हिंद-प्रशांत रणनीति यही है कि चीन की नौसैनिक क्षमता को ऐसे क्षेत्र में सीमित रखा जाए जहां स्थानीय एवं बड़ी शक्तियों दोनों के ही अहम आर्थिक एवं सुरक्षा हित जुड़े हों।
इस शिखर सम्मेलन का परिणाम इस लिहाज से अहम है कि यह भारत और ऑस्ट्रेलिया दोनों के ही खिलाफ चीन की हालिया उकसाऊपूर्ण हरकतों का एक सुविचारित एवं अचूक जवाब है। ऑस्ट्रेलिया को उस समय चीन से कारोबारी समझौते खत्म करने की आक्रामक धमकी मिली जब ऑस्ट्रेलिया ने कोविड-19 महामारी के वैश्विकप्रसार में चीन की भूमिका की स्वतंत्र जांच की मांग रखी थी। ऑस्ट्रेलिया ने हॉन्गकॉन्ग के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने के चीन के फैसले पर चिंता जताने वाले अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन का भी साथ दिया तो उसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। ऑस्ट्रेलिया की घरेलू राजनीति में चीन के लगातार दखल देने और अपना प्रभाव जमाने की कोशिशों के चलते दोनों देशों के रिश्तों में पिछले कुछ वर्षों में तनाव पहले से ही आ चुका था।
अपने खनिज एवं खाद्य निर्यात, पर्यटन और बड़ी संख्या में आने वाले चीनी छात्रों की वजह से ऑस्ट्रेलिया चीन पर काफी हद तक आश्रित है। इस वजह से वह चीन के साथ तनातनी की स्थिति से बचता रहा है जबकि चीन अपनी आर्थिक स्थिति का लाभ उठाते हुए ऑस्ट्रेलिया को सबक सिखाना चाहता है।
जहां तक भारत का सवाल है तो भारत-चीन सीमा पर हाल के गंभीर टकराव के अलावा चीन की तरफ से भारत को अमेरिका एवं अन्य चतुर्गुट देशों के साथ गठजोड़ न बनाने के बारे में दी गई कड़ी चेतावनी को भी भारत के खिलाफ दांव के तौर पर देखा जा सकता है।
अगर इस शिखर सम्मेलन के नतीजों पर गौर करें तो भारत और ऑस्ट्रेलिया में से किसी ने भी चीन के दबाव के आगे घुटने नहीं टेके हैं। इसके उलट चीन के दबंगई भरे अंदाज ने अन्यथा हिचक भरे गठजोड़ को सशक्त करने का उलटा असर जरूर डाला है। यह एक अच्छी बात है। चीन को भी पता होना चाहिए कि वह इस क्षेत्र के दूसरे देशों के हितों को कुचलने का जितना प्रयास करेगा, उतनी ही तेज उसकी प्रतिक्रिया होगी।
हालांकि डॉनल्ड ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका के अप्रत्याशित रवैये को लेकर वाजिब चिंताएं भी हैं। यह मुमकिन है कि अमेरिका पहले की तरह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक मजबूत उपस्थिति बनाए रखने को लेकर उतना प्रतिबद्ध न हो। यह स्थिति भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के लिए कहीं अधिक नजदीक से काम करने की अधिक पुख्ता वजह है ताकि अमेरिकी विचलन की भरपाई की जा सके। उनके सहयोग से ही आसियान देश चीनी दबदबे का प्रतिरोध कर पाने की स्थिति में आ सकेंगे। अगर चीन इस क्षेत्र में आर्थिक एवं सुरक्षा संबंधी परिदृश्यों के नियम तय करता रहता है तो 'आसियान केंद्रीयता' को कायम रख पाना एक भ्रम ही होगा। फिर आसियान समूह के पास आचार संहिता के एकतरफा चीनी संस्करण को स्वीकार करने के सिवाय शायद कोई चारा ही नहीं होगा। यह सुरक्षा एवं वाणिज्यिक मसलों पर आसियान देशों के फैसलों पर चीन को एक आभासी वीटो देता है। यह उत्साहजनक है कि आसियान ने हिंद-प्रशांत परिदृश्य को लेकर अपना नजरिया अपनाया है जिससे इस अवधारणा को एक वैधता भी मिलती है। चतुर्गुट के देशों को द्विपक्षीय और सामूहिक दोनों ही स्तरों पर आसियान के देशों खासकर वियतनाम एवं इंडोनेशिया से संपर्क में रहने की जरूरत है जो हाल ही में अपने समुद्री क्षेत्र में चीन की आक्रामक गतिविधियों के शिकार हुए हैं। ये देश चीन एवं अन्य बड़ी ताकतों के बीच जारी संघर्ष में नहीं फंसना चाहेंगे लेकिन वे खुद को वर्चस्वकारी चीन का पिछलग्गू बनकर भी रह जाना नहीं चाहेंगे। इसके लिए चतुर्गुट की तरफ से अधिक गूढ़ कूटनीति की जरूरत होगी।
जहां भारत चतुर्गुट के अपने साझेदारों और इंडोनेशिया, वियतनाम और सिंगापुर के साथ मजबूत रक्षात्मक उपाय करने में सफल रहा है वहीं आर्थिक स्तंभ इसको मजबूती देने में कमजोर कड़ी साबित हो सकते हैं। भारत और ऑस्ट्रेलिया वर्ष 2014 में ही अपने समग्र आर्थिक भागीदारी समझौते (सीईपीए) को अंतिम रूप देने के काफी करीब आ चुके थे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उस समय ध्यान क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) समझौते पर था जो आसियान के दस देशों, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच मुक्त व्यापार एवं निवेश का एक महत्त्वाकांक्षी समझौता होने वाला था। लेकिन दुर्भाग्य से भारत इस समझौते का हिस्सा नहीं बना है और इस क्षेत्र के भावी आर्थिक पथ का सवाल तो मायने रखना बंद हो चुका है। सशक्त सुरक्षा मौजूदगी एक चमकदार आर्थिक संबंध की जगह नहीं ले सकती है। यह आग्रहपूर्ण वास्तविकता हमारे नीति-निर्माताओं की नजर में आने से रह जाती है। हालांकि भारत-ऑस्ट्रेलिया सीईपीए पर बातचीत फिर से शुरू करने की प्रतिबद्धता जताए जाने से हम थोड़े उत्साहित हो सकते हैं। शायद इससे न केवल ऑस्ट्रेलिया बल्कि क्षेत्र के अन्य देशों के साथ भी अधिक सक्रिय आर्थिक कूटनीति के दरवाजे खुलेंगे।
भारत की उच्च सुरक्षा प्रोफाइल का इस क्षेत्र में स्वागत है क्योंकि यह हिंद-प्रशांत में अधिक संतुलित सुरक्षा संरचना की बात करता है। हालांकि एक बड़ी एवं बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के तौर पर भारत को इस क्षेत्र के लिए एक अहम आर्थिक भागीदार भी होना चाहिए ताकि वह चीन की तरह अवसर मुहैया करा सके। भारत को आरसेप का हिस्सा बनने के साथ ऑस्ट्रेलिया संग व्यापार वार्ता बहाल करनी चाहिए। एक भरोसेमंद हिंद-प्रशांत रणनीति आर्थिक कातरता की नीति से नहीं हासिल की जा सकती है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर के सीनियर फेलो हैं)
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