कारखाने चले मगर पूंजी, मांग और कामगारों की कमी खले | रामवीर सिंह गुर्जर / नई दिल्ली June 12, 2020 | | | | |
लॉकडाउन खुलने के बाद दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में कारखाने काम तो करने लगे हैं, लेकिन कामकाज के लिए पूंजी की किल्लत और मांग की कमी के कारण उद्यमियों का इरादा पूरी क्षमता के साथ उत्पादन करने का नहीं है। कामगारों की कमी ने उत्पादन का पहिया हल्का कर दिया है। इसीलिए लॉकडाउन खुलने के 10 दिन बाद भी कारखानों में 30 से 50 फीसदी क्षमता के साथ ही उत्पादन हो रहा है।
दिल्ली में ढाई-तीन लाख विनिर्माण इकाइयां हैं। उनमें से अधिकतर के सामने कामकाजी पूंजी की कमी ही सबसे बड़ी चुनौती है। भुगतान अटकने और मांग नहीं होने से उद्योग के पास पूंजी नहीं है। जिस पर बंदी के दौरान का बिजली का बिल, कामगारों का वेतन, कारखाने सैनिटाइज करने का खर्च, कर्ज की किस्त कारोबारियों को मारे दे रहे हैं। दिल्ली फैक्टरी ओनर्स फेडरेशन के अध्यक्ष राजन शर्मा ने कहा कि लॉकडाउन खुलने के बाद धंधा कमजोर है मगर खर्च बढ़ गए हैं। कामगारों की संख्या के मुताबिक अब हर महीने 15 से 30 हजार रुपये कारखाने सैनिटाइज करने, कामगारों को मास्क और ग्लव्स देने, तापमान मापने की मशीन लगाने आदि में खर्च करने पड़ेंगे। सामाजिक दूरी का पालन करने के कारण कामगारों की कार्यशीलता भी घटी है, जिसका असर लागत पर पड़ेगा। मजदूरों का लॉकडाउन का बकाया वेतन देना पड़ेगा और वेतन नहीं दिया तो मजदूर नहीं मिलेंगे।
कई बार उद्यमी न्यूनतम वेतन के नियम का पालन नहीं करते मगर अब यह नियम भी उनके लिए दिक्कत पैदा कर रहा है। राजधानी के ही एक उद्यमी ने बताया कि पहले 10-12 घंटे काम कराने पर भी न्यूनतम वेतन देकर काम चल जाता था। लेकिन कामगारों की कमी के कारण अब नियमानुसार 8 घंटे काम कराने पर न्यूनतम वेतन देना पड़ रहा है। दिल्ली में न्यूनतम वेतन 14,800 रुपये से 19,500 रुपये महीना तक है। मुश्किल यह भी है कि न्यूनतम वेतन नहीं दिया तो मजदूर मिलेंगे ही नहीं।
हकीकत है कि लॉकडाउन के दौरान मजदूरों का अपने घर लौट जाना अब उद्यमियों को साल रहा है। बवाना चैंबर ऑफ इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष प्रकाशचंद जैन ने बताया कि बवाना के 16,000 कारखानों में काम करने वाले 3-4 लाख मजदूरों में से इस समय 1-1.5 लाख मजदूर ही बचे हैं। मांग भी कमजोर है, इसलिए कारखाने 40 फीसदी उत्पादन ही कर रहे हैं। पटपडग़ंज ऑन्त्रप्रेन्यर एसोसिएशन के मुख्य संरक्षक और कागज के थैले बनाने वाले संजय गौड़ के कारखाने में 50 में से 15 मजदूर ही बचे हैं। उनका कहना है कि ऑर्डर तो हैं मगर मजदूरों की कमी से उन्हें पूरा करने में दिक्कत आ रही है।
बिजली के बिल और किराये ने भी उद्यमियों को परेशान कर दिया है। जैन ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान कारखाने बंद होने पर भी बिजली कनेक्शन की क्षमता के हिसाबे फिक्स्ड चार्ज के हजारों रुपये भरने होंगे। उन्होंने बताया कि 100 किलोवाट लोड वाले कनेक्शन पर 30,000 रुपये से ज्यादा फिक्स्ड चार्ज होता है। यही हाल किराये पर चलने वाले कारखानों का है, जिन पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है।
दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में 20-25 फीसदी कारखाने किराये पर चल रहे हैं। क्षेत्र और कारखाने के क्षेत्रफल के हिसाब से किराया 40,000 रुपये से 1 लाख रुपये तक चल रहा है। जैन ने बताया कि बवाना में 250 मीटर के कारखाने का किराया 1 लाख रुपये है। दो महीने कारखाने बंद रहे और कारोबार नहीं रहा। मगर कारखाने दोबारा शुरू होने पर सबसे पहले उद्यमी के सिर पर बकाया किराये का बोझ आया है। इन सभी वजहों से पूंजी की इतनी कमी हो गई है कि उद्यमी कर्ज की मासिक किस्त भी नहीं निकाल पा रहे हैं। चैंबर ऑफ माइक्रो, स्मॉल ऐंड मीडियम एंटरप्राइजेज के अध्यक्ष मुकेश मोहन गुप्ता ने बताया कि लॉकडाउन के कारण भुगतान अटकने, नए ऑर्डर कम मिलने और उनका भुगतान भी फंसने की आशंका के कारण पूंजी की किल्लत हो गई है।
उद्यमियों की मानें तो देश भर में एमएसएमई के 2-3 लाख करोड़ रुपये बकाया भुगतान में ही फंसे हैं। राजधानी के उद्यमियों के ही 10-12 हजार करोड़ रुपये अटके हुए हैं। बवाना औद्योगिक क्षेत्र में पंखे की मोटर में इस्तेमाल होने वाली लोहे की चादर बनाने वाले एक उद्यमी ने बताया कि लॉकडाउन से पहले उसने 8-10 करोड़ रुपये का माल बेचा था। लॉकडाउन नहीं होता तो उसमें से 5-7 करोड़ रुपये मिल जाते, जो अब फंस गए हैं।दिल्ली फैक्टरी ओनर्स फेडरेशन के शर्मा ने बताया कि भुगतान अटकने के कारण भी उद्यमी पूरी क्षमता के साथ उत्पादन करने से डर रहे हैं।
पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स के उपाध्यक्ष और मुल्तानी फार्मेसी के मालिक प्रदीप मुल्तानी ने बताया कि आवश्यक वस्तुओं के कारखाने ही 80-90 फीसदी क्षमता से काम कर रहे हैं। बाकी कारखानों में 30-40 फीसदी क्षमता से ही काम हो रहा है। कारखाने भी इसीलिए चलाए जा रहे हैं ताकि बचे हुए कामगार बने रहें और कारोबारी चक्र चले वरना बाजार में मांग बहुत कम है।
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